हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Sunday, December 30, 2012

" महाभारत "

  
                   " महाभारत "

   हिमाद्री की इस  धरा पर ,घायल  है कब से गंगा
   सरस्वती विलुप्त है सदियौं से  , निशब्द अभिशप्त है  यमुना
   पदमा  है  शोकाकुल ,है   मुरझाई सी स्वर्णरेखा
   आहत है सरयू सारी , नग्न  आँखौं से मैने खुद रोते कोसी को देखा
   है क्रोध  भरा  कृष्णा में  आज ,गुमसुम है  कावेरी भी
   क्यूँ तपन में  है  तापी  ,  थाम आँचल ब्रहमपुत्र का
   फफक फफक  कर  रोती फिर रही क्यूँ तीस्ता 
    मूर्छित है नर्मदा ,है आहत चम्बल 
    खंडित हुई है मानवता ,दंभ  फिर  आज पौरुष का टूटा है
    चंद  जरासंधौं ने मिलकर ,आज फिर एक द्रोपदी को लूटा  है
   मौन है  आज फिर वही ,धृत राष्ट्री सत्ता
   दुराचारी रच रहे फिर खेल महाभारत का
   खड़ा है भारत फिर उसी कुरुक्षेत्र में लगता है
  जनता मांग रही है हक इन्साफ बन पांडव
  हाथ कौरवों के फिर वही अंधी सत्ता है
 है अंधे कानून फिर ,वही अन्यायी वनवास खांडव का
 न्याय व्यवस्था  से जूझता  अकेला निशस्त्र 
क्यूँ वही दृश्य   अभिमन्यु -चक्रव्यूह सा है ...........



स्रोत :  हिमालय की गोद से  ,गीतेश सिंह नेगी (सर्वाधिकार सुरक्षित )

Saturday, December 29, 2012

"आखिर कब तक " ?

 
      "आखिर कब तक " ?

 
 अर्जुन का गांडीव आज खंडित है
  फिर  स्तब्ध है  महाबली का बल
  शून्य उद्घोष  है आज पांचजन्य फिर से
   चक्र रहित है फिर सुदर्शन हस्त
   पुरुषोतम  को है शायद वनवास  अभी तक भारत में
   और  क्यूँ  धृत-राष्ट्र
    मौन  है सदियौं  से
    अट्टहास कर रहा दुर्योधन देखो फिर
    असहाय खड़ी  है  एक  द्रोपदी फिर से आज
    खंडित हुआ गौरव  भारत का
   हाय  लुट गई मानवता की लाज
  अश्रु लिये विलाप रही  द्रोपदी फिर
  पूछ रही फिर वही सवाल
  हे पुरुष  -कब तक जारी रहेगी यह महाभारत तेरी
  और कब तक बनती  रहूंगी  शिकार सिर्फ मैं ही
  चीरहरण का
 और झेलती रहूँगी दंश
 तेरे तथाकथित  पौरुष अभिमान का
 बार बार
 हर युग में
 यूँ ही
इसी  तरह
आखिर कब तक ?

स्रोत : हिमालय की गोद  से ,गीतेश सिंह नेगी ,

Sunday, December 16, 2012

विश्व प्रसिद्ध कवियौं की कवितायें ( गढ़वाली अनुवाद ) : ६ सुमित्रानंदन पन्त की कविता मोह

 

   सुमित्रानंदन पन्त की कविता मोह   (गढ़वाली अनुवाद )  

                 प्रकृति के सुकुमार कवि को समर्पित ,गढ़वाली अनुदित उनकी एक रचना

 अनुवादक : गीतेश सिंह नेगी 

 

 

विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि  कविताएँ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ;

                 

मोह

                         

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू भ्रंगों से कैसे बिधवा दूँ निज मृग सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ, सजनि, श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा-रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!

                          

(गढ़वाली अनुवाद )

                                                    

छोड़  डालीयूं  कु छैल  मिट्ठू
तोड़ कुदरतै  माया बि
                     छोरी ! कनक्वे अलझ्या दियूं  लटूल्यूं  मा तेरी आँखी ?
                     अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

छोडिक बुग्दी गद्नौं थेय ,
    दगड धडैं का रंगौं थेय      
                   कनक्वे बिधै द्यूं  भौंहौं मा तेरी हे  प्यारी ! 
         चंचल  घ्वीड सी ईं जिकुड़ी थेय
       अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

  चखुलियुं का मीठा मीठा बोल
भौंरौं कु भिमणाट  अनमोल
 बोल कनक्वे सुणु ,
मीठी बाच तेरी ही बस हे प्यारी
            अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !
     खिल्दा सुबेर  जब दल कमल  
जौंन भटी उतरदू जल
ना ,अमृत उठडीयूँ का नशा मा ही सै
पर कनक्वे बुथिया दियुं यू जीवन 
                                अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

( गढ़वाली अनुवाद : गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित )



विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि  कविताएँ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ; ...................क्रम जारी

Thursday, December 13, 2012

घुर घुगुती घुर

                                    घुर घुगुती घुर 
 





 
हैरी डांडीयूँ  का बाना ,हिवांली कांठीयूँ  का बाना
बांजा रै गईं  जू  स्यारा  ,रौन्तेली 
वूं  पुन्गडीयूँ  का बाना
घुर घुगुती घुर ...............

 रीति  कुडीयूँ  का बाना ,जग्वल्दी चौक शहतीरौं का बाना
 खोज्णा  छीं सखियुं भटेय जू बाटा ,बिरडयाँ वूं  अप्डौं  का  बाना
  घुर घुगुती घुर ...............

रूणी   झुणक्याली दाथी  ,गीतांग  घस्यरीयूँ  का बाना 
बन्ध्या  रे  गईं  जू ज्युडौं  ,निर्भगी वूं  बिठगौं का बाना
घुर घुगुती घुर ...............

टपरान्दी अन्खियुंऽक कू सारु , बगदी अस्धरियूँऽ   बाना
तिस्वला रे  गईं जू साखियुं  ,यखुली वूं छोया -पंदेरौं का बाना
घुर घुगुती घुर ...............


पिंगली फ्योंली रुणाट ,खून बुरंशीऽ का बाना
मुख चढैकि बैठीयूँ  जू जिदेर ,फूल वे ग्वीराल बाना
घुर घुगुती घुर ...............

रीती रुढीयुं का जोग ,बुढेन्द बसंत भग्यान
इन्न लौन्प कुयेडी ,टपरान्द रे ग्या  असमान
चल गईं फिर भी छोडिक जू मैत्युं ,वूं पापी पुटगियुं का बाना
घुर घुगुती घुर
घुर घुगुती घुर
घुर घुगुती घुर .....................



स्रोत : अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह " घुर घुगुती घुर " से , सर्वाधिकार सुरक्षित (गीतेश सिंह नेगी )

Sunday, December 9, 2012

" उकाल उंदार "

                                                       " उकाल उंदार "

           





 बाबू मोशाय   द्वारा " गैरसैंण " के घाव पर "राजधानी " का मल्हम लगाने  के बजाय " विधानसभा भवन " और सत्र रूपी पैबंद लगाया जा रहा है वो भी बिना योजनारूपी अस्तर के ! 

बाबू मोशाय  पहाड़ी बहुत सीधे होते हैं पर उनके होंसले हिमालय से विशाल और फौलादी होते हैं ,महाराज किसी गलतीफहमी में मत रहना ,ये नयी पीड़ी के सरफिरे लोग कुछ भी उखाड़ सकते हैं ,कुछ भी  ....
" गैरसैंण " से कम पर ये  मानने  वाले नहीं ,सुना है कुछ लौंडे सनकी हो चले हैं ,खूब जूते घिसते हैं "गैरसैंण "  जा जाकर ,गैरसैंण को ऐसे मोह्हबत   करते हैं जैसे बस यही उनकी माशूका हो अब
" बाबा मोहन उत्तराखंडी " का नाम लेकर इधर उधर मंडराते  रहते हैं ,सुना है दिल्ली ,बम्बई ,दुबई अर ना जाने कहाँ कहाँ  इस माशूका के कई दीवाने हैं ,कुछ तो अब परलोक सिधार गये पर इश्क है की अब भी उनका नाम इस माशूका  के साथ गाये बगाहे जुड़ ही जाता है ,और इश्क देखिये ये सर फिरे लौंडे है की इन्ह मरहूम दिवानौं की कसमे ऐसे खाते हैं जैसे कोई प्रेमी हीर रांझा या फिर लैला मजनू  की कसम खाकर प्रेम पथ पर बढ रहा हो ,मानो सब कुछ भुलाकर कोई अग्निपथ  पर अग्रसर हो चला हो हाँ वो बात भी दुरुस्त ठहरी की कुछ पुराने  आशिक अब बेवफाई पर उतर आयें  हैं ,सत्ता मद में चूर होकर सुना है अब सत्ता के " खुचिल्या " मात्र बन कर रह गए हैं  ,कसमे भूल गए है और वादे हैं की अब चुनाव के समय ही याद आते हैं , पर बाबू मोशाय सच तो आपको भी पता है ,टिहरी उपचुनाव से आपने कुछ तो सीखा ही होगा ,बिचारे बेवफा अर सत्ता के " खुचिल्या " अर क्रांति के ढोंगी .दर्रे ! क्या व्हालू युन्कू ?   

त्राहि माम ! त्राहि माम !  भावना में बहकर एक प्रवासी उत्तराखंडी  के मुख से गढ़वाली निकल गई क्षमा महाराज ! पर वैसे आपको तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़ी होगी ,सुना है  आप तो अकबर इलाह्बादी के जमाने से बाबू मोशाय ठहरे

अरे
बाबू मोशाय इलाह्बाद से याद आया  ये  अपना " हिमालय पुत्र " भी तो बाड़ा ददावर  नेता था एक जमाने में ,सुना है खूब  चलती थी उसकी ,धाकड़ नेता था ,आपका कुछ लगता था क्या ?

अरे
बाबू मोशाय मैं भी  बस कुछ भी बके  जा रहा हूँ ?बाबू मोशाय  अर " हिमालय पुत्र " में भी भला कोई  रिश्ता हो सकता है ,खैर छोडिये रिश्तों में अब रखा ही क्या है ,वैसे भी आप तो अब बाबू मोशाय ठहरे  ,है की नहीं सो " हिमालय पुत्र " में भी अब क्या रखा समझो ? हाँ  याद आया बात  सिरफिरे  लोगौं की चल रही थी ।  ये सर फिरे सनकी  लोग बहुत सीधे हैं पर हैं तो पक्के आशिक ना  बाबू मोशाय माना की  दिल्ली- देहरादून की राजनितिक गलियौं के रास्ते इन्हे नहीं पता , माना की इनकी  सारी उम्र पहाड़ में उकाल उंदार काटते ही बीत गई ,यु तो
पहाड़  में कहीं किस्म के खबेश हैं मसलन माफिया , आपदा ,कुनीति ,अव्यवस्था , बेरोजगारी  पर सबसे बड़ा अकाल तो यहाँ  कुशल नेतृत्व   का  ही पड़ा  है  ना  अपने देश की तरह
रही बात  दिल्ली मुंबई की तो  दिल्ली - मुंबई तो  बस ये पलायन के भुत के बसीभूत  होकर ही दौडते हैं ,पिछले बारह सालौं में कोई ऐसा माई का लाल भी तो पैदा नहीं हुआ उत्तराखंड की राजनीति में जो सुकून से  दो बगत की मेहनत की रोटी दिला सके इन्हे पहाड़  में ,हाँ स्वयंभू  विकाश पुरुष ,रेल पुरुष ,अलाणा पुरुष फलाणा पुरुष जरुर पैदा हुए यहाँ ,काश राजनीति में भी कुछ परिवार नियोजन जैस सिस्टम होता पर क्या करे ..........
खैर आज
सिस्टम की बात ना ही करे तो अच्छा रहेगा ,मुझे तो सिस्टम शब्द सुनकर ही बदहजमी शुरु हो जाती है ,मुह से अनाप सनाप निकलने लगता है ,
ये पलायन का भूत तो ऐसा चिपटा महाराज की एक बार चिपटा तो अब छुटने का नाम ही नहीं लेता ,
पहाड़ी इस भूत से ऐसे डरते हैं जैसे आप और आपके विपक्षी "गैरसैंण " के भूत से डरते हैं  
इनकी जवानी  तो पहाड़ में उकाल उंदार काटते ही बीत गई ,खैर छोडिये बाबू मोशाय उकाल उंदार से आपको क्या ? उकाल उंदार का  आपका कैसे पता चलेगा आप तो कभी गए ही नहीं  "पहाड़  " ,आपने कहाँ देखा हमारा पहाड़ ,वैसे एक बात कहूँ बुरा मत मानना देखे तो अभी अपने पहाड़ी भी नहीं ठीक से शायद 
सुना है आप गये  थे  ' गैरसैंण "  राजकीय पुष्पक विमान से अपने  दल बल के साथ ?
 सच सच बोलना
बाबू मोशाय कैसा लगा आपको हम " गैरौं का ये सैण "  ?
आप नेता लोगौं  की ख़ामोशी भी ना कम डरावनी नहीं होती ,अच्छे अच्छे मुद्दौं  पर आप गिच्चौं  पर ऐसे म्वाले  लगा लेते हो जैसे  बल्द के लगे रहते हैं दैं करते समय,  कई बार तो  हमे ऐसे प्रतीत होता है  की साले हमारे बल्द  ही गल्या  हैं ,ऐन टेम पर घुण्ड टेक देते हैं अब   इसमे बिचारे हल्या  ब्वाडा  भी क्या करे ?
 वैसे महाराज करने क्या गये थे  वहां ? "संजीवनी बूटी  " खोजने तो नहीं गये थे ? या फिर आप भी सिर्फ आत्मिक  शांति की खोज में गए थेय पहाडों पर " जस्ट फॉर  पीस ऑफ़ माईंड इन गैरसैंण आफ्टर बैटल ऑफ़ टिहरी  "
बाबू मोशाय ये पहाड़ ऐसे ही होते हैं ,हमेशा अपनी बाहें फैलाकर आपका स्वागत करने हेतु तत्पर ,पर बाबू मोशाय अब एक काम करो फ़ौरन एक किताब लिख डालो अपने अगले गैरसैंण  प्रवास  मेरा मतलब सत्र के  दौरान अरे भाई क्या पता कल आपका भी एक आश्रम बन गए कहीं गैरसैंण  में ,आप भी एक संत और महापुरुष  के रूप में किसी पाषाण खंड पर उत्कीर्णित हो जाएँ और आने वाली राजनीतिक  पीड़ी जब जब गैरसैंण सत्र के बहाने   राजधानी का चूसना लेकर वहाँ जाये तो लोग  कृतार्थ हो जाएं    
 
वैसे सुना है देश में एक नयी क्रांति आने वाली है ,कुछ लोग कहते हैं २०२० में आयेगी कुछ कहते हैं की २०१४  के बाद आयेगी  पर हल्या ब्वाडा की समस्या तो कुछ और ही है वो तो बस यही  पूछता है  की उसके मरने से पहले आयेगी की नहीं ? क्या मालुम कब आयेगी वैसे क्रांति का क्या है कभी भी आ सकती हैं बाबू मोशाय ,छोडो वैसे भी तुमको  क्या लेना क्रांति से तुमको तो बस " सिंहासन " ....
पर बाबू मोशाय एक बात हमे समझ  नहीं आती की आप सब  देहरादून -दिल्ली वाले  " गैरसैंण " से इतना डरते क्यूँ हैं ?
कहीं उकाल उंदार से आपकी  .......
















                  स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी
( सर्वाधिकार सुरक्षित )



" ठेकादारी "

           
                                           " ठेकादारी "








          

             पहाड़ मा पहाड़ नि च ,मुल्क गंगा  पाणी जी
            गोमती का तीर  बैठीं  ,अज्काल बुड़ेंदा की स्याँणी जी
          
           कब्भी खाई  गैरसैंण  यूँल ,कब्भी  परिसीमन पचाई जी
           कब्भी डुबाई  टिहरी यून्ल  , कब्भी रस  कुम्भ चस्गाई जी
         
          कक्खी चिपकाई  संस्कृत यून्ल ,कक्खी उर्दू कुच्याई जी
          गढ़वली कुमौनी बोलण  मा युन्थेय ,हे  ब्वे  कन्न  शर्म आई जी

           कुई ब्व़नु बंगाली छौँ ,कुई ब्व़नु मी नेपाली जी 
            उत्तराखंडी बोलण मा यून्की ,किल्लेय टवट्कि व्हाई  जी .....

          अपड़ो  थेय थंतियाई   यून्ल ,बिरणो थेय पिल्चाई जी
          अप्डी ही  फूकी   झोपडी  तमाशु , दुनिया थेय दिखाई जी
         
          कैल बुखाई डाम यक्ख ,कैल बस चक्डाम ही खाई जी
          कैमा फौज़ चकडैतौंऽ की ,कैमा भड बड़ा  बड़ा नामधारी जी

           कुई बणया छीं चारण दिल्ली का ,कुई भाट देहरादूण दरबारी जी
            शरम ,मुल्क बेची याल ,छीं इन्ना कमीशन खोर व्यापारी जी

          कैकु मुल्क कैक्की भाषा कैकु विकास ,हम त दर्जाधारी जी
          कुई  मोरयाँ भाँ कुई बच्यां ,बैठ्यां हम त  बस सार ठेक्कदारी जी
         बैठ्यां हम त  बस सार ठेक्कदारी जी
         बैठ्यां हम त  बस सार ठेक्कदारी जी

     स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी  ( सर्वाधिकार सुरक्षित )
         
    

Friday, December 7, 2012

" वू लोग "

                                                   " वू लोग " 




 

हमरा ही घोलौं बैठी ,हम्थेय की उडाणा छीं वू लोग
हमरा ही लट्ठों से ,हम्थेय की लठियाणा छीं वू लोग
हमरा ही म्वालौं थेय लगैऽक ,गिच्चौं फर हमरा
छुईं हमरी ही कन्न लगाणा छीं वू लोग

सरया जिन्दगी बाटू दिखाई जौं लोगौं
बाट हम्थेय ही आज कन्न बिरडाणा छीं वू लोग
खाई सरया जिन्दगी जौंल गाड- गाडीऽक पैन्छु
हम्थेय ही आज डडियाणा छीं वू लोग

खुच्चिलियुं मा ख्यलीं ब्याली तक जू हमरी
खण्ड कन्ना कन्ना हम्थेय ही आज खिलाणा छीं वू लोग
जू बुथैं बगत बगत थमथ्याकि हमुल
कन्न आज हम्थेय ही ठगाणा छीं वू लोग

जौंकी मुखडी आश देखि काट सरया जिंदगी हमुल
कन्न मुखडी आज सर्र हमसे ही लुकाणा छीं वू लोग
जौं थेय रौं पिल़ाणु दूध ,खून अप्डू सोचिक
कन्न गुरा बणिक आज हम्थेय ही तडकाणा छीं वू लोग

सैंती पालि कैरी ज्वान जू
बोझ हम्थेय ही आज बताणा छीं वू लोग
जौं का बाना पूजीं ढुन्गा सरया दुनियाऽक
ढुन्गु समझिक उन्दु आज हम्थेय ही चुलाणा छीं वू लोग

दिन चार पैदा हूँया , जौं थेय नि व्हाई अज्जी
औकात ब्वेऽक आज पुछणा छीं वू लोग
मी छौं हिमालय ,प्राण -भाल भारत कू ,
यी च बस परिचय म्यारू
मिल सुण सफेदपोश व्हेकि अज्काल
दिल्ली -देहरादूण मा
लाल बत्ती खूब रिंगाणा छीं वू लोग
लाल बत्ती खूब रिंगाणा छीं वू लोग...........

स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी (सर्वाधिकार सुरक्षित )

Sunday, December 2, 2012

"देखि ले"

                               "देखि ले"
जिंदगी मझधार मा चा  , सांसु आखरी  भोरी ले
कब तलक  चाललू  राज इन्नु ,लैडिक या लडै भी देखि ले
काला दिन छीन , रात  काली रुमुक भी प्वाडली
मुख काला बैरयुंऽक  व्हाला एकदिन ,
आज भटैय तौंकी तस्वीरो थेय पहचाणी  गेड मारी धैरी ले

घणा डालूं बीच कुयेडी लौंफली
चिरी आलू घाम कुयेडी, एकदिन तू देखि ले

बाँधिक सच झूठा ज्युडौ मोरदु नि ,
कैरि हिकमत एकदिन चाहे  फाँस डाली देखि ले

बाँधी ले कत्गा दिवार ,सच कब्भी भी डरदू नि
कन्न हुंद येकू न्यौ निसाफ , वे दिन ही देखि ले
झूठा लोग ,झूठा धरम , झूठ ही जौंकू ईमान च
झूठा देब्तौं देखि  डैरी ना ,
ट्वटगा मुंड कब से बैठयाँ छी
अफ्फार घात घाली देखि ले .......

स्रोत :हिमालय की गोद से ,सर्वाधिकार सुरक्षित (गीतेश सिंह नेगी )