साँझ ढले सूरज को तकता हूँ
छोटा है सफ़र फिर क्यूँ थकता हूँ ?
पास है मंजिल मेरे
फिर क्यूँ खुद से कोसो दूर लगता हूँ ?
हूँ इन्सान तो मैं भी
इंसानियत भी शायद रखता हूँ
अंधेरों मे भी रहकर अक्सर मैं
उज्जालो की खबर रखता हूँ
ये शहरों की मस्ती
या कहो जश्न- एय - बर्बादी
संग हाथों में है जाम तो क्या
मैं तो दुनिया की खबर रखता हूँ
जानता हूँ इस दुनिया को मैं
और शायद ये दुनिया भी मुझे
बेशक कभी -कभी खुद से ही मैं
अपना ही पता पूछता रहता हूँ ?
वो फ्योंली और बुरांस के फूल
वो शिखर हिम श्रिंगार लिये
मानों करते हो करुण क्रंदन
विरह वेदना का सा ज्वार लिये
वो गिरते फूल चीड से
क्यूँ लगते हैं जलते अंगार से
हैं शबाब- ओ-हुस्न पर नागफनी भी
पर चुभते हैं कांटे सुई-तलवार से
वो बहती अलकनंदा की धारा
हैं पर्वत सजे से धवल नार
करते बरसों से जाने किसका ये इंतेज़ार
दिशायें भी मानों हौं करती चीख -चीत्कार
वो पहाड़ पर पेडों का झूमना
फूलों का खिलना
उड़ना संग बादलों के फिर
तितली पकड़ना और झूलों का झूलना
वो चीड की सायं -सायं
गिरते झरनों की झर -झर
वो पक्षियों का नित होता कलरव
संग बांसुरी के वो गूंजते शैल स्वर
करना चाहता हूँ आलिंगन मैं भी इनका
पर शायद बदल गया हूँ अब
इन्सान से पत्थर हो चुका हूँ शायद
और शायद स्वार्थी और भाव-शब्द हीन भी
रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी,कुरुक्षेत्र विश्वविधालय परिसर से ,दिनांक २७-०७-२००७
(*सर्वाधिकार सुरक्षित )
जानता हूँ इस दुनिया को मैं
ReplyDeleteऔर शायद ये दुनिया भी मुझे
बेशक कभी -कभी खुद से ही मैं
अपना पता पूछता रहता हूँ ?
बहुत सुंदर .बधाई
सुन्दर भावों को बखूबी शब्द जिस खूबसूरती से तराशा है। काबिले तारीफ है।
ReplyDeleteबहुत खूबसूरत रचना है ..लेकिन यह रचना लगता है दो भागों में बंटी है ...जहाँ तक खबर रखने की बात है वो एक अलग अंदाज़ है ..और उसके बाद प्राकृतिक चित्रण अलग ...
ReplyDeleteकरना चाहता हूँ आलिंगन मैं भी इनका
ReplyDeleteपर शायद बदल गया हूँ अब......
सुन्दर गीतेश दा
Bahut khub
ReplyDeleteवो चीड की सायं -सायं
गिरते झरनों की झर -झर
वो पक्षियों का नित होता कलरव
संग बांसुरी के वो गूंजते शैल स्वर