हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Friday, December 31, 2010

गढ़वाली कविता (व्यंग ) : २०१० का आंसू

छेन्द स्वयंबर  का निर्भगी  राखी
बिचरी  येखुली रह ग्याई
तमशु देखणा की "लाइव " चुप-चाप
हम्थेय भी अब सैद आदत व्हेय ग्याई
भाग तडतूडू  छाई कन्नू बल कसाब कु ,
वू भी अब अतिथि देव व्हेय  ग्याई
लोकतंत्र की हुन्णी चा रोज यख हत्या ,
इन्साफ अध रस्ता म़ा बल अध्-मोरू व्हेय  ग्याई
कॉमन- वेल्थ का छीं आदर्श  भ्रष्ट ,
सरकार बल  राजा की गुलाम  व्हेय  ग्याई
मन छाई घंगतोल म़ा की क्या जी करूँ " गीत ",
तबरी अचाणचक से बल  शीला ज्वाँन व्हेय ग्याई
घोटालूँ कु २०१० सुरुक सुरुक मुख छुपे की ,
अंतिम सांस लींण  ही वलु  छाई,
की तबरी विक्की बाबू की हवा लीक व्हेय  ग्याई ,
" गीत "आँखों  म़ा देखि की अस्धरा लोगों का ,
अब कुछ और ना  सोची  भुल्ला ?
२०१० कु  निर्भगी प्याज  जांद जांद युन्थेय भी आखिर रूवे ग्याई
२०१० कु  निर्भगी प्याज  जांद जांद युन्थेय भी आखिर रूवे ग्याई

रचनाकार : गीतेश सिंह  नेगी  ( सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित )

Sunday, December 19, 2010

गढ़वाली कविता : यकुलांस

 यकुलांस

दिल्ली मा
अज्काला कि सब्बि सुबिधाओं व्ला
एक सांस बुझण्या फ्लैट मा
एतवारा का  दिन
जक्ख  ब्वे सुबेर भट्टेय मोबाइल फ़र चिपकीं छाई 
बुबा टीवी मा वर्ल्ड कप खेल्ण मा लग्युं छाई
और ६ बरसा कु एक छोट्टू नौनु वेडियो गेम मा मस्त हुयुं छाई
वक्ख ६२ बरसा की  एक बुडडि
छत्ता का एक कुण मा यखुली बैठीं 
टक्क लगाकि असमान देख़न्णी 
मनं ही मनं मा 
झन्णी क्या सोच्णी छाई  ?
और झन्णी क्या खोज्णी छाई ? 


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ,दिनांक १७.१२.१० , सर्वाधिकार सुरक्षित )

Thursday, December 16, 2010

गढ़वाली कविता : गलादार


गलादार

खाणा भी छीं,
पीणा भी छीं ,
कुरचणा भी छीं,
अटयरणा भी छीं,
हल्याणा भी छीं,
फुकणा भी छीं,
लठीयाणा भी छीं,
चटेलणा भी छीं ,
कटाणा भी छीं ,
लुटाणा भी छीं ,
जू ब्याली तक लगान्दा छाई ग्वाई, पंचेती का चुनोव मा ,
पहाड़ मा आज राजनीति की पतंग, बथौं मा व्ही उड़ाणा भी छीं , 

       जौंल लगाणु छाई मलहम पिसूडों फर,व्ही उन्थेय आज डमाणा भी छीं, 
ख्वाला आँखा जरा देखा धौं, कु छीं अपडा इन्ना
जू नीलाम कैकी पहाड़ थेय बिकाणा भी छीं
जू नीलाम कैकी पहाड़ थेय बिकाणा भी छीं
जू नीलाम कैकी पहाड़ थेय बिकाणा भी छीं


रचनाकार  :गीतेश सिंह नेगी ( सिंगापूर प्रवास से,सर्वाधिकार -सुरक्षित  )

Wednesday, December 15, 2010

गढ़वाली कविता : लल्लू पधान

उत्तराखंड कक्षा १० का एक प्रश्न-पत्र मा
मची ग्या बल घनघोर घमसाण
प्रश्न छाई आसान पर बच्चा छाई नादान
जवाब देखि की मास्टर जी खुण व्हे ग्या मुंडरु
हे ब्वे ,हे बुबा अब मी क्या जी करू ?

ये  गौं खुण उन् त क्या छाई  सड़क और क्या रेल ?
विगास का इतिहाश म़ा यु गौं हुन्णु छाई साखियुं भटेय फेल
खबर ,नेता और मेहमान सबही  रैन्दा छाई सदनी गौं से दूर
सैद इंह वजह से यु गौं छाई पहाड़ मा कुछ कम मशहूर
पर आज गौं कु नाम रोशन कै ग्या प्रधान जी कु नौनु लल्लू
सरया गाड फेल व्हे ग्या ,पास व्हाई सिर्फ भुल्ला लल्लू - २

उन् त प्रश्न पत्र मा, प्रश्न छाई अनेक
पर लल्लू थे पास करा ग्या उत्तर वेकु सिर्फ एक
प्रश्न छाई :अपना परिचय दीजिये ?
और लल्लू कु जवाब  छाई
लल्लू राम ,पुत्र श्री उछेदी राम (ग्राम प्रधान )
ग्राम - लापता ,पोस्ट -खाली
जिल्ला- बदर ,वाया -पैदल मार्ग
राज्य - उतंणदंड  पिन -000000

पर ये  सवाल मा फस ग्याई  बडू पेच, कन्नू तब एक
सरया स्कूल कु जवाब भी त आखिर छाई केवल एक
सामूहिक नक़ल का मामला मा ,व्हे ग्यीं सब फेल
पास व्हाई  बस लल्लू पधान,पर बिगड़ी ग्या वेकु भी खेल

मच
ग्या फिर हल्ला ,व्हे ग्या फिर शुरु जांच
मास्टर जी खुण व्हाई मुंडरु ,
लल्लू फर भी आ ग्या बल आंच
जांच मा खुल ग्याई बडू भेद
मूल्यांकन प्रणाली मा हुन्या छाई कुछ छेद
और लल्लू  का जवाब मा स्कूल थेय छाई खेद
एक सवाल छाई :अपने प्रदेश  क़ि राजधानी का नाम लिख्यें ?
लल्लू कु जवाब छाई :  " गैरसैंण "
उन् त सवाल और भी छाई और उंका जवाब भी छाई रोचक
पर लल्लू का दीर्घ -उतरीय प्रश्न जवाब
जांच का हिसाब से छाई बल आपतिजनक और सरकार अवरोधक
जांच हुंणा का बाद लल्लू भी व्हेय ग्या घोषित फेल
और सामूहिक नक़ल का आरोप मा भेजे ग्या वू ६ महीना क़ि जेल

गौं मा छाई मच्युं भारी शोक ,
पर लल्लू कु ददा थेय नि छाई कुई अफ़सोस
और वू बुना छाई
जुगराज रै म्यारा नाती लल्लू ,तुई छई  अब मेरी आश
नक़ल का आरोप मा भी तिल रक्खी पहाड़ क़ि लाज - २

काश पहाड़ कु हर नौनु ,लल्लू  बण जांदू
और परीक्षा मा ये सवाल कु जवाब
सिर्फ और सिर्फ   " गैरसैंण " लेखीक आन्दु
क्या पता से  यु दिन आज  " गैरसैंण " क्रांति कु इतिहास बण जांदू  ?
क्या पता से  यु दिन आज  " गैरसैंण " क्रांति कु इतिहास बण जांदू  ?
क्या पता से  यु दिन आज  " गैरसैंण " क्रांति कु इतिहास बण जांदू  ?
रचनाकार :        गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ,दिनांक १५ -१२-१०, सर्वाधिकार सुरक्षित )
                  

Saturday, December 11, 2010

गढ़वाली कविता : सैन्डविच

कक्ख छाई और अब कक्ख चली ग्यों मी
फर्क बस इत्गा च की अब अणमिल्लू सी व्हेय ग्यों मी
बगत आई जब जब  बोटणा कु अंग्वाल त्वे  पर
फुन्डेय-फुन्डेय उत्गा और व्हेय ग्यों मी
कक्ख छाई और अब कक्ख चली ग्यों मी ?

कबही बैठुदू  छाई रोल्युं की ढुंगयुं म़ा
तप्दु  छाई तडतुडू घाम,त्यारू गुयेर बन्णी की 
बज़ांदु  छाई बांसोल ,और लगान्दु  छाई गीत
सर -सर आंदी छाई हव्वा डांडीयूँ  की तब वक्ख
बगत बगत मेरी भी भुक्की पिणकु  
अब बैठ्युं छोवं यक्ख , समोदर का तीर यखुली
जक्ख आण वालू पान्णी ,चल जान्द हत्थ लगाण से पहली
खुटोवं थेय डमाकि  ,जन्न भटेय बोल्णु  ह्वालू 
अप्डू बाटू किल्लेय बिरिडी ग्यो तुम
 " गीत " क्या छाई और बेट्टा क्या व्हेय ग्यो तुम ?

रेन्दू छाई  मी भी स्वर्ग म़ा कबही
हिवांली डांडी कांठीयूँ का बीच
बांज ,बुरांस ,फ्योंली ,सकनी,कुलौं
सब दगडिया छाई म्यारा
लगाणु रैंदु छाई फाल डालीयूँ -पुन्गडियूँ म़ा तब
अट्टगुदू   छाई  गुन्णी बान्दर सी बन्णीक
पीन्दु छाई तिस्सलू प्राण  म्यारु भी पांणी 
हथ्गुलियुंल धारा-पंधेरौं कु
अब रेन्दू  अज्ज्काला की  बहुमंजिली बिल्डिंग म़ा
द्वार  भिचोलिक,लिणु छोवं स्वांश भी अब वातानुकूलित व्हेकि
और विकलांग सी भी व्हेय ग्युं जरा जरा मी अब
किल्लेय कि  बगत नि मिलदु अब ,भुन्या खुटू धैरिक हिटणा  कु
क्या  छाई और अब क्या  व्हेय  ग्यों मी
फर्क बस इत्गा च की अब अणमिल्लू सी व्हेय ग्यों मी

अ  हाह क्या दिन छाई वू  भी
जब खान्दू छाई  थिचोन्णी अल्लू मूला की मी
सौन्लौं कु साग पिज्वडया , गुन्द्कौं म़ा घीऊ -नौणी का
चुना की रौट्टी खान्दू छाई, रेन्दू  छाई कित्लू बैठ्युं सदनी चुलखांदी म़ा
लपलपान्दू  छाई जब जीभ सरया दिन डांडीयूँ म़ा
बेडू,तिम्ला ,हिन्सोला-किन्गोड़ा और भमोरौं दगडी
फिर चढ़चुडू  घाम म़ा कन्न चुयेंदी छाई गिच्ची
मर्चोण्या कच्बोली का समणी
अब खान्दू मी बर्गर ,डोसा ,पिज्जा और सैन्डविच बस
पिचक ग्या ज़िन्दगी भी अब सैद सैन्डविच सी बन्णी की
और मी देख्णु छोवं  चुपचाप खडू तमशगेर  सी बन्णी की
समोदर का ये पार भटेय सिर्फ देख्णु  और सोच्णु
कन्नू  व्हालू  म्यारु पहाड़ अब
बदल ग्ये होलू  सैद वू भी मेरी ही तरह से ?
बदल ग्ये होलू  सैद वू  भी मेरी ही तरह से ?

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित

Friday, December 10, 2010

गढ़वाली कविता : कै थेय क्या मिल ?

जू भी मिल उन्थेय ,सब त्वे से ही त मिल ,
वा बात अलग चा ,
की त्वे थेय ख्वे कै ही  त मिल ,
जब भी हैंस्दी, वू खित खित ही हैंस्दी अब ,
ख़ुशी या उन्थेय ,त्वे थेय रूव्ये-रूव्येक ही त मिल ,

जू भी मिल उखुंण व्हि भोत छाई ,
वा बात अलग चा ,
की उंल फिर भी त्वे से कम ही पाई ,
जू भी मिल उन्थेय ,सब त्वे से ही त मिल ,
वा बात अलग चा , की त्वे थेय ख्वे कै  ही त मिल ,

वू देखणा छीन ,सुपन्या बड़ा बड़ा बल अज्ज्काल ,
वा बात अलग चा ,
दिन वूं थेय यु , त्वे से मुख -फेरीक ही त मिल ,
जू भी मिल उन्थेय , सब त्वे से ही त मिल ,
वा बात अलग चा , की त्वे  थेय ख्वे कै ही त मिल ,

उक्काल काटी कै, दौड़णा छीन सरपट वू  आज ,
क्या व्हाई त़ा , 
दिन यु उन्थेय, तेरी छाती म़ा खुट्टू धैरिक ही त मिल ,
जू भी मिल उन्थेय , सब त्वे से ही त मिल ,
वा बात अलग चा , की त्वे थेय ख्वे कै ही त मिल ,


बस ग्यीं आज प्रदेशु म़ा जाकी ,कैरि यलीं  बल महल खड़ा ,
क्या व्हाई त़ा ,
बूणं भी उन्थेय यु ,अपड़ा घार- गौं थेय उजाडिक  ही त मिल ,
जू भी मिल उन्थेय , सब त्वे से ही  मिल ,
वा बात अलग चा , की त्वे थेय ख्वे कै ही   त मिल ,


" गीत " तू बोडिक अई घार चम्म
भुल्ला,कैकी सिखा सैऱी नि करी
किल्लेय  की ख़ुशी 
युन्थेय ,सदनी धार पोर जाके ही त मिल   !
किल्लेय  की ख़ुशी  युन्थेय ,सदनी धार पोर जाके ही त मिल   !
 किल्लेय  की ख़ुशी  युन्थेय ,सदनी धार पोर जाके ही त मिल   !
 
रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी, सिंगापूर प्रवास से, सर्वाधिकार सुरक्षित

Monday, December 6, 2010

गढ़वाली कविता : कु कु छाई ?




एक तू छाई
एक वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?

ना द्याखु उंल हम जनेय
ना पछियांणं हमुल उन्थेय
झन्णी कु छाई ?
झन्णी  कन्नु छाई ?
एक तू छाई
एक  वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?

रुंणा वू भी छाई लाचारी मा
कणाट हम भी कन्ना छाई बेगारी मा
ना उंल फुन्जा अश्धरा हमरा कब्ही
और ना हमुल बूथैयें वू कब्ही

लमडणा वू भी छाई धारु धारु  मा
अल्झंणा हम भी छाई बुझयौं- बुझयौं मा
ना उंल थाम  हत्थ हमरू
और ना हमुल ही  उन्थेय अडाय 

तिडक्यां वू भी छाई
टूटयां हम भी छाई
ना उंल  बोट्टी हम फर अंग्वाल
ना हमुल वू थमथ्याई

चुप-चाप वू भी छाई
बाच हम फर भी तब कक्ख छाई
ना दुःख उंल बताई अप्डू हम्थेय  
ना खैरी अप्डी हमुल कब्ही उम लगाई  

फुक्यां वू भी छाई
हल्याँ हम भी कम नी छाई
ना आग जिकुड़ी की कब्ही उंल बुझाई
ना हमुल बुझाई
एक तू छाई
एक  वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?




रचनाकार :        गीतेश सिंह नेगी,सिंगापूर प्रवास से,४-११-२०१०,सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, December 5, 2010

गढ़वाली कविता : कक्ख जाण , पहाड़ भोत याद आन्द ?



कक्ख छौ जाणा ?
और कक्ख तुमुल जाण ?
स्वाचा जरा कैरा ध्याणं
कक्ख  छौ तुम ?
और भोल कक्ख तुमुल जाण ?

बिरिडियूँ च समाज
छलेणु चा पहाड़
ब्हेर भट़ेय भी
और भितिर भट़ेय भी
सिर्फ और सिर्फ कचोरेंणु च पहाड़

रंगमत हुयाँ छी सब , बुंना छिन्न
"आल  इज  वेल  "
"आल  इज  वेल  "
पर  बतावा इनं बोलीक
आखिर कब तक हमुल अप्थेय बुथ्याँण ?

जल भी छुटटू ,
जंगल भी छुटटू,
भोल प्रभात कुडी -पुंगडि  भी जाण
फिर बतावा कक्ख हमुल उत्तराखंड ?
और कक्ख तुमुल  " म्यारु पहाड़  " बणाण ?

क्या छाई  मकसद ?
और क्या तुमुल पाई ?
किल्लेय छो छल्यां सी तुम
देखणा खोल्येकी  चुपचाप
तमशू म्यारु  ?

सुनसान व्हेय ग्यीं पहाड़
ख़ाली छीन गौं  का गौं 
बता द्यावा साफ़ साफ़
अब क्या च तुम्हरा जी मा?
और क्या च अब तुम्हरी गओवं ?

रह सक्दो अगर मी बिगैर तुम
छोडिकी यु रौन्तेलु मुल्क
ता कुई बात नि चा
पर नि झुराणी फिर जिकुड़ी म्यारा बाना
और नि करणी छुयीं बत्ता मेरी कै मा

अपड़ा भुल्याँ बिसरयाँ ,बाला दिनों की
ग्वाई  लग्याँ चौक डंडाली की
गाड गदिनियों  की
कुडी पूंगडियों  की
धारा पन्देरौं की 

राखी सक्दो अगर याद अप्नाप थेय
बिसरी की मीथेय ?
ता कुई बात नि चा
पर भोल ना बोल्याँ  की सच्ची  यार  "गीत "
कक्ख जाण ,   पहाड़ भोत याद आन्द
कक्ख जाण ,   पहाड़ भोत याद आन्द
कक्ख जाण ,   पहाड़ भोत याद आन्द

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,४-११-१०,सर्वाधिकार सुरक्षित

Saturday, November 27, 2010

आपदा का हिमालय

हिमालय की गोद में बसा
कहीं एक सुन्दर सा प्यारा गाँव
गाँव के ऊपर थिरकते झरने
खिलखिलाती धूप का  भी रहता अक्सर ठावं

पक्षियों का भी रहता कलरव हरपल वहां
बांज ,बुरांस ,चीड व देवदार भी देते ठंडी छावं
प्रात: काल जब सूरज उगता
देता जीवन को फिर आनंद आयाम

नदी ,झरने ,फूल ,वृक्ष और पक्षी
सब मानों होते अहलादित
हँसते ,झूमते,खेलते ,खिलखिलाते
मानों करते हो स्वागत प्रणाम !

हल उठाता एक बीर फिर
लेता कंधे पर वो उसको  टांग
चल पड़ता बैलों संग वो फिर
खेतों का करने श्रंगार 

हल चलता फिर वो धरती पर
देता उसका सीना हल से चीर
तपता दिन- भर सघन धूप में
हार नहीं मानता लेकिन सूरबीर

फिर आता भोजन लेकर जेठ दुपहरी
घर से करता कोई उसकी ढूंढ़
खिल उठता योवन सा उसमे
खाकर चूण की दो रोटी संग लूण

फिर जुट जाता धरा का कर्मवीर
खूब खेलता वो हल -बैल और बीजौं से
कभी इस कोने,कभी उस कोने
कमर तोड़ता,घाव सहलाता वो गंभीर

हो जाते व्याकुल भूखे और प्यासे
उसके दो साथी बैल  भी जब अचेत
घास खिलाकर ,हाथ फेरकर
नदी किनारे जल पिलाता उन्हे वो धर्मवीर 

देर शाम को जब पहाड़ का
अंचल अंचल सुना हो जाता
कांधे पर हल उठाये ,बैल हांकता
घर लौटता थककर वो होकर अधीर

घर पहुंचकर सर्वप्रथम  करता बैलों का वो सत्कार
घास खिलाकर,जल पिलाकर
बच्चों सा देता उनको वो पुचकार
हाथ फेरकर सहलाता कांधे पर करता प्रकट हार्दिक आभार

सर्द हवाओं में जब डंक मारता सन्नाटा
दंत किटकिट्टाता,फूंक मारता ,आग जलाता पर्वतवीर
हिमाँछादित होंगे पर्वत ,होंगे श्वेत धवल अब
रंग बदलेंगे किरणों के संग मनमोहक तब

नदी- झरने,पशु -पक्षी,पुष्प -विटप करते अठखेलियाँ सब
खिलती बिखरती अदभुत-अदित्य छटायें हिम शिखरों पर तब
गूंजते गीत होली के फिर घाटी घाटी में चहुदिश
क्यूंकि अब वहां ऋतू बसंत इठलाता आ जाता

तितलियाँ मंडराती फिर जब खिलते भाँति भाँति के फूल
सजने लगते गाँव  में फिर कौथिग मेले
नाचते-खेलते , थडिया ,चांचरी ,चौंफला गीत
सजने लगती क्यारियाँ ,पकते जंगल के भी फल

कोपल  निकलते बीजों से फिर
देख उन्हे मंद मंद वो मुस्काता
दिन रात सींचता खेतों को
खुद वो  जिस्म धूप में पिघलता

झूमती इठलाती फसल फिर खेतों में
अब वो फसल का चौकीदार बन जाता
ख्वाब सजाता दिल में उमंग के तब  
पर उससे पहले अम्बर मेघ से पट जाता

पड़ी कुद्रष्टि इस धरा पर किसकी
जो इन्द्रदेव सघन जल दिन रात बरसाता
तहस -नहस  होता उसका सब फिर
वो खामोश हो सिर्फ मूक दर्शक सा रह जाता

गिरती फसल,बिखरते स्वप्न,डूबता-टूटता घर
सब मुसलाधार बरखा में बह जाता
एकटक देखता खेतों को कभी
कभी बैलों को सांत्वना दे सहलाता

उधर सत्ता के गलियारों में पक्ष-विपक्ष की
होती रोज दिवाली  है
जाम छलकते सत्ता सुख के अक्सर वहां
अभागा दुःख उसका बस आपदा की खबरों तक सिमटकर रह जाता

बट जातीं कलमें भी फिर
पक्ष-विपक्ष के खेमों में
कौन सच्चा  और कौन  झूठा फिर
यहीं आपदा की चर्चा का मुख्य विषय रह जाता

होती तू - तू ,मैं - मैं ,
खीचतान और उठापटक
धरने , आंदोलन और जाने फिर क्या क्या
फिर आपदा की बोतल में राहत का जिन्न आ जाता

फिर राजधानी के वातानुकूलित कमरों से
होती दावों की नित बोछार अनंत
तत्पश्चात गाँव में आपदा राहत का एक हज़ार का चेक
कोई खादी की धोती और टोपी पहन उसको दे जाता

सिर पकड़कर बिलखता वो कुछ दिन
खाकर चूण की बासी-तिबासी अक्सर
तो कभी भूखे पेट जल पीकर
वो बेचारा सो जाता

 इस राजनीति  से मुझे क्या लेना देना
जल-जंगल-जमीन से बना रहे बस नाता
बस इतना ही सोच धरती पुत्र
पुन: जीवन संघर्ष में जुट जाता

बस इतना ही सोच धरती पुत्र
पुन: जीवन संघर्ष में जुट जाता

बस इतना ही सोच धरती पुत्र
पुन: जीवन संघर्ष में जुट जाता




( मेरी यह रचना एक श्रधांजलि  है मेरे स्वर्गीय दादा जी ठाकुर श्री  भूपाल सिंह नेगी जी के जीवन को जिनसे मुझे एक किसान के संघर्ष और दुःख को बहुत करीब से देखने  और समझने का मौका मिला | देश के हर कोने में किसान की समस्याएँ चाहे  जैसी भी हो पर उसका दर्द सभी जगह समान रूप से  ही पीड़ा दायक  है फिर चाहे
किसान हिमालय का हो ,विदर्भ का ,असम,बंगाल ,उतर-प्रदेश , बिहार या पंजाब का  | आपदा से पीडित इन्न   धरा के सपूतों को समर्पित मेरी एक छोटी सी  रचना  "आपदा का हिमालय " )


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ,दिनांक २५-१०-१० ,सर्वाधिकार सुरक्षित )

परिवर्तन

साँझ ढले सूरज को तकता हूँ
छोटा है सफ़र फिर क्यूँ थकता हूँ ?
पास है  मंजिल मेरे
फिर क्यूँ  खुद से कोसो दूर लगता हूँ ?

हूँ इन्सान तो मैं भी
इंसानियत भी शायद रखता हूँ
अंधेरों मे भी रहकर अक्सर मैं 
उज्जालो की खबर रखता हूँ 

ये शहरों की मस्ती
या कहो जश्न- एय - बर्बादी
संग हाथों में है जाम तो क्या
मैं  तो दुनिया की खबर रखता हूँ

जानता हूँ इस दुनिया को मैं
और शायद ये दुनिया भी मुझे
बेशक कभी -कभी खुद से ही मैं
अपना ही पता पूछता रहता हूँ ?

वो फ्योंली  और बुरांस के फूल
वो शिखर हिम श्रिंगार लिये
मानों करते  हो करुण क्रंदन
विरह वेदना का  सा ज्वार लिये

वो गिरते फूल चीड से
क्यूँ लगते हैं जलते अंगार से
हैं शबाब- ओ-हुस्न पर  नागफनी भी
पर चुभते हैं कांटे सुई-तलवार से

वो बहती अलकनंदा  की धारा
हैं  पर्वत  सजे से  धवल नार
करते बरसों से जाने किसका ये इंतेज़ार 
दिशायें भी मानों हौं करती चीख -चीत्कार

वो पहाड़ पर पेडों का झूमना
फूलों का खिलना
उड़ना संग बादलों के फिर
तितली पकड़ना और झूलों का झूलना

वो चीड की सायं -सायं
गिरते झरनों की झर -झर
वो पक्षियों का नित होता कलरव
संग  बांसुरी के  वो गूंजते शैल स्वर

करना चाहता हूँ आलिंगन मैं भी इनका
पर शायद बदल गया हूँ अब
इन्सान से पत्थर हो चुका हूँ शायद
और शायद स्वार्थी और भाव-शब्द हीन भी

रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी,कुरुक्षेत्र विश्वविधालय परिसर से ,दिनांक २७-०७-२००७
(*सर्वाधिकार   सुरक्षित )

Friday, November 26, 2010

चलो कहीं एक ऐसा मकां बना डालें

चलो कहीं एक ऐसा आशियाँ  बना डालें 
न हो भेद अमीर - गरीब का जिसमे  
आओ  कहीं एक ऐसा जहाँ बना डालें                     
चलो कहीं एक ऐसा मकां बना डालें  
                        
ना जला सके जिसको कोई उन्माद में
ना झोंक सके जिसको कोई जेहाद  में 
आओ  कहीं एक ऐसा जहाँ बना डालें  
चलो कहीं एक ऐसा मकां बना डालें  

जिसकी खिदमत करे मिलकर सभी
हिन्दू -मुस्लिम- सिख-ईसाई
आओ एक ऐसा भगवान बना डालें
चलो कहीं एक ऐसा मकां बना डालें

ना पहुंचें  चाँद पर बेशक कदम,कोई शिकवा नहीं 
हो कद्र इन्सान को इन्सान की  बस बहुत इतना 
कहीं एक ऐसा भी  इन्सान  बना डालें
चलो कहीं एक ऐसा मकां बना डालें
 
जहाँ ना बिकती हो सरे-आम इंसानियत की इज्ज़त-आबरू
और ना लगतीं हो बोलियाँ ईमान  की 
आओ कहीं एक ऐसा जन्नती बाज़ार बना डालें
 चलो कहीं एक ऐसा मकां बना डालें

रचनाकार :( गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से,दिनांक २६--१०-१० ,सर्वाधिकार-सुरक्षित )

Thursday, November 25, 2010

आओ तिलांजलि दें

बेबस हालातों  को
खामोश बातों  को
मौन अपराधों को
भ्रष्ट सरकारों  को
चीखते घोटालों को
अंधे कानून की
गूंगी-बहरी अदालतों को
आओ तिलांजलि दें !

गिरते जमीर की
उठती दिवारों को
बिखरते चरित्र की
ढहती आधुनिक इमारतों को
बिकती इंसानियत के
सस्ते बाजारों को
लुटते गरीबों की
डरी सहमी सी आवाजों को
आओ तिलांजलि दें !


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ,दिनांक २५.११.२०१०, सर्वाधिकार सुरक्षित )

Thursday, November 11, 2010

गढ़वाली कविता : खैरी का बिठगा

तेरी पीड़ा का बिठगा सदनी तिल्ल ही उठयें
कष्ट,
दुःख- दर्द जत्गा भी छाई तिल्ली सहैं
स्यैंती पाली जू करी बड़ा तिल अपडा
भूल गयें स्येद वू भी त्यारा दुखड़ा
 

त्यारू  चौमस्या प्यार,त्यारू बस्गल्य़ा उल्यार 
त्यारा थोल -म्याला ,त्यारा तीज त्यौहार
कन बिसरी टप्प, जाकी प्रदेशो मा पहाड़ पार
छोडिकी हे स्वर्ग त्वे थेय,झणी जैका सहारा फर
सुनसान छी आज त्येरी डांडी- काँठी
उं फर शान ना बाच
रौल्यूं मा एनं पवड्यीं  झमाक
जन्न छलेए सी ग्ये होंला
मिल सुण घुगती भी नि आंदी उं पुंगडौं मा अब
जख नि खप्प साका हैल और निसुड़ा तुम से
ग्विराल भी रैएन्द रुन्णु दिन भर
नि हयेन्स्दा नौंना- बाला वेय दगडी अब 
मुल-मुल
चल ग्यीं सब प्रदेशो मा व्हेय के ज्वान
खलियाणं भी अब नि रै  पहली जन्न चुग्ल्यैर
स्यार- पुंगडा भी छी उकताणं लग्याँ
और बल्द भी 
छी जलकणा हैल देखि की बल
गदेरा  भी
छी बिस्गणा बल  यकुलांस मा सयैद
और पंदेरा भी
छी रुणा टूप- टूप यखुली यखुली
एँसू का साल चखुला भी नि बुलणा
छी "काफल पाको "
बाटू भी बिरिडी ग्या गौं कु रस्ता,तुम जन्नी अब
डाली - बोटी भी बणी
छी जम -ख़म मिल सुण
फूल -पत्तौं फर भी नि रै मौल्यार पैली जन्न  
और घार गौं ,य राँ धौं
व्हेय ग्यीं बोल्या सी बल यकुलांस म़ा तुम बिगैर
लिणा
छी आखरि सांस यकुलांस मा
लिणा छी आखरि सांस यकुलांस मा

रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सर्वाधिकार -सुरक्षित,दिनाक २९ -१० -१० )

Monday, November 8, 2010

गढ़वाली कविता : दस साल

बहौत दिन व्हेय ग्यीं
उठ्णु चा एक सवाल मनं मा
सोच्णु छोवं आणि  दयूं उम्बाल थेय बैहर अब
कैकी कन्ना छोव अब  हम जग्वाल

छेई आश होलू  बिगास
व्हेय ग्यीं दस साल
पर नि व्हेय अभी कुछ खास
कैकी कन्ना छोव अब हम जग्वाल

कन्न लाडा छाई,कन्न जीता छाई
कन्न कन्न खेला छाई हमल खंड
एक छाई जब मांगू हमल उत्तराखंड
याद कारों पौड़ी ,मंसूरी ,खटीमा गोलीकांड
कैकी कन्ना छोव अब हम जग्वाल

भूली ग्यो सब सौं करार ,रंगत मा छिन्न गौं बज्जार
ना बिसरा उ आन्दोलन -हड़ताल , उ चक्का जाम
एकजुट रावा, बोटिकी हत्थ,ख़्वाला आँखा अब 
कैकी कन्ना छोव अब हम जग्वाल

जाओ घार ,पहाड़ मुल्क अपड़ा सुख दुःख मा
ना बिसरो कु छोवं हम
ध्यो करला  देब देब्तौं ,अपड़ा पहाड़ी रीति-रिवाजौं हम 
कैकी कन्ना छोव अब हम जग्वाल

जक्ख भी रौंला ,मिली-जुली की फली- फुलिकी
बणा दयावा वक्खी एक प्यारु उत्तराखंड महान
एक ध्यै,एक लक्ष्य ,एक प्रण, बढ़ोला  उत्तराखंड की शान
कैकी कन्ना छोव अब हम जग्वाल

 (उत्तराखंड राज्य का उन् सपनो थेय समर्पित जू अबही  पूरा नि व्हेय साका )
 रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सर्वाधिकार सुरक्षित )

Friday, October 22, 2010

गढ़वाली कविता : जय हो उत्तराखंड




गलदारौं की  
ठेकादारौं की
जय हो उत्तराखंड त्यारा समल्धरों की !

प्रधनौ की 
प्रमुखौं की  
जय हो उत्तराखंड त्यारा "जनं-प्रतिनिधियौं "  की !

भित्तर का बेरोजगारों की
बहेर्रा का रोजगारों  की 
जय हो उत्तराखंड उन्का लगन्दरों की !

नय साला का बढ़दा खर्चौं  की 
पुराणा पाँछि कर्जौं की 
जय हो उत्तराखंड त्यारा लुछधरौं की !

बज्दा घान्डों की 
खाली भांडों की 
जय हो उत्तराखंड त्यारा बड़ा बड़ा डामों  की !

बिस्गदी गंगा की
बोग्दी कच्ची- दारू का छानियुं की 
जय हो उत्तराखंड त्यारा घियु -दुधा का धारौं की !

टूटयाँ हैल-दंदुलोउन की
निकम्मा दाथी थमलोउन की
जय हो उत्तराखंड त्यारा अज्कल्य्या ब्वारी नौनौं की !
जय हो उत्तराखंड त्यारा अज्कल्य्या ब्वारी नौनौं की !

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी (सिंघापुर प्रवास से ),दिनांक २२-१०-१०  (*सर्वाधिकार  सुरक्षित )

Wednesday, October 20, 2010

गढ़वाली कविता : वाडा कु ढुंगु

                      
ब्याली अचान्चक से लमड्डी गयुं मी  एक जग्गाह  मा
अलझि गयौं सडाबड़ी  मा एक ढुंगा से
और व्ये ग्यूं चौफुंड वक्खी  मा  
चोट की पीड़ा  बहुत व्हये
और अचानक मिल ब्वाल 
औ ब्वई  मोर  गयुं  मी 
झन्णी जैक्कू म्वाड़ म्वार  होलू
कैल धार  होलू  यु  ढुंगु   यम्मा ?
थोड़ी देर मा व्हेय ग्या सब ठीक
पर व्ये ढुंगा की ढसाक से 
मी रौं जम्मपत्त झन्णी कत्गा दिनों तक
और स्येद आज भी छोवं
किल्लेय की  ढुंगा की चोट करा ग्या याद बचपन की
और कैर ग्या घाव हरा सम्लौंणं का
याद करा ग्या गौं का बाटा कु वू
वाडा कु ढुंगु
जू अल्झंणु रेहंदु छाई
रोज कै ना कै का खुटोउन  फ़र
पर जेथे कुई रड्डा भी नि सकदु छाई
किल्लेइ  की वू छाई "वाडा कु ढुंगु "
भोत गाली दीन्दा  छाई आन्दा जान्दा लमडदरा  लोग
व्ये ढुंगु थेय
पर झणी किल्लेय,मी अब सम्लाणु छोवं
व्ये  वाडा कु ढुंगु थेय
जोडिकी हत्थ ,अस्धरियुं का साथ 
जैल याद दिला देय  मित्थेय
म्यारू बोगयुं और ख़तयूँ
निरपट पान्णी  की खीर सु बचपन
 अब जब भी जन्दू मी  वीं  सड़क का ध्वार से
ता  सबसे पहली देखुदु व्ये ही ढुंगु  थेय 
और फिर मनं  ही मनं
सेवा लगाई  की  बोल्दु
जुगराज रेए  हे  वाडा का ढुंगा
रए सदनी व्ये ही  बाट  मा
सम्लाणु रहे  इन्ही  हम्थेय
जू बिसिर  ग्यें   अपडा गौं कु बाटू    
जू  बिसिर ग्यें  मेरा गढ़ -कुमौं कु बाटू  
जू बिसिर ग्यें    मेरा गढ़ -कुमौं  कु बाटू  

रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सिंघापुर प्रवास से ),२०-१०.१० 
                (*सर्वाधिकार सुरक्षित )

Monday, October 18, 2010

गढ़वाली कविता : तिम्ला का फूल



ब्वारी कु गुलबंद
नाती की धगुली
नातिनी की झगुली
पतल्या भात
लिंगवड्या साग
चुल्हा  की आग
कस्य्यरा  कु पाणि
होली का गीत
बन्सुल्या गुयेर
दयें  का बल्द
गुठार्या गोर
पुंगड़ों कु मओल
शिकार की   बान्ठी
ब्वाडा की लान्ठी  
भंगुला का बीज
मुंगरी की पत्रोट्टी
गैथा का रौट्टा
घस्यरियौ का ठट्टा
कख गयीं सब
ख्वाजा धौं  !
नि मिलणा सयेद
किल्लेय की व्हेय गिन सब
अब बस " तिम्ला का फूल "
             " तिम्ला का फूल "
              " तिम्ला का फूल "

गढ़वाल मा पुंडीर राजपुतौं कु संक्षिप्त इतिहास :1

गढ़वाल मा पुंडीर  नेगी या पुंडीर रावत  जाति की  मूल उत्पत्ति का बारा मा चर्चा करणं  से पहली पुंडीर राजपूतों कु  सम्पूर्ण इतिहास  का बारा मा चर्चा  करण जरुरी चा जू भगवान श्री राम का पुत्र कुश का वंशज  छीन | पुंडीर सब्द की उत्पति रजा पुंडरिक   का नाम फ़र व्ह्याई जू बाद मा राज -पाट छोड़ छाडी की कुल्लू (हिमाचल प्रदेश ) मा चली ग्या छाई |
पुंडीर  सूर्यवंशी राजपूत हुन्दी जौंल नाह्न (हिमाचल ),सहारनपुर (जसमोर रियासत ) और उत्तराखंड प्रदेश का गढ़वाल क्षेत्र मा राज काई | यूँ की कुलदेवी राजस्थान और सहारनपुर मा माँ शाकुम्बरी देवी छीन जौं कु भव्य मंदिर जसमोर रियासात का बेहट क़स्बा मा विराजमान चा  जबकि गढ़वाल मा यूं की  कुलदेवी पुण्याक्षणी देवी   चा | परन्तु उत्तर भारत मा पुंडीर वंश की उत्पति  दक्षिण भारत  का तेलंग परदेश जू की आधुनिक तेलंगाना परेद्श ( प्राचीन पुण्डर रियासत ) का नाम से प्रसिद्ध च व्ह्याई जैका   प्रतापी राजा मंदोंखरदेव हुईं जू एक बार आधुनिक हरियाणा  परदेश का कुरुक्षेत्र मा भ्रमण खुण गईं तब सिंध परदेश का राजल  उन्थेय अपड़ी पुत्री कु विवाह कु प्रस्ताव दये  और बदला मा कैथल (आधुनिक हरियाणा कु एक जिल्ला ) कु क्षेत्र  उन्थेय  भेंट कार | उत्तर भारत मा पुंडीर राजपुतौं  कु असल   विकास राजा वंशधर का राज मा व्ह्याई जौंल  कैथल का समीप पूंडरी (आधुनिक पूंडरी ) और कुरुक्षेत्र का थानेसर (जो कन्नौज  का  राजा हर्ष -वर्धन की राजधानी भी राहि) मा अनेक किल्लूं कु निर्माण काई जैक्का  प्रमाण आज भी पुरातात्विक  रूप मा उपलभ्द छी |
आपकी जानकारी खुण यक्हम यु जिकर कर्णु जरुरी च क़ि पंजाब का भटिंडा  और आधुनिक हरियाणा का समांना ,करनाल , और अम्बाला पुंडीर राजपूतों का गढ़ रहिन और चौहान राजा पृथिवी राज  चौहान का राज मा पुंडीर राजपूतों थे प्रमुख अधिक्कार और सम्मान दिए ग्या | पुंडीर राजपूत मा चन्द कदम्बवासा  पृथिवी राज चौहान का प्रमुख  मंत्री  छाई ,वेकु भुल्ला चन्द पुंडीर सीमांत लाहौर क्षेत्र  मा सेना प्रमुख  छाई जबकि सबसे छोटू भुल्ला चन्द राय पृथिवी राज चौहान और मोहम्मद गौरी का बीच प्रमुख एतिहासिक ताराईन(आधुनिक तरावडी जू कुरुक्षेत्र का पास एक छुट्टू सी  क़स्बा चा और बासमती चौलं की खेती खूण  मशहुर चा) क़ि लड़ाई मा जनरल छाई | यूँ बातुन से या बात एक दम साफ़ चा क़ि इतिहास  मा पुंडीर राजपूतों थे अत्याधिक सम्मान प्राप्त  छाई जो क़ि उनकी राजपूती शान और वीरता क़ी परिचायक चा .
 मुग़ल शासक शाहजहाँ का काल मा  गंगा और जमुना का बीचा कु भाग ( दोआब ) का मऊ क्षेत्र मा पुंडीर राजा जगत सिंह पुंडीर प्रतापी राजा  छाई जौन औरंगजेब क़ी बगावत कु फायदा उठाकी मुग़ल शासन का खिलाफ बगावत कु बिगुल बजा देय और अपड़ी छुट्टी सी सेना से मुगलों थे युद्ध मा धुल चटाई दये .ये  का अलवा अलीगढ मा पुंडीर राजा धमर सिंह पुंडीर प्रतापी राजपूत वहीं जौलं बिजैगढ़ किल्ला कु निर्माण कार .अठारवीं सदी मा पुंडीर राजपूतों और अंग्रेज सेना मा भीषण युद व्ह्याई जै मा अंग्रेजओउन  थे विजय प्राप्त व्हाई और बिजैगढ़ कु किल्ला  फर अंग्रेजओउन  कु कब्ज़ा व्हेय ग्या.येक्का अलवा मनहर  खेडा  (आधुनिक जलालाबाद जू क़ी मुज्ज़फरनगर और सहारनपुर का बीच एक क़स्बा चा)  मा पुंडीर राजपूत मनहर सिंह पुंडीर का अधीन  छाई जौन क़ी कुल देवी मा शाकुम्बरी का मंदिर मा सड़क निर्माण का कारण मुग़लओउन दगड  बिगड़ी ग्या और जै क़ी कीमत उन थे मनहर गढ़ कु किल्ला  गवांणं प्वाड़ .अलीगढ का नज़दीक अकराबाद क्षेत्र भी पुंडीर राज्पुतोउन का अधीन राहि और सोलवीं सदी मा रोहन सिंह पुंडीर न रोहाना  सिंहपुर (आधुनिक रोहाना  ) क़ी स्थापन्ना काई .
सहारनपुर क्षेत्र  मा जसमोर रियासत जू की पुंडीर राज्पुतौं की कुलदेवी शाकुम्बरी कु क्षेत्र च,  गढ़वाल का पुंडीर नेगी और पुंडीर रावतों का मूल क्षेत्र चा |  आधुनिक पश्चिमी  उत्तर परदेश का सहारनपुर जनपद मा आज भी बेहट ,नानोता   और छुटमलपुर और निकटवर्ती क्षेत्र  मा पुंडीर राजपूतों का कयी गौं छि और सहारनपुर  नगर से ४० कि.मी पूर्व दिशा मा जसमोर गौं का नजदीक माँ शाकुम्बरी देवी कु मंदिर चा जू पुंडीर राज्पुतौं की कुल देवी चा .लोक कथाओं का अनुसार माँ दुर्गा ल यक्ख  महिसासुर  कु वध  करण से पहली १०० साल तक तप कार और हर मास का अंत मा वुन बस फलाहार कार छेई .एय कारण से दुर्गा कु नाम शाकुम्बरी अर्थात (शाक का आहार करण वल्ली ) पोड़ ग्य्याई .ऐय  मंदिर से एक क़ि . मी  पहली बाबा भूरा देव (भेरों ) कु मंदिर चा जौन का बार मा एन्न बोल्दी क़ि  वू तप का दौरान देवी क़ि रक्षा कन्ना चाई . देवी  का दर्शन से पहली आज भी लोग पहली बाबा  भूरा  देव का मंदिर मा पूजा कन्ना कु जंदी ,  उन शाकुम्बरी देवी कु दुसुरु  मंदिर आधुनिक राजस्थान  का जयपुर शहर से ९० क़ि.मी दूर एक एक लूणया  पानी क़ि झील (सांभर झील ) का तीर  भी विराज्म्मान चा जू त-करीबन १३३० साल पुराणु मानने जांद.एय मंदिर का बारा मा बुली जांद क़ि एक बार देवी ल खुश  हवे क़ि पहाड़ी  जंगल थे चाँदी का मैदान मा बदल द्याए पर भगत लोगों ल  ऐय  थे देवी कु हंकार समझक़ि  व्हींकी पूजा सुरु कार और विनती करण बैठ गईं  तब देवी ल  प्रसन व्हेय क़ि चाँदी थे लूण मा बदल दई जो क़ि आज भी झील का पानी मा मिलद .
गढ़वाल मा  प्रतापी पुंडीर  राजा वत्सराज देव वहीं जै क़ी राजधानी मायापुर (आधुनिक हरिद्वार )  छाई.चूँकि मायापुर पूरण जम्ना से ही एक प्रसिद्ध धार्मिक क्षेत्र  छाई एल्ले मुग़ल और अन्य आक्रमणकरियौं  क़ी बुरी नज़र सदनी मायापुर जन्ने लगीं राहि और व्हेय क़ी भारी कीमत मायापुर थे चुकाणी प्वाड़ नासिर- उद- दिन मोहम्द और वेक बाद तेमूर का भयानक आक्रमण से ज्यालं ऐय  क्षेत्र मा पुंडीर राज्पुतौं  कु अधिपत्य समाप्त हवे गेई .
 लगभग १८ वी  सदी मा   गढ़वाल का राजा ललित शाह  छाई जौलं देहरादून का १२ गौं राणा गुलाब सिंह पुंडीर थे अपड़ी नौनी  का हाथ दगडी सौंप दी अगर सच बुल्ले जा एय उनकी कोशिश  छाई वे क्षेत्र  मा राज्पुतौं और गुर्जर बिद्रोल थेय  कम कन्ना क़ी | राज़ा ललित शाह का द्वी नौंना छाई (१) जयकृत शाह (२) प्रदुम्न  शाह
अठारवीं सदी मा जयकृत शाह और  प्रदुम्न  शाह   क़ी आपसी मन मुटाव कु लाभ गोरखों न  उठाई और उन श्रीनगर पर आक्रमण करी द्याई.राजा प्रदुम्न  शाह थे श्रीनगर भट्टे पलायन करण  प्वाड़  पर उन् हार  नि मानी और पुंडीर राज्पुतौं,रांगड़ राज्पुतौं और गुर्ज्जर सेना का साथ खुदबुडा का मैदान मा पहुँच गयें  .ऐय  युद्ध मा राजा का द्वी भाई और द्वी राजकुमार सुदर्शन शाह और देवी सिंह भी लडीं पर दुर्भाग्य बस एय युद्ध मा   राजा प्रदुम्न  शाह थे अपना प्राण गवांण प्वडी.
काल-अंतर मा ब्रिटिश सेना क़ी मदद से गोरखों थेय खदेड़ना का  बाद दून क्षेत्र पुंडीर राज्पुतौं का अधिपत्य मा ही राहि  |
गढ़वाल मा चौन्दकोट पट्टी मा और अन्य क्षेत्र मा आज भी पुंडीर रावतुं और पुंडीर नेगियौं का गौं राजी -ख़ुशी बस्यां  छीन  |
हालांकि अभी पुंडीर रावत और पुंडीर नेगी गढ़वाल मा कख कख बस्यां छें मी ठीक से नि बोल सकदु पर मेरी जानकारी का हिसाब से  चौन्दकोट पट्टी का रिटेल गौं मा पुंडीर रावत  बस्यां छी| जू क्वाला (बौन्द्र ) से रिटेल मा आकी बसीं उन् पौड़ी मा  पुड्यर गौं मा भी पुंडीर राजपूत बस्यां छी और मेरी जानकारी से पुड्यर  नाम पुंडीर जाति का   कारण से ही  प्वाडू होलू |
मी थेय  उम्मीद च की ऐय का अलावा भी गढ़वाल या कुमौं  मा पुंडीर राजपूत बस्यां व्हाला पर मेरी जानकारी अभी ऐय मामला माँ एत्गा तक ही सिमित चा और सायेद कुछ समय बाद ऐय बार मा मी अधिक जानकारी आप लोगौं दगड बाँट सकूँ |
आज भी सहारनपुर का निकटवर्ती क्षेत्र मा पुंडीर राजपूत ,सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक  रूप से सक्रिय  छी |ये का अलावा रायल  गढ़वाल  रायफल से लेकर कारगिल युद्ध मा भी गढ़वाल और सहारनपुर क्षेत्र  का पुंडीर राजपूत समय-समय समय फर अप्डू इतिहास दोहराणा रैं |

आखिरी  मा मी ऐय निष्कर्ष फर औं  और मान सकदु   क़ी पुंडीर नेगी और पुंडीर रावत मूल रूप से सहारनपुर का ही पुंडीर राजपूत छी जौं कु विस्तार तेलंग प्रदेश से लेकर राजस्थान,पंजाब ,हरियाणा ,दोआब क्षेत्र सहारनपुर और देहरादून राहि |


* उपरोक्त जानकारी थेय केवल आदान प्रदान मा प्रयोग का वास्ता लिये जाव,जू मिल विषय मा रूचि का कारण  विगत कुछ वर्षो मा सहारनपुर ,मनहर -खेडा ,जस्मोर, बेहट ,छुट-मलपुर ,सरसावा व नानोता  क्षेत्र  का अपणा दोस्तों व कुरुँक्षेत्र मा अपडा छात्र काल मा पूंडरी ,अम्बाला ,कैथल ,थानेसर ,करनाल,समाना आदि  स्थानों का भ्रमण  व   सहारनपुर  मा अनेक बार माता शाकुम्बरी का दर्शन से विभिन्न लोगो से जुटाई |ऐतिहासिक विवरण अध्यन का विभिन्न माध्यमों(अखबार,पत्रिका,और अन्य ) से छें |उपरोक्त जानकारी कक्खी  मा या  बहुत  सी जगहों मा गलत भी व्हेय सकद  पर साथ मा  मी आपसे आशा भी करदू की  इंयी दिशा मा आपकू  ज्ञान और सहयोग  सायेद हम सबही थेय  पुंडीर रावतोउन और पुंडीर नेगी जाति का लघु   इतिहास की इंयी श्रंखला थेय एथिर बढाना मा सहयोग कार  |

Friday, October 15, 2010

गढ़वाली कविता : उक्ताट


अब्ब्ही भी बगत चा
आवा हम दगडी चितेई जौला
न्थरी भोल दगडी  फट्टा  सुखोला
पहली कारू छाई एक आन्दोलन घमासान
व्हे  गयीं कत्गा शहीद, खाई   की छाती और कपाल फ़र लट्ठा -गोली
तब हम ही  जीतो  ,किल्लेय की तब  हम एक छाई
भोल  एक और आन्दोलन ना करण प्वाडू कक्खी  फिर हम्थई ?
आन्दोलन अपड़ा आप थेय बचाणा कु
आन्दोलन अप्ड़ी भाषा और रिवाज़ों थेय सम्लाणाकू
आन्दोलन थोल म्य्लों थेय बचाणा कु
आन्दोलन अरसा,स्वआला, मीठू भात  बचाणा खूण
आन्दोलन ढोल दम्मो  ,निसाणं और तुर्री थेय बचाणा खूण
आन्दोलन घार- गौं और गुठ्यारों थेय बचाणा खूण
आन्दोलन  हैल- दंदलू  दाथि और निसुड़ थेय बचाणा खूण
गीत बाजूबंद,थडिया ,चोफ़ुला और मांगलों  थेय बचाणा खूण
बांज ,बुरांस ,हिसोला -बेडू ,तिम्ला और काफल  थेय बचाणा खूण
पर तब भोत मुंडारु व्हे जाण छुच्चो
किल्लेय ?
जरा स्वाचा?
कैमा जाण और कई दगड़ लड़ण वा  लडई ?
कन क्य्ये    जितण, हेर्री की अपणाप से त्भ?
क्या बोलण की  नि के साकू   इंसाफ हमुल अप्ड़ी ही  जन्म भूमि  दगडी  ?
नि सँभाल साका हम अप्ड़ी ही संस्कृति थेय ?
तब नि लग्गणा  तुम से वू जन गीत भी आन्दोलन का
जू लगायी और कन कन के पाला पोसा छायी
उंल  जो आज बन गयीं देबता आगास मा
भेंट गईं हम्थेय एक विरासत
जू नि पचणी चा  आज   हमसे ?
इल्लेइ  ता मी  बुनू छोवं
आवा हम दगडी चितेई जौला
गर  चितेई जौला बगत से
ता सयेद बणा  द्युन्ला
अपड़ा सुपिनो  कु "उत्तराखंड "
ता सयेद बणा  द्युन्ला
अपड़ा सुपिनो  कु "उत्तराखंड "




रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सिंघापुर प्रवास से )

Thursday, October 7, 2010

"कब तक मौन रहोगे ? "



जटिल प्रश्न
शंका कठोर
संग  ह्रद्य का अंतरद्वंद
आखिर तुम कब तक मौन रहोगे ?

                                                             उलझन विचित्र
                                                            घनघोर अँधेरा
                                                            संग मन चंचल यौवन
                                                           आखिर तुम कब तक मौन रहोगे ?

अंतस की पीड़ा
विस्मय का बोध
खोल पाश  मोह-माया के
आखिर तुम  कब तक मौन रहोगे ?

                                                          अनंत अथाह संघर्ष
                                                          कर जिजिवेच्छा
                                                          तोड़ भ्रम के पैमाने मनं
                                                          आखिर तुम कब तक मौन रहोगे ?

करुण क्रंदन
जिह्वा का कम्पन्न
अब छोड़ ह्रद्य का भी स्पंदन
आखिर तुम कब तक मौन रहोगे ?

                                                                 उठ प्रचंड
                                                                हो सिंह गर्जना
                                                                कर प्रतिकार का शंख -नाद
                                                              आखिर तुम कब तक मौन रहोगे ?
संघर्ष  अनवरत
हो विजय अटल
चल न्याय का  उठा खडग
आखिर तुम कब तक मौन रहोगे ?
 




Sunday, October 3, 2010

" पुकारते गीत "



मेरे  गीत और मेरी गजल, तुम्हे आवाज  लगाने आयेंगे  
शायद  तुम ना पहचान पाओ,मेरे अतीत को भी
वो  कल  तुम्हे बीते लम्हों की ,याद दिलाने आएंगे
मेरे  गीत और मेरी गजल, तुम्हे आवाज  लगाने आयेंगे


जिन रास्तौं  से भटकी हुए हो तुम अभी ,प्यार के ऐ - बेवफा
मोहब्बतकशों के पिछले निशाँ,तुम्हे मंजिल दिखाने आयेंगे
मेरे  गीत और मेरी गजल, तुम्हे  आवाज लगाने आयेंगे  

स्याह रात के सन्नाटो में अक्सर,जब मैं खो जाता हो तन्हाई में
ऐसे में  सुखद स्वप्न मेरे ,बेशक तुम्हारी नींद उड़ाने आयेंगे
मेरे  गीत और मेरी गजल, तुम्हे आवाज  लगाने आयेंगे

मेरे दिल का पता भी ,तुम बेशक  भुला दोगे कल तलक
ऐसे में  जज्बाती ख़त मेरे ,तुम्हे मेरा पता बताने आयेंगे
मेरे  गीत और मेरी गजल, तुम्हे आवाज लगाने आयेंगे

मेरी यादौं के जनाजे पे ,तू  बेशक  ना आये ऐ - बेवफा
तेरी बेवफाई की अर्थी को ,मेरे ख्वाब हर- हाल  कन्धा देने आयेंगे
मेरे  गीत और मेरी गजल, तुम्हे आवाज  लगाने आयेंगे
मेरे  गीत और मेरी गजल, तुम्हे आवाज  लगाने आयेंगे
मेरे  गीत और मेरी गजल, तुम्हे आवाज  लगाने आयेंगे

Saturday, October 2, 2010

गढ़वाली कविता : ह्यूं की खैर


तेरी  जिकुड़ी की सदनी त्वे मा राई,
मेरी जिकुड़ी की सदनी मै  मा ,
बाकी रैं इंन्हे फुन्डे मूक लुकाणा  मा,
और सरकार भी राहि फिर  सदनी  सर्कसी मज्जा ठट्टऔं मा,

" गीत" तू किल्लेय छे खोल्युं सी बगछट मा !
भण्डया नि सोच य्क्ख ,
जैल भी स्वाच वू  बस  सोच्दैई गाई,
जैल भी स्वाच वू  बस  सोच्दैई गाई,

हुणा खूण क्या नि ह्वेय सकदु य्क्ख ,
लेकिन वूंल हम्थेय सदनी फुटुयूं कस्यरा ही किल्लेय   थमाई?
सैद  कैल कब्भी  य्क्ख, पैली कोशिश ही नी काई ,
सैद  कैल कब्भी  य्क्ख, पैली कोशिश ही नी काई  ,

वू रहैं सदनी कच्वरना कुरुन्गुलू सी मी थेय  ,
पर तुमुल भी  कब्भी  इन्ह बीमारि की कुई  दवा दारू किल्लेय नि काई? 
जैल भी कच्वार  ,वू बस कच्वर दै गाई,
जैल भी कच्वार  ,वू बस कच्वर दै गाई


इन्न प्वाड रवाड यूं संभल-धरौं खुणं
जैल भी खेंड़  ये  पहाड़ थेय खड्डअल्लू    सी
वू आज तलक बस खेंड़ दै गाई,
वू आज तलक बस खेंड़ दै गाई,

हिंवाली डांडी  रैं रुन्णी  सदनी कुहलौं मा म्यारा मुल्क की
और वूं निर्भगीयूंल  ब्वाळ,
अजी बल  घाम आण से ह्यूं पिघ्लेये गाई !
अजी बल  घाम से ह्यूं पिघ्लेये गाई !
अजी बल घाम आण से ह्यूं पिघ्लेये गाई !

Monday, September 27, 2010

गढ़वाली कविता : जग्वाल





जग्वाल
धुरपाली कु द्वार सी
बस्गल्या  नयार सी
देखणी छीं बाटू आँखी
कन्नी  उलैरया  जग्वाल सी
छौं डबराणू चकोर सी
छौं बौल्याणु सर्ग सी
त्वे देखि मनं तपणु च घाम छूछा
हिवालां का धामं सी
काजोल पाणी मा माछी सी
खुदेड चोली जण फफराणि सी
जिकुड़ी खुदैन्द लाटा
रैन्द घुर घुर घुगुती घुराणी सी

देखणी छीन बाटू  आँखी
कन्नी उलैरया   जग्वाल सी
कन्नी उलैरया   जग्वाल सी
कन्नी उलैरया   जग्वाल सी
                                                             
रचनाकार  :गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ),दिनांक २७-०९-२०१० 

Saturday, September 25, 2010

"मैं "


                                     


ख्वाब  हूँ मैं ,
ख्यालात हूँ मैं
दिल मैं दफन हूँ सदियौं से जो 
वो छलकता जज्बात हूँ मैं 
दूर हूँ मैं , फिर भी दिलौं के आस पास हूँ 
बिता हुआ लम्हा हूँ कल का  ,
हूँ सुनहरे  भविष्य की आस  मैं 
जानते हैं दुनिया मैं सभी मुझे ,
फिर भी छुपा हुआ एक राज हूँ मैं 
अक्सर  रहता हूँ जश्न - एय- महफ़िल  में ,
पर हकीकत  एक मुर्दा कब्रगाह हूँ मैं 
है अन्धेरौं  मैं आशियाना मेरा ,और लोग कहते हैं की आफताब हूँ मैं 
ख्वाब हूँ मैं ,  ख्यालात हूँ मैं ....................
                       

द्वारा स्वरचित :गीतेश सिंह नेगी   

Wednesday, September 15, 2010

गढ़वाली कविता : त्वे आण प्वाडलू

          "त्वे आण प्वाडलू   "

                         

रंगली बसंत का  उडी  जाण से पैल्ली
फ्योंली  और  बुरांश  का  मुरझाण से पैल्ली
रुमझुम  बरखा  का रुम्झुमाण  से पैल्ली
त्वे  आण प्वाडलू

बस्गल्या गद्नियुं का रौलियाँण से पैल्ली
डालीयूँ मा चखुलियुं का च्खुलियाँण से पैल्ली
फूलों फर भौंरा - पोतल्यूं का मंडराण से पैल्ली
त्वे  आण प्वाडलू

उलैरया  होली का हुल्करा
ख्वै जाण से पैल्ली
दमकदा  भेलौं का बग्वाल  मा
बुझ जाण  से पैल्ली
हिन्सोला  -किन्गोडा अर काफल
पक जाण से पैल्ली
त्वे  आण प्वाडलू

छुंयाल  धारा- पन्देरौं का बिस्गान से पैल्ली
गीतांग ग्वेर्रऊ का गीत छलै जाण से पैल्ली
बांझी पुंगडीयों का ढीस
खुदेड घुगती का घुरांण से पैल्ली
त्वे  आण प्वाडलू


मालू , गुईराल , पयां-कुलैं
बाटू  सार लग्यां
अर धै लगाणा त्वे
खुदेड आग  मा तेरी ,
उन्का फुक्के जाण से पैल्ली
त्वे  आण प्वाडलू

आज चली जा मीसै कत्गा भी दूर
म्यार   लाटा !
पर कभी मीसै मुख ना लुकै
पर जब भी त्वे मेरी  खुद लगली ,
त्वे मेरी सौं
मुंड उठैकी ,
छाती  ठोकिक
अर हत्थ जोडिक
त्वे  आण प्वाडलू
त्वे  आण प्वाडलू
त्वे  आण प्वाडलू

    रचनाकार : "गीतेश सिंह नेगी "  (सिंघापुर प्रवास से ,दिनाक १५-०९-१०) 

Saturday, September 11, 2010

गढ़वाली कविता : आश कु पंछी

                            


आश कु पंछी
मेरु  आश कु  पंछी रीटणु  रैन्द
झणी किल्लेय बैचैन व्हेकि
 किल्लेय डब-डबाणी रैन्दी 
आँखी दिन -रात  
किल्लेय  लग्गीं रैन्द टक्क
बाटू पल्या स्यार   ?
उक्ताणु रैन्द म्यार तिसल्या प्राण
झणी कैक्का बान
सैद मी आज भी कन्नू छौं आश
कि वू कब्भी  त़ा आला  बोडीऽ अपडा घार
वू जू  मेरा छी ,अर  सिर्फ  जौंकी  छों मी
बस  यीं आश मा ही अब
मी कटणू  छों अपड़ा  दिन
कि मतलब  से  ही सैही
पर  वू आला जरूर  कब्बी त
क्या पता से व्हेय जा एकदिन
वूं थे भी मेरी पीड़ा कू ऐहसास
अर वू सैद बौडिक आला
म्यारा ध्वार
अपडा घार
अपडा पहाड़ 


रचनाकार  :गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ), दिनाक ११-०९-2010