हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Friday, December 31, 2010

गढ़वाली कविता (व्यंग ) : २०१० का आंसू

छेन्द स्वयंबर  का निर्भगी  राखी
बिचरी  येखुली रह ग्याई
तमशु देखणा की "लाइव " चुप-चाप
हम्थेय भी अब सैद आदत व्हेय ग्याई
भाग तडतूडू  छाई कन्नू बल कसाब कु ,
वू भी अब अतिथि देव व्हेय  ग्याई
लोकतंत्र की हुन्णी चा रोज यख हत्या ,
इन्साफ अध रस्ता म़ा बल अध्-मोरू व्हेय  ग्याई
कॉमन- वेल्थ का छीं आदर्श  भ्रष्ट ,
सरकार बल  राजा की गुलाम  व्हेय  ग्याई
मन छाई घंगतोल म़ा की क्या जी करूँ " गीत ",
तबरी अचाणचक से बल  शीला ज्वाँन व्हेय ग्याई
घोटालूँ कु २०१० सुरुक सुरुक मुख छुपे की ,
अंतिम सांस लींण  ही वलु  छाई,
की तबरी विक्की बाबू की हवा लीक व्हेय  ग्याई ,
" गीत "आँखों  म़ा देखि की अस्धरा लोगों का ,
अब कुछ और ना  सोची  भुल्ला ?
२०१० कु  निर्भगी प्याज  जांद जांद युन्थेय भी आखिर रूवे ग्याई
२०१० कु  निर्भगी प्याज  जांद जांद युन्थेय भी आखिर रूवे ग्याई

रचनाकार : गीतेश सिंह  नेगी  ( सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित )

Sunday, December 19, 2010

गढ़वाली कविता : यकुलांस

 यकुलांस

दिल्ली मा
अज्काला कि सब्बि सुबिधाओं व्ला
एक सांस बुझण्या फ्लैट मा
एतवारा का  दिन
जक्ख  ब्वे सुबेर भट्टेय मोबाइल फ़र चिपकीं छाई 
बुबा टीवी मा वर्ल्ड कप खेल्ण मा लग्युं छाई
और ६ बरसा कु एक छोट्टू नौनु वेडियो गेम मा मस्त हुयुं छाई
वक्ख ६२ बरसा की  एक बुडडि
छत्ता का एक कुण मा यखुली बैठीं 
टक्क लगाकि असमान देख़न्णी 
मनं ही मनं मा 
झन्णी क्या सोच्णी छाई  ?
और झन्णी क्या खोज्णी छाई ? 


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ,दिनांक १७.१२.१० , सर्वाधिकार सुरक्षित )

Thursday, December 16, 2010

गढ़वाली कविता : गलादार


गलादार

खाणा भी छीं,
पीणा भी छीं ,
कुरचणा भी छीं,
अटयरणा भी छीं,
हल्याणा भी छीं,
फुकणा भी छीं,
लठीयाणा भी छीं,
चटेलणा भी छीं ,
कटाणा भी छीं ,
लुटाणा भी छीं ,
जू ब्याली तक लगान्दा छाई ग्वाई, पंचेती का चुनोव मा ,
पहाड़ मा आज राजनीति की पतंग, बथौं मा व्ही उड़ाणा भी छीं , 

       जौंल लगाणु छाई मलहम पिसूडों फर,व्ही उन्थेय आज डमाणा भी छीं, 
ख्वाला आँखा जरा देखा धौं, कु छीं अपडा इन्ना
जू नीलाम कैकी पहाड़ थेय बिकाणा भी छीं
जू नीलाम कैकी पहाड़ थेय बिकाणा भी छीं
जू नीलाम कैकी पहाड़ थेय बिकाणा भी छीं


रचनाकार  :गीतेश सिंह नेगी ( सिंगापूर प्रवास से,सर्वाधिकार -सुरक्षित  )

Wednesday, December 15, 2010

गढ़वाली कविता : लल्लू पधान

उत्तराखंड कक्षा १० का एक प्रश्न-पत्र मा
मची ग्या बल घनघोर घमसाण
प्रश्न छाई आसान पर बच्चा छाई नादान
जवाब देखि की मास्टर जी खुण व्हे ग्या मुंडरु
हे ब्वे ,हे बुबा अब मी क्या जी करू ?

ये  गौं खुण उन् त क्या छाई  सड़क और क्या रेल ?
विगास का इतिहाश म़ा यु गौं हुन्णु छाई साखियुं भटेय फेल
खबर ,नेता और मेहमान सबही  रैन्दा छाई सदनी गौं से दूर
सैद इंह वजह से यु गौं छाई पहाड़ मा कुछ कम मशहूर
पर आज गौं कु नाम रोशन कै ग्या प्रधान जी कु नौनु लल्लू
सरया गाड फेल व्हे ग्या ,पास व्हाई सिर्फ भुल्ला लल्लू - २

उन् त प्रश्न पत्र मा, प्रश्न छाई अनेक
पर लल्लू थे पास करा ग्या उत्तर वेकु सिर्फ एक
प्रश्न छाई :अपना परिचय दीजिये ?
और लल्लू कु जवाब  छाई
लल्लू राम ,पुत्र श्री उछेदी राम (ग्राम प्रधान )
ग्राम - लापता ,पोस्ट -खाली
जिल्ला- बदर ,वाया -पैदल मार्ग
राज्य - उतंणदंड  पिन -000000

पर ये  सवाल मा फस ग्याई  बडू पेच, कन्नू तब एक
सरया स्कूल कु जवाब भी त आखिर छाई केवल एक
सामूहिक नक़ल का मामला मा ,व्हे ग्यीं सब फेल
पास व्हाई  बस लल्लू पधान,पर बिगड़ी ग्या वेकु भी खेल

मच
ग्या फिर हल्ला ,व्हे ग्या फिर शुरु जांच
मास्टर जी खुण व्हाई मुंडरु ,
लल्लू फर भी आ ग्या बल आंच
जांच मा खुल ग्याई बडू भेद
मूल्यांकन प्रणाली मा हुन्या छाई कुछ छेद
और लल्लू  का जवाब मा स्कूल थेय छाई खेद
एक सवाल छाई :अपने प्रदेश  क़ि राजधानी का नाम लिख्यें ?
लल्लू कु जवाब छाई :  " गैरसैंण "
उन् त सवाल और भी छाई और उंका जवाब भी छाई रोचक
पर लल्लू का दीर्घ -उतरीय प्रश्न जवाब
जांच का हिसाब से छाई बल आपतिजनक और सरकार अवरोधक
जांच हुंणा का बाद लल्लू भी व्हेय ग्या घोषित फेल
और सामूहिक नक़ल का आरोप मा भेजे ग्या वू ६ महीना क़ि जेल

गौं मा छाई मच्युं भारी शोक ,
पर लल्लू कु ददा थेय नि छाई कुई अफ़सोस
और वू बुना छाई
जुगराज रै म्यारा नाती लल्लू ,तुई छई  अब मेरी आश
नक़ल का आरोप मा भी तिल रक्खी पहाड़ क़ि लाज - २

काश पहाड़ कु हर नौनु ,लल्लू  बण जांदू
और परीक्षा मा ये सवाल कु जवाब
सिर्फ और सिर्फ   " गैरसैंण " लेखीक आन्दु
क्या पता से  यु दिन आज  " गैरसैंण " क्रांति कु इतिहास बण जांदू  ?
क्या पता से  यु दिन आज  " गैरसैंण " क्रांति कु इतिहास बण जांदू  ?
क्या पता से  यु दिन आज  " गैरसैंण " क्रांति कु इतिहास बण जांदू  ?
रचनाकार :        गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ,दिनांक १५ -१२-१०, सर्वाधिकार सुरक्षित )
                  

Saturday, December 11, 2010

गढ़वाली कविता : सैन्डविच

कक्ख छाई और अब कक्ख चली ग्यों मी
फर्क बस इत्गा च की अब अणमिल्लू सी व्हेय ग्यों मी
बगत आई जब जब  बोटणा कु अंग्वाल त्वे  पर
फुन्डेय-फुन्डेय उत्गा और व्हेय ग्यों मी
कक्ख छाई और अब कक्ख चली ग्यों मी ?

कबही बैठुदू  छाई रोल्युं की ढुंगयुं म़ा
तप्दु  छाई तडतुडू घाम,त्यारू गुयेर बन्णी की 
बज़ांदु  छाई बांसोल ,और लगान्दु  छाई गीत
सर -सर आंदी छाई हव्वा डांडीयूँ  की तब वक्ख
बगत बगत मेरी भी भुक्की पिणकु  
अब बैठ्युं छोवं यक्ख , समोदर का तीर यखुली
जक्ख आण वालू पान्णी ,चल जान्द हत्थ लगाण से पहली
खुटोवं थेय डमाकि  ,जन्न भटेय बोल्णु  ह्वालू 
अप्डू बाटू किल्लेय बिरिडी ग्यो तुम
 " गीत " क्या छाई और बेट्टा क्या व्हेय ग्यो तुम ?

रेन्दू छाई  मी भी स्वर्ग म़ा कबही
हिवांली डांडी कांठीयूँ का बीच
बांज ,बुरांस ,फ्योंली ,सकनी,कुलौं
सब दगडिया छाई म्यारा
लगाणु रैंदु छाई फाल डालीयूँ -पुन्गडियूँ म़ा तब
अट्टगुदू   छाई  गुन्णी बान्दर सी बन्णीक
पीन्दु छाई तिस्सलू प्राण  म्यारु भी पांणी 
हथ्गुलियुंल धारा-पंधेरौं कु
अब रेन्दू  अज्ज्काला की  बहुमंजिली बिल्डिंग म़ा
द्वार  भिचोलिक,लिणु छोवं स्वांश भी अब वातानुकूलित व्हेकि
और विकलांग सी भी व्हेय ग्युं जरा जरा मी अब
किल्लेय कि  बगत नि मिलदु अब ,भुन्या खुटू धैरिक हिटणा  कु
क्या  छाई और अब क्या  व्हेय  ग्यों मी
फर्क बस इत्गा च की अब अणमिल्लू सी व्हेय ग्यों मी

अ  हाह क्या दिन छाई वू  भी
जब खान्दू छाई  थिचोन्णी अल्लू मूला की मी
सौन्लौं कु साग पिज्वडया , गुन्द्कौं म़ा घीऊ -नौणी का
चुना की रौट्टी खान्दू छाई, रेन्दू  छाई कित्लू बैठ्युं सदनी चुलखांदी म़ा
लपलपान्दू  छाई जब जीभ सरया दिन डांडीयूँ म़ा
बेडू,तिम्ला ,हिन्सोला-किन्गोड़ा और भमोरौं दगडी
फिर चढ़चुडू  घाम म़ा कन्न चुयेंदी छाई गिच्ची
मर्चोण्या कच्बोली का समणी
अब खान्दू मी बर्गर ,डोसा ,पिज्जा और सैन्डविच बस
पिचक ग्या ज़िन्दगी भी अब सैद सैन्डविच सी बन्णी की
और मी देख्णु छोवं  चुपचाप खडू तमशगेर  सी बन्णी की
समोदर का ये पार भटेय सिर्फ देख्णु  और सोच्णु
कन्नू  व्हालू  म्यारु पहाड़ अब
बदल ग्ये होलू  सैद वू भी मेरी ही तरह से ?
बदल ग्ये होलू  सैद वू  भी मेरी ही तरह से ?

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित

Friday, December 10, 2010

गढ़वाली कविता : कै थेय क्या मिल ?

जू भी मिल उन्थेय ,सब त्वे से ही त मिल ,
वा बात अलग चा ,
की त्वे थेय ख्वे कै ही  त मिल ,
जब भी हैंस्दी, वू खित खित ही हैंस्दी अब ,
ख़ुशी या उन्थेय ,त्वे थेय रूव्ये-रूव्येक ही त मिल ,

जू भी मिल उखुंण व्हि भोत छाई ,
वा बात अलग चा ,
की उंल फिर भी त्वे से कम ही पाई ,
जू भी मिल उन्थेय ,सब त्वे से ही त मिल ,
वा बात अलग चा , की त्वे थेय ख्वे कै  ही त मिल ,

वू देखणा छीन ,सुपन्या बड़ा बड़ा बल अज्ज्काल ,
वा बात अलग चा ,
दिन वूं थेय यु , त्वे से मुख -फेरीक ही त मिल ,
जू भी मिल उन्थेय , सब त्वे से ही त मिल ,
वा बात अलग चा , की त्वे  थेय ख्वे कै ही त मिल ,

उक्काल काटी कै, दौड़णा छीन सरपट वू  आज ,
क्या व्हाई त़ा , 
दिन यु उन्थेय, तेरी छाती म़ा खुट्टू धैरिक ही त मिल ,
जू भी मिल उन्थेय , सब त्वे से ही त मिल ,
वा बात अलग चा , की त्वे थेय ख्वे कै ही त मिल ,


बस ग्यीं आज प्रदेशु म़ा जाकी ,कैरि यलीं  बल महल खड़ा ,
क्या व्हाई त़ा ,
बूणं भी उन्थेय यु ,अपड़ा घार- गौं थेय उजाडिक  ही त मिल ,
जू भी मिल उन्थेय , सब त्वे से ही  मिल ,
वा बात अलग चा , की त्वे थेय ख्वे कै ही   त मिल ,


" गीत " तू बोडिक अई घार चम्म
भुल्ला,कैकी सिखा सैऱी नि करी
किल्लेय  की ख़ुशी 
युन्थेय ,सदनी धार पोर जाके ही त मिल   !
किल्लेय  की ख़ुशी  युन्थेय ,सदनी धार पोर जाके ही त मिल   !
 किल्लेय  की ख़ुशी  युन्थेय ,सदनी धार पोर जाके ही त मिल   !
 
रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी, सिंगापूर प्रवास से, सर्वाधिकार सुरक्षित

Monday, December 6, 2010

गढ़वाली कविता : कु कु छाई ?




एक तू छाई
एक वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?

ना द्याखु उंल हम जनेय
ना पछियांणं हमुल उन्थेय
झन्णी कु छाई ?
झन्णी  कन्नु छाई ?
एक तू छाई
एक  वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?

रुंणा वू भी छाई लाचारी मा
कणाट हम भी कन्ना छाई बेगारी मा
ना उंल फुन्जा अश्धरा हमरा कब्ही
और ना हमुल बूथैयें वू कब्ही

लमडणा वू भी छाई धारु धारु  मा
अल्झंणा हम भी छाई बुझयौं- बुझयौं मा
ना उंल थाम  हत्थ हमरू
और ना हमुल ही  उन्थेय अडाय 

तिडक्यां वू भी छाई
टूटयां हम भी छाई
ना उंल  बोट्टी हम फर अंग्वाल
ना हमुल वू थमथ्याई

चुप-चाप वू भी छाई
बाच हम फर भी तब कक्ख छाई
ना दुःख उंल बताई अप्डू हम्थेय  
ना खैरी अप्डी हमुल कब्ही उम लगाई  

फुक्यां वू भी छाई
हल्याँ हम भी कम नी छाई
ना आग जिकुड़ी की कब्ही उंल बुझाई
ना हमुल बुझाई
एक तू छाई
एक  वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?




रचनाकार :        गीतेश सिंह नेगी,सिंगापूर प्रवास से,४-११-२०१०,सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, December 5, 2010

गढ़वाली कविता : कक्ख जाण , पहाड़ भोत याद आन्द ?



कक्ख छौ जाणा ?
और कक्ख तुमुल जाण ?
स्वाचा जरा कैरा ध्याणं
कक्ख  छौ तुम ?
और भोल कक्ख तुमुल जाण ?

बिरिडियूँ च समाज
छलेणु चा पहाड़
ब्हेर भट़ेय भी
और भितिर भट़ेय भी
सिर्फ और सिर्फ कचोरेंणु च पहाड़

रंगमत हुयाँ छी सब , बुंना छिन्न
"आल  इज  वेल  "
"आल  इज  वेल  "
पर  बतावा इनं बोलीक
आखिर कब तक हमुल अप्थेय बुथ्याँण ?

जल भी छुटटू ,
जंगल भी छुटटू,
भोल प्रभात कुडी -पुंगडि  भी जाण
फिर बतावा कक्ख हमुल उत्तराखंड ?
और कक्ख तुमुल  " म्यारु पहाड़  " बणाण ?

क्या छाई  मकसद ?
और क्या तुमुल पाई ?
किल्लेय छो छल्यां सी तुम
देखणा खोल्येकी  चुपचाप
तमशू म्यारु  ?

सुनसान व्हेय ग्यीं पहाड़
ख़ाली छीन गौं  का गौं 
बता द्यावा साफ़ साफ़
अब क्या च तुम्हरा जी मा?
और क्या च अब तुम्हरी गओवं ?

रह सक्दो अगर मी बिगैर तुम
छोडिकी यु रौन्तेलु मुल्क
ता कुई बात नि चा
पर नि झुराणी फिर जिकुड़ी म्यारा बाना
और नि करणी छुयीं बत्ता मेरी कै मा

अपड़ा भुल्याँ बिसरयाँ ,बाला दिनों की
ग्वाई  लग्याँ चौक डंडाली की
गाड गदिनियों  की
कुडी पूंगडियों  की
धारा पन्देरौं की 

राखी सक्दो अगर याद अप्नाप थेय
बिसरी की मीथेय ?
ता कुई बात नि चा
पर भोल ना बोल्याँ  की सच्ची  यार  "गीत "
कक्ख जाण ,   पहाड़ भोत याद आन्द
कक्ख जाण ,   पहाड़ भोत याद आन्द
कक्ख जाण ,   पहाड़ भोत याद आन्द

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,४-११-१०,सर्वाधिकार सुरक्षित