हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Saturday, November 27, 2010

आपदा का हिमालय

हिमालय की गोद में बसा
कहीं एक सुन्दर सा प्यारा गाँव
गाँव के ऊपर थिरकते झरने
खिलखिलाती धूप का  भी रहता अक्सर ठावं

पक्षियों का भी रहता कलरव हरपल वहां
बांज ,बुरांस ,चीड व देवदार भी देते ठंडी छावं
प्रात: काल जब सूरज उगता
देता जीवन को फिर आनंद आयाम

नदी ,झरने ,फूल ,वृक्ष और पक्षी
सब मानों होते अहलादित
हँसते ,झूमते,खेलते ,खिलखिलाते
मानों करते हो स्वागत प्रणाम !

हल उठाता एक बीर फिर
लेता कंधे पर वो उसको  टांग
चल पड़ता बैलों संग वो फिर
खेतों का करने श्रंगार 

हल चलता फिर वो धरती पर
देता उसका सीना हल से चीर
तपता दिन- भर सघन धूप में
हार नहीं मानता लेकिन सूरबीर

फिर आता भोजन लेकर जेठ दुपहरी
घर से करता कोई उसकी ढूंढ़
खिल उठता योवन सा उसमे
खाकर चूण की दो रोटी संग लूण

फिर जुट जाता धरा का कर्मवीर
खूब खेलता वो हल -बैल और बीजौं से
कभी इस कोने,कभी उस कोने
कमर तोड़ता,घाव सहलाता वो गंभीर

हो जाते व्याकुल भूखे और प्यासे
उसके दो साथी बैल  भी जब अचेत
घास खिलाकर ,हाथ फेरकर
नदी किनारे जल पिलाता उन्हे वो धर्मवीर 

देर शाम को जब पहाड़ का
अंचल अंचल सुना हो जाता
कांधे पर हल उठाये ,बैल हांकता
घर लौटता थककर वो होकर अधीर

घर पहुंचकर सर्वप्रथम  करता बैलों का वो सत्कार
घास खिलाकर,जल पिलाकर
बच्चों सा देता उनको वो पुचकार
हाथ फेरकर सहलाता कांधे पर करता प्रकट हार्दिक आभार

सर्द हवाओं में जब डंक मारता सन्नाटा
दंत किटकिट्टाता,फूंक मारता ,आग जलाता पर्वतवीर
हिमाँछादित होंगे पर्वत ,होंगे श्वेत धवल अब
रंग बदलेंगे किरणों के संग मनमोहक तब

नदी- झरने,पशु -पक्षी,पुष्प -विटप करते अठखेलियाँ सब
खिलती बिखरती अदभुत-अदित्य छटायें हिम शिखरों पर तब
गूंजते गीत होली के फिर घाटी घाटी में चहुदिश
क्यूंकि अब वहां ऋतू बसंत इठलाता आ जाता

तितलियाँ मंडराती फिर जब खिलते भाँति भाँति के फूल
सजने लगते गाँव  में फिर कौथिग मेले
नाचते-खेलते , थडिया ,चांचरी ,चौंफला गीत
सजने लगती क्यारियाँ ,पकते जंगल के भी फल

कोपल  निकलते बीजों से फिर
देख उन्हे मंद मंद वो मुस्काता
दिन रात सींचता खेतों को
खुद वो  जिस्म धूप में पिघलता

झूमती इठलाती फसल फिर खेतों में
अब वो फसल का चौकीदार बन जाता
ख्वाब सजाता दिल में उमंग के तब  
पर उससे पहले अम्बर मेघ से पट जाता

पड़ी कुद्रष्टि इस धरा पर किसकी
जो इन्द्रदेव सघन जल दिन रात बरसाता
तहस -नहस  होता उसका सब फिर
वो खामोश हो सिर्फ मूक दर्शक सा रह जाता

गिरती फसल,बिखरते स्वप्न,डूबता-टूटता घर
सब मुसलाधार बरखा में बह जाता
एकटक देखता खेतों को कभी
कभी बैलों को सांत्वना दे सहलाता

उधर सत्ता के गलियारों में पक्ष-विपक्ष की
होती रोज दिवाली  है
जाम छलकते सत्ता सुख के अक्सर वहां
अभागा दुःख उसका बस आपदा की खबरों तक सिमटकर रह जाता

बट जातीं कलमें भी फिर
पक्ष-विपक्ष के खेमों में
कौन सच्चा  और कौन  झूठा फिर
यहीं आपदा की चर्चा का मुख्य विषय रह जाता

होती तू - तू ,मैं - मैं ,
खीचतान और उठापटक
धरने , आंदोलन और जाने फिर क्या क्या
फिर आपदा की बोतल में राहत का जिन्न आ जाता

फिर राजधानी के वातानुकूलित कमरों से
होती दावों की नित बोछार अनंत
तत्पश्चात गाँव में आपदा राहत का एक हज़ार का चेक
कोई खादी की धोती और टोपी पहन उसको दे जाता

सिर पकड़कर बिलखता वो कुछ दिन
खाकर चूण की बासी-तिबासी अक्सर
तो कभी भूखे पेट जल पीकर
वो बेचारा सो जाता

 इस राजनीति  से मुझे क्या लेना देना
जल-जंगल-जमीन से बना रहे बस नाता
बस इतना ही सोच धरती पुत्र
पुन: जीवन संघर्ष में जुट जाता

बस इतना ही सोच धरती पुत्र
पुन: जीवन संघर्ष में जुट जाता

बस इतना ही सोच धरती पुत्र
पुन: जीवन संघर्ष में जुट जाता




( मेरी यह रचना एक श्रधांजलि  है मेरे स्वर्गीय दादा जी ठाकुर श्री  भूपाल सिंह नेगी जी के जीवन को जिनसे मुझे एक किसान के संघर्ष और दुःख को बहुत करीब से देखने  और समझने का मौका मिला | देश के हर कोने में किसान की समस्याएँ चाहे  जैसी भी हो पर उसका दर्द सभी जगह समान रूप से  ही पीड़ा दायक  है फिर चाहे
किसान हिमालय का हो ,विदर्भ का ,असम,बंगाल ,उतर-प्रदेश , बिहार या पंजाब का  | आपदा से पीडित इन्न   धरा के सपूतों को समर्पित मेरी एक छोटी सी  रचना  "आपदा का हिमालय " )


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से ,दिनांक २५-१०-१० ,सर्वाधिकार सुरक्षित )

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