हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Monday, December 6, 2010

गढ़वाली कविता : कु कु छाई ?




एक तू छाई
एक वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?

ना द्याखु उंल हम जनेय
ना पछियांणं हमुल उन्थेय
झन्णी कु छाई ?
झन्णी  कन्नु छाई ?
एक तू छाई
एक  वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?

रुंणा वू भी छाई लाचारी मा
कणाट हम भी कन्ना छाई बेगारी मा
ना उंल फुन्जा अश्धरा हमरा कब्ही
और ना हमुल बूथैयें वू कब्ही

लमडणा वू भी छाई धारु धारु  मा
अल्झंणा हम भी छाई बुझयौं- बुझयौं मा
ना उंल थाम  हत्थ हमरू
और ना हमुल ही  उन्थेय अडाय 

तिडक्यां वू भी छाई
टूटयां हम भी छाई
ना उंल  बोट्टी हम फर अंग्वाल
ना हमुल वू थमथ्याई

चुप-चाप वू भी छाई
बाच हम फर भी तब कक्ख छाई
ना दुःख उंल बताई अप्डू हम्थेय  
ना खैरी अप्डी हमुल कब्ही उम लगाई  

फुक्यां वू भी छाई
हल्याँ हम भी कम नी छाई
ना आग जिकुड़ी की कब्ही उंल बुझाई
ना हमुल बुझाई
एक तू छाई
एक  वू छाई
एक मी  छाई
और भी झन्णी निर्भगी इन्ना कत्गा छाई  ?




रचनाकार :        गीतेश सिंह नेगी,सिंगापूर प्रवास से,४-११-२०१०,सर्वाधिकार सुरक्षित

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