हिमालय की गोद से
Sunday, December 5, 2010
गढ़वाली कविता : कक्ख जाण , पहाड़ भोत याद आन्द ?
कक्ख छौ जाणा ?
और कक्ख तुमुल जाण ?
स्वाचा जरा कैरा ध्याणं
कक्ख छौ तुम ?
और भोल कक्ख तुमुल जाण ?
बिरिडियूँ च समाज
छलेणु चा पहाड़
ब्हेर भट़ेय भी
और भितिर भट़ेय भी
सिर्फ और सिर्फ कचोरेंणु च पहाड़
रंगमत हुयाँ छी सब , बुंना छिन्न
"आल इज वेल "
"आल इज वेल "
पर बतावा इनं बोलीक
आखिर कब तक हमुल अप्थेय बुथ्याँण ?
जल भी छुटटू ,
जंगल भी छुटटू,
भोल प्रभात कुडी -पुंगडि भी जाण
फिर बतावा कक्ख हमुल उत्तराखंड ?
और कक्ख तुमुल " म्यारु पहाड़ " बणाण ?
क्या छाई मकसद ?
और क्या तुमुल पाई ?
किल्लेय छो छल्यां सी तुम
देखणा खोल्येकी चुपचाप
तमशू म्यारु ?
सुनसान व्हेय ग्यीं पहाड़
ख़ाली छीन गौं का गौं
बता द्यावा साफ़ साफ़
अब क्या च तुम्हरा जी मा?
और क्या च अब तुम्हरी गओवं ?
रह सक्दो अगर मी बिगैर तुम
छोडिकी यु रौन्तेलु मुल्क
ता कुई बात नि चा
पर नि झुराणी फिर जिकुड़ी म्यारा बाना
और नि करणी छुयीं बत्ता मेरी कै मा
अपड़ा भुल्याँ बिसरयाँ ,बाला दिनों की
ग्वाई लग्याँ चौक डंडाली की
गाड गदिनियों की
कुडी पूंगडियों की
धारा पन्देरौं की
राखी सक्दो अगर याद अप्नाप थेय
बिसरी की मीथेय ?
ता कुई बात नि चा
पर भोल ना बोल्याँ की सच्ची यार "गीत "
कक्ख जाण , पहाड़ भोत याद आन्द
कक्ख जाण , पहाड़ भोत याद आन्द
कक्ख जाण , पहाड़ भोत याद आन्द
रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,४-११-१०,सर्वाधिकार सुरक्षित
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