हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Sunday, December 30, 2012

" महाभारत "

  
                   " महाभारत "

   हिमाद्री की इस  धरा पर ,घायल  है कब से गंगा
   सरस्वती विलुप्त है सदियौं से  , निशब्द अभिशप्त है  यमुना
   पदमा  है  शोकाकुल ,है   मुरझाई सी स्वर्णरेखा
   आहत है सरयू सारी , नग्न  आँखौं से मैने खुद रोते कोसी को देखा
   है क्रोध  भरा  कृष्णा में  आज ,गुमसुम है  कावेरी भी
   क्यूँ तपन में  है  तापी  ,  थाम आँचल ब्रहमपुत्र का
   फफक फफक  कर  रोती फिर रही क्यूँ तीस्ता 
    मूर्छित है नर्मदा ,है आहत चम्बल 
    खंडित हुई है मानवता ,दंभ  फिर  आज पौरुष का टूटा है
    चंद  जरासंधौं ने मिलकर ,आज फिर एक द्रोपदी को लूटा  है
   मौन है  आज फिर वही ,धृत राष्ट्री सत्ता
   दुराचारी रच रहे फिर खेल महाभारत का
   खड़ा है भारत फिर उसी कुरुक्षेत्र में लगता है
  जनता मांग रही है हक इन्साफ बन पांडव
  हाथ कौरवों के फिर वही अंधी सत्ता है
 है अंधे कानून फिर ,वही अन्यायी वनवास खांडव का
 न्याय व्यवस्था  से जूझता  अकेला निशस्त्र 
क्यूँ वही दृश्य   अभिमन्यु -चक्रव्यूह सा है ...........



स्रोत :  हिमालय की गोद से  ,गीतेश सिंह नेगी (सर्वाधिकार सुरक्षित )

Saturday, December 29, 2012

"आखिर कब तक " ?

 
      "आखिर कब तक " ?

 
 अर्जुन का गांडीव आज खंडित है
  फिर  स्तब्ध है  महाबली का बल
  शून्य उद्घोष  है आज पांचजन्य फिर से
   चक्र रहित है फिर सुदर्शन हस्त
   पुरुषोतम  को है शायद वनवास  अभी तक भारत में
   और  क्यूँ  धृत-राष्ट्र
    मौन  है सदियौं  से
    अट्टहास कर रहा दुर्योधन देखो फिर
    असहाय खड़ी  है  एक  द्रोपदी फिर से आज
    खंडित हुआ गौरव  भारत का
   हाय  लुट गई मानवता की लाज
  अश्रु लिये विलाप रही  द्रोपदी फिर
  पूछ रही फिर वही सवाल
  हे पुरुष  -कब तक जारी रहेगी यह महाभारत तेरी
  और कब तक बनती  रहूंगी  शिकार सिर्फ मैं ही
  चीरहरण का
 और झेलती रहूँगी दंश
 तेरे तथाकथित  पौरुष अभिमान का
 बार बार
 हर युग में
 यूँ ही
इसी  तरह
आखिर कब तक ?

स्रोत : हिमालय की गोद  से ,गीतेश सिंह नेगी ,

Sunday, December 16, 2012

विश्व प्रसिद्ध कवियौं की कवितायें ( गढ़वाली अनुवाद ) : ६ सुमित्रानंदन पन्त की कविता मोह

 

   सुमित्रानंदन पन्त की कविता मोह   (गढ़वाली अनुवाद )  

                 प्रकृति के सुकुमार कवि को समर्पित ,गढ़वाली अनुदित उनकी एक रचना

 अनुवादक : गीतेश सिंह नेगी 

 

 

विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि  कविताएँ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ;

                 

मोह

                         

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू भ्रंगों से कैसे बिधवा दूँ निज मृग सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ, सजनि, श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा-रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!

                          

(गढ़वाली अनुवाद )

                                                    

छोड़  डालीयूं  कु छैल  मिट्ठू
तोड़ कुदरतै  माया बि
                     छोरी ! कनक्वे अलझ्या दियूं  लटूल्यूं  मा तेरी आँखी ?
                     अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

छोडिक बुग्दी गद्नौं थेय ,
    दगड धडैं का रंगौं थेय      
                   कनक्वे बिधै द्यूं  भौंहौं मा तेरी हे  प्यारी ! 
         चंचल  घ्वीड सी ईं जिकुड़ी थेय
       अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

  चखुलियुं का मीठा मीठा बोल
भौंरौं कु भिमणाट  अनमोल
 बोल कनक्वे सुणु ,
मीठी बाच तेरी ही बस हे प्यारी
            अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !
     खिल्दा सुबेर  जब दल कमल  
जौंन भटी उतरदू जल
ना ,अमृत उठडीयूँ का नशा मा ही सै
पर कनक्वे बुथिया दियुं यू जीवन 
                                अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

( गढ़वाली अनुवाद : गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित )



विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि  कविताएँ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ; ...................क्रम जारी

Thursday, December 13, 2012

घुर घुगुती घुर

                                    घुर घुगुती घुर 
 





 
हैरी डांडीयूँ  का बाना ,हिवांली कांठीयूँ  का बाना
बांजा रै गईं  जू  स्यारा  ,रौन्तेली 
वूं  पुन्गडीयूँ  का बाना
घुर घुगुती घुर ...............

 रीति  कुडीयूँ  का बाना ,जग्वल्दी चौक शहतीरौं का बाना
 खोज्णा  छीं सखियुं भटेय जू बाटा ,बिरडयाँ वूं  अप्डौं  का  बाना
  घुर घुगुती घुर ...............

रूणी   झुणक्याली दाथी  ,गीतांग  घस्यरीयूँ  का बाना 
बन्ध्या  रे  गईं  जू ज्युडौं  ,निर्भगी वूं  बिठगौं का बाना
घुर घुगुती घुर ...............

टपरान्दी अन्खियुंऽक कू सारु , बगदी अस्धरियूँऽ   बाना
तिस्वला रे  गईं जू साखियुं  ,यखुली वूं छोया -पंदेरौं का बाना
घुर घुगुती घुर ...............


पिंगली फ्योंली रुणाट ,खून बुरंशीऽ का बाना
मुख चढैकि बैठीयूँ  जू जिदेर ,फूल वे ग्वीराल बाना
घुर घुगुती घुर ...............

रीती रुढीयुं का जोग ,बुढेन्द बसंत भग्यान
इन्न लौन्प कुयेडी ,टपरान्द रे ग्या  असमान
चल गईं फिर भी छोडिक जू मैत्युं ,वूं पापी पुटगियुं का बाना
घुर घुगुती घुर
घुर घुगुती घुर
घुर घुगुती घुर .....................



स्रोत : अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह " घुर घुगुती घुर " से , सर्वाधिकार सुरक्षित (गीतेश सिंह नेगी )

Sunday, December 9, 2012

" उकाल उंदार "

                                                       " उकाल उंदार "

           





 बाबू मोशाय   द्वारा " गैरसैंण " के घाव पर "राजधानी " का मल्हम लगाने  के बजाय " विधानसभा भवन " और सत्र रूपी पैबंद लगाया जा रहा है वो भी बिना योजनारूपी अस्तर के ! 

बाबू मोशाय  पहाड़ी बहुत सीधे होते हैं पर उनके होंसले हिमालय से विशाल और फौलादी होते हैं ,महाराज किसी गलतीफहमी में मत रहना ,ये नयी पीड़ी के सरफिरे लोग कुछ भी उखाड़ सकते हैं ,कुछ भी  ....
" गैरसैंण " से कम पर ये  मानने  वाले नहीं ,सुना है कुछ लौंडे सनकी हो चले हैं ,खूब जूते घिसते हैं "गैरसैंण "  जा जाकर ,गैरसैंण को ऐसे मोह्हबत   करते हैं जैसे बस यही उनकी माशूका हो अब
" बाबा मोहन उत्तराखंडी " का नाम लेकर इधर उधर मंडराते  रहते हैं ,सुना है दिल्ली ,बम्बई ,दुबई अर ना जाने कहाँ कहाँ  इस माशूका के कई दीवाने हैं ,कुछ तो अब परलोक सिधार गये पर इश्क है की अब भी उनका नाम इस माशूका  के साथ गाये बगाहे जुड़ ही जाता है ,और इश्क देखिये ये सर फिरे लौंडे है की इन्ह मरहूम दिवानौं की कसमे ऐसे खाते हैं जैसे कोई प्रेमी हीर रांझा या फिर लैला मजनू  की कसम खाकर प्रेम पथ पर बढ रहा हो ,मानो सब कुछ भुलाकर कोई अग्निपथ  पर अग्रसर हो चला हो हाँ वो बात भी दुरुस्त ठहरी की कुछ पुराने  आशिक अब बेवफाई पर उतर आयें  हैं ,सत्ता मद में चूर होकर सुना है अब सत्ता के " खुचिल्या " मात्र बन कर रह गए हैं  ,कसमे भूल गए है और वादे हैं की अब चुनाव के समय ही याद आते हैं , पर बाबू मोशाय सच तो आपको भी पता है ,टिहरी उपचुनाव से आपने कुछ तो सीखा ही होगा ,बिचारे बेवफा अर सत्ता के " खुचिल्या " अर क्रांति के ढोंगी .दर्रे ! क्या व्हालू युन्कू ?   

त्राहि माम ! त्राहि माम !  भावना में बहकर एक प्रवासी उत्तराखंडी  के मुख से गढ़वाली निकल गई क्षमा महाराज ! पर वैसे आपको तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़ी होगी ,सुना है  आप तो अकबर इलाह्बादी के जमाने से बाबू मोशाय ठहरे

अरे
बाबू मोशाय इलाह्बाद से याद आया  ये  अपना " हिमालय पुत्र " भी तो बाड़ा ददावर  नेता था एक जमाने में ,सुना है खूब  चलती थी उसकी ,धाकड़ नेता था ,आपका कुछ लगता था क्या ?

अरे
बाबू मोशाय मैं भी  बस कुछ भी बके  जा रहा हूँ ?बाबू मोशाय  अर " हिमालय पुत्र " में भी भला कोई  रिश्ता हो सकता है ,खैर छोडिये रिश्तों में अब रखा ही क्या है ,वैसे भी आप तो अब बाबू मोशाय ठहरे  ,है की नहीं सो " हिमालय पुत्र " में भी अब क्या रखा समझो ? हाँ  याद आया बात  सिरफिरे  लोगौं की चल रही थी ।  ये सर फिरे सनकी  लोग बहुत सीधे हैं पर हैं तो पक्के आशिक ना  बाबू मोशाय माना की  दिल्ली- देहरादून की राजनितिक गलियौं के रास्ते इन्हे नहीं पता , माना की इनकी  सारी उम्र पहाड़ में उकाल उंदार काटते ही बीत गई ,यु तो
पहाड़  में कहीं किस्म के खबेश हैं मसलन माफिया , आपदा ,कुनीति ,अव्यवस्था , बेरोजगारी  पर सबसे बड़ा अकाल तो यहाँ  कुशल नेतृत्व   का  ही पड़ा  है  ना  अपने देश की तरह
रही बात  दिल्ली मुंबई की तो  दिल्ली - मुंबई तो  बस ये पलायन के भुत के बसीभूत  होकर ही दौडते हैं ,पिछले बारह सालौं में कोई ऐसा माई का लाल भी तो पैदा नहीं हुआ उत्तराखंड की राजनीति में जो सुकून से  दो बगत की मेहनत की रोटी दिला सके इन्हे पहाड़  में ,हाँ स्वयंभू  विकाश पुरुष ,रेल पुरुष ,अलाणा पुरुष फलाणा पुरुष जरुर पैदा हुए यहाँ ,काश राजनीति में भी कुछ परिवार नियोजन जैस सिस्टम होता पर क्या करे ..........
खैर आज
सिस्टम की बात ना ही करे तो अच्छा रहेगा ,मुझे तो सिस्टम शब्द सुनकर ही बदहजमी शुरु हो जाती है ,मुह से अनाप सनाप निकलने लगता है ,
ये पलायन का भूत तो ऐसा चिपटा महाराज की एक बार चिपटा तो अब छुटने का नाम ही नहीं लेता ,
पहाड़ी इस भूत से ऐसे डरते हैं जैसे आप और आपके विपक्षी "गैरसैंण " के भूत से डरते हैं  
इनकी जवानी  तो पहाड़ में उकाल उंदार काटते ही बीत गई ,खैर छोडिये बाबू मोशाय उकाल उंदार से आपको क्या ? उकाल उंदार का  आपका कैसे पता चलेगा आप तो कभी गए ही नहीं  "पहाड़  " ,आपने कहाँ देखा हमारा पहाड़ ,वैसे एक बात कहूँ बुरा मत मानना देखे तो अभी अपने पहाड़ी भी नहीं ठीक से शायद 
सुना है आप गये  थे  ' गैरसैंण "  राजकीय पुष्पक विमान से अपने  दल बल के साथ ?
 सच सच बोलना
बाबू मोशाय कैसा लगा आपको हम " गैरौं का ये सैण "  ?
आप नेता लोगौं  की ख़ामोशी भी ना कम डरावनी नहीं होती ,अच्छे अच्छे मुद्दौं  पर आप गिच्चौं  पर ऐसे म्वाले  लगा लेते हो जैसे  बल्द के लगे रहते हैं दैं करते समय,  कई बार तो  हमे ऐसे प्रतीत होता है  की साले हमारे बल्द  ही गल्या  हैं ,ऐन टेम पर घुण्ड टेक देते हैं अब   इसमे बिचारे हल्या  ब्वाडा  भी क्या करे ?
 वैसे महाराज करने क्या गये थे  वहां ? "संजीवनी बूटी  " खोजने तो नहीं गये थे ? या फिर आप भी सिर्फ आत्मिक  शांति की खोज में गए थेय पहाडों पर " जस्ट फॉर  पीस ऑफ़ माईंड इन गैरसैंण आफ्टर बैटल ऑफ़ टिहरी  "
बाबू मोशाय ये पहाड़ ऐसे ही होते हैं ,हमेशा अपनी बाहें फैलाकर आपका स्वागत करने हेतु तत्पर ,पर बाबू मोशाय अब एक काम करो फ़ौरन एक किताब लिख डालो अपने अगले गैरसैंण  प्रवास  मेरा मतलब सत्र के  दौरान अरे भाई क्या पता कल आपका भी एक आश्रम बन गए कहीं गैरसैंण  में ,आप भी एक संत और महापुरुष  के रूप में किसी पाषाण खंड पर उत्कीर्णित हो जाएँ और आने वाली राजनीतिक  पीड़ी जब जब गैरसैंण सत्र के बहाने   राजधानी का चूसना लेकर वहाँ जाये तो लोग  कृतार्थ हो जाएं    
 
वैसे सुना है देश में एक नयी क्रांति आने वाली है ,कुछ लोग कहते हैं २०२० में आयेगी कुछ कहते हैं की २०१४  के बाद आयेगी  पर हल्या ब्वाडा की समस्या तो कुछ और ही है वो तो बस यही  पूछता है  की उसके मरने से पहले आयेगी की नहीं ? क्या मालुम कब आयेगी वैसे क्रांति का क्या है कभी भी आ सकती हैं बाबू मोशाय ,छोडो वैसे भी तुमको  क्या लेना क्रांति से तुमको तो बस " सिंहासन " ....
पर बाबू मोशाय एक बात हमे समझ  नहीं आती की आप सब  देहरादून -दिल्ली वाले  " गैरसैंण " से इतना डरते क्यूँ हैं ?
कहीं उकाल उंदार से आपकी  .......
















                  स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी
( सर्वाधिकार सुरक्षित )



" ठेकादारी "

           
                                           " ठेकादारी "








          

             पहाड़ मा पहाड़ नि च ,मुल्क गंगा  पाणी जी
            गोमती का तीर  बैठीं  ,अज्काल बुड़ेंदा की स्याँणी जी
          
           कब्भी खाई  गैरसैंण  यूँल ,कब्भी  परिसीमन पचाई जी
           कब्भी डुबाई  टिहरी यून्ल  , कब्भी रस  कुम्भ चस्गाई जी
         
          कक्खी चिपकाई  संस्कृत यून्ल ,कक्खी उर्दू कुच्याई जी
          गढ़वली कुमौनी बोलण  मा युन्थेय ,हे  ब्वे  कन्न  शर्म आई जी

           कुई ब्व़नु बंगाली छौँ ,कुई ब्व़नु मी नेपाली जी 
            उत्तराखंडी बोलण मा यून्की ,किल्लेय टवट्कि व्हाई  जी .....

          अपड़ो  थेय थंतियाई   यून्ल ,बिरणो थेय पिल्चाई जी
          अप्डी ही  फूकी   झोपडी  तमाशु , दुनिया थेय दिखाई जी
         
          कैल बुखाई डाम यक्ख ,कैल बस चक्डाम ही खाई जी
          कैमा फौज़ चकडैतौंऽ की ,कैमा भड बड़ा  बड़ा नामधारी जी

           कुई बणया छीं चारण दिल्ली का ,कुई भाट देहरादूण दरबारी जी
            शरम ,मुल्क बेची याल ,छीं इन्ना कमीशन खोर व्यापारी जी

          कैकु मुल्क कैक्की भाषा कैकु विकास ,हम त दर्जाधारी जी
          कुई  मोरयाँ भाँ कुई बच्यां ,बैठ्यां हम त  बस सार ठेक्कदारी जी
         बैठ्यां हम त  बस सार ठेक्कदारी जी
         बैठ्यां हम त  बस सार ठेक्कदारी जी

     स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी  ( सर्वाधिकार सुरक्षित )
         
    

Friday, December 7, 2012

" वू लोग "

                                                   " वू लोग " 




 

हमरा ही घोलौं बैठी ,हम्थेय की उडाणा छीं वू लोग
हमरा ही लट्ठों से ,हम्थेय की लठियाणा छीं वू लोग
हमरा ही म्वालौं थेय लगैऽक ,गिच्चौं फर हमरा
छुईं हमरी ही कन्न लगाणा छीं वू लोग

सरया जिन्दगी बाटू दिखाई जौं लोगौं
बाट हम्थेय ही आज कन्न बिरडाणा छीं वू लोग
खाई सरया जिन्दगी जौंल गाड- गाडीऽक पैन्छु
हम्थेय ही आज डडियाणा छीं वू लोग

खुच्चिलियुं मा ख्यलीं ब्याली तक जू हमरी
खण्ड कन्ना कन्ना हम्थेय ही आज खिलाणा छीं वू लोग
जू बुथैं बगत बगत थमथ्याकि हमुल
कन्न आज हम्थेय ही ठगाणा छीं वू लोग

जौंकी मुखडी आश देखि काट सरया जिंदगी हमुल
कन्न मुखडी आज सर्र हमसे ही लुकाणा छीं वू लोग
जौं थेय रौं पिल़ाणु दूध ,खून अप्डू सोचिक
कन्न गुरा बणिक आज हम्थेय ही तडकाणा छीं वू लोग

सैंती पालि कैरी ज्वान जू
बोझ हम्थेय ही आज बताणा छीं वू लोग
जौं का बाना पूजीं ढुन्गा सरया दुनियाऽक
ढुन्गु समझिक उन्दु आज हम्थेय ही चुलाणा छीं वू लोग

दिन चार पैदा हूँया , जौं थेय नि व्हाई अज्जी
औकात ब्वेऽक आज पुछणा छीं वू लोग
मी छौं हिमालय ,प्राण -भाल भारत कू ,
यी च बस परिचय म्यारू
मिल सुण सफेदपोश व्हेकि अज्काल
दिल्ली -देहरादूण मा
लाल बत्ती खूब रिंगाणा छीं वू लोग
लाल बत्ती खूब रिंगाणा छीं वू लोग...........

स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी (सर्वाधिकार सुरक्षित )

Sunday, December 2, 2012

"देखि ले"

                               "देखि ले"
जिंदगी मझधार मा चा  , सांसु आखरी  भोरी ले
कब तलक  चाललू  राज इन्नु ,लैडिक या लडै भी देखि ले
काला दिन छीन , रात  काली रुमुक भी प्वाडली
मुख काला बैरयुंऽक  व्हाला एकदिन ,
आज भटैय तौंकी तस्वीरो थेय पहचाणी  गेड मारी धैरी ले

घणा डालूं बीच कुयेडी लौंफली
चिरी आलू घाम कुयेडी, एकदिन तू देखि ले

बाँधिक सच झूठा ज्युडौ मोरदु नि ,
कैरि हिकमत एकदिन चाहे  फाँस डाली देखि ले

बाँधी ले कत्गा दिवार ,सच कब्भी भी डरदू नि
कन्न हुंद येकू न्यौ निसाफ , वे दिन ही देखि ले
झूठा लोग ,झूठा धरम , झूठ ही जौंकू ईमान च
झूठा देब्तौं देखि  डैरी ना ,
ट्वटगा मुंड कब से बैठयाँ छी
अफ्फार घात घाली देखि ले .......

स्रोत :हिमालय की गोद से ,सर्वाधिकार सुरक्षित (गीतेश सिंह नेगी )

Monday, November 26, 2012

ब्याली अर आज


            



              (१)     ब्याली

डांडी कांठी हैरी हैरी ,चांदी कु  हिमाल
ठण्डु ठण्डु पाणि गदिनियुं कु ,गंगा जी का छाल
रंगीलो कुमौं च मेरु ,छबीलू गढ़वाल
रौन्तेलु  च मुल्क म्यारू  ,रौन्तेलु पहाड़

पिंगली च फयोंळी जक्ख ,रंगीलू  बुरांस
घुगती बस्दिन  जक्ख  , बसद  कफ्फु  हिलांस
खित खित हैन्स्दी जक्ख  , डालियुं डालियुं  ग्वीराल
गीत लगान्दी खुदेड घसेरी   , वल्या पल्या स्यार
रंगीलो कुमौं च मेरु ,छबीलू गढ़वाल
रौन्तेलू  च मुल्क म्यारू  ,रौन्तेलु पहाड़

देब्तों कु वास  जक्ख ,या धरती  महान
धारौं धारौं मा पंवाडा भडौं  का  ,च बीरौं की  शान
वीर माधो ,वीर रिखोला ,वीर कालू महान
वीर बाला तीलू यक्ख ,गढ़ चौन्दकोट शान
सिंह गब्बर ,सिंह दरबान ,सिंह जसवंत जक्ख  ज्वान
वीरौं मा कु बीर भड , बीर कफ्फु चौहान
बीरौं की च धरती या  बीरौं की च शान
रंगीलो कुमौं च मेरु ,छबीलू गढ़वाल
रौन्तेलु च मुल्क म्यारू  ,रौन्तेलु पहाड़ .......

(२)       आज

लूटी गईं सब डान्डी कांठी ,चूस गईं सब  ह्युं हिंवाल
बिसिग ग्याई पाणि गदिनियुं कु , हे ब्वे मच ग्याई बबाल
बूसै  ग्याई फ़्योंली पिंगली  , रुणु च   बुरांस
ठगैणी च  घुगती साख्युं भटयै  , ठगैणु च कफ्फु - हिलांस
पुल पुल  रुणा छीं  यक्ख   , डालियुं डालियुं फूल ग्वीराल
 गीत लगाणी खैरी का  बूढडि  , कब आलु मी काल
  फूल गयीं लटूली मेरी , बुस्याँ  रै गईँ जोग  भाग  
  कन्नू कैरिक कटण हे विधाता ,बड़ी भरी च या उक्काल
  बड़ी भरी च या उक्काल
 बूढैय ग्याई कुमौं सरया  ,बूढैय ग्याई  गढ़वाल
कन्नू कैरिक कटण हे विधाता ,बड़ी भरी च या उक्काल

ठेकदरौं की धरती या   ,
ठेकदरौं  कु यक्ख राज
धारौं धारौं मा अड्डा दारु   का  ,
दारु मा    चलणु  यक्ख सब काज
दारू मा नचणा छीं अब देबता ,
 दारू मा  ही नचणी  बरात
बरसी दारू मा ,जागर  दारु मा ,
प्रमुख  दारू मा ,पटवरी दारू मा
परधान जी का दस्खत दारु मा
मनरेगा का पैसा दारू मा
कन्न प्वाड अकाल गौं   मा
सरया बिलोक रुझ्युं दारू मा

कक्ख हरच माधो ,कक्ख ग्याई  बीरू
कक्ख हरच  भुल्ला पप्पू ,कक्ख हरच तीरू
खाली छीं चौक यक्ख  ,खाली छीं खिलहाण
कुछ ता कारा छूचो , कन्न चिपट  यू मसाण
खाली छीं गौं  यक्ख  ,खाली छीं गुठियार
खुदेणु च कुमौं यखुली  ,खुदेणु  गढ़वाल
तुम्हरी ही छुईं " गीत " ,अब तुम्हरी ही जग्वाल
खुदेणु च कुमौं यखुली  ,खुदेणु  गढ़वाल ......



स्रोत :म्यार ब्लॉग हिमालय की गोद से ,सर्वाधिकार सुरक्षित (गीतेश  सिंह नेगी )

Saturday, November 24, 2012

गढ़वाली कविता : " किन्गोड़ाऽ बीज "

" किन्गोड़ाऽ  बीज "

घैल पौडियूँ  बुराँस कक्खी
सुध बुध  मा नि चा फ्योंली भी
बौल्ये ग्यीं  घुघूती भी देखा
फुर्र - फुर्र उडणी इन्हे फुन्हेय
छोड़ अपडा फथ्यला - घोलौं भी  

लटुली फूली ग्यें ग्वीरालऽ
हुयुं लापता कफ्फू  हिलांस
पकणा छीं बेडू भी बस
अब लाचारी मा बारामास 

सूखी ग्यीं अस्धरा  पन्देरौंऽक भी
सरग भी नि गगडाणू चा
लमडणा छीं भ्यालौं - भ्यालौं मा निर्भगी काफल
कुई किल्लेय हम थेय नि सम्लाणु चा

जम्म खम्म पौडयां छीं  छन्छडा
धार हुईँ छीं  लम्मसट
व्हेय  ग्याई निराश कुलैंऽक भी बगतल 
मुख लुकै ग्याई सौंण कुयेडी भी सट्ट 

रूणाट हुयुं डांडीयूँ कांठीयूँ कू
ज्यूडी - दथुड़ी बोटीं अंग्वाल
छात भिटवौली पूछणा स्यारा - पुन्गड़ा
हे हैल -निसूडौं  कन्न लग्ग फिट्गार 

गैल  ग्याई ह्यूं हिमवंतऽक
बस बोग्णी छीं आंखियुं अस्धार
अछलेंद अछलेंद बुथियांन्द  वे थेय
द्याखा  बुढेय  ग्याई देब्ता घाम 

हर्चिं ताल ढ़ोलऽक ,
बिसिग सागर दमौ  महान
बौल मा छीं  गीत माँगल - रासों -तांदी
समझा उन्थेय मोरयां समान 

छोडियाल चखुलीयौंल भी अब बोलुणु
काफल पाको ! काफल पाको !
तब भटेय जब भटेय हे मनखी !
तील सीख द्यीं
अपडा  ही गौं  मा
बीज किन्गोड़ाऽ सोंगा सरपट चुलाणा
बीज किन्गोड़ाऽ सोंगा सरपट चुलाणा  ..........


स्रोत : हिमालय की गोद से , सर्वाधिकार सुरक्षित (गीतेश सिंह नेगी )

Tuesday, June 5, 2012

गढ़वाली कविता : नै रिवाज

 नै  रिवाज 


म्यार मुल्क
एक नै रिवाज
मौ पच्चीस
अर मनखी ४
इन्ह मा कुई
म्वार त म्वार
कन्नू कै म्वार ?

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित  

गढ़वाली कविता : योजना


गढ़वाली कविता : योजना 


तुम 
जू बण्या रौ
परवाण 
दिणा रौ बचन 
घैंटणा रौ सौं 
विकासौ  नौ फर 
अर बणाणा रौ 
योजना फर योजना 
साखियुं भटेय 
पर ऐंशु बस्गाल 
बोग ग्यीं सब योजना तुम्हरी 
मेरी खाली कुड़ी 
अर तुम्हरी बांझी पुन्गडी जन्न 
अर तुम ! 
सैद मीस्सै  ग्यै व्हेला चट्ट  फिर 
बणाण फर
एक और योजना 
जू बूढेय जैली 
कटद कटद उक्काल म्यार गौंऽकी 
पर नी पहुँचली सैद कब्बी
विकास 
अर वूं निर्भगी छ्वारौं जन्न 
जू अज्जी तक नी आई बोडिक
म्यार मुल्क 
बरसूँ  भटेय  




रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, May 27, 2012

" गढ़वली फिन्डका "

                        " गढ़वली  फिन्डका  "

(१) कलजुग मा द्याखो  भई ,  मचयूँ  कन्न घपरोल
    मनखी सस्ता व्हेय ग्यीं यक्ख  ,मैहंगू  च  पिट्रोल

(२ ) गरीबी मा जीणु मुश्किल  ,अर आफत  व्हेय ग्याई  मौत
   सरकार व्हेय ग्या सासू जन्न  ,अर मैहंगैई  व्हेय ग्याई सौत

(३ ) खाणा  कु अन्न नी मिलदु ,पीणा कु पाणि
   जैक खुट्टौं बिनाला कांडा   ,पीड़ा वी जाणी

(४)   मैहंगी  व्हेय ग्या सिगरेट बल ,सस्ती च शराब
      पीण वालू जण्या भैई  रे   ,गर  व्हेली मौ  खराब

(५) लोकतंत्र मा हुणा छीं ,किस्म किस्म का खेल
   रोज हुणा छीं परचा उन्का ,रोज हुणा छीं उ फेल

(६) विष खाणा कु पैसा नी मिल्दा , डाली खाणा कु फांस
     बैलू गौडू अर वी भी   डून्डू   ,ब्वाला कन्नू कै करण थवांस

(७ )    ढुंगा व्हेय गईं देबता  ,अर मनखी व्हेय ढुंगा
         पूजद पूजद दुयुं  थेय ,पलटीं कत्गौं का जून्का

(८)     स्याल अटकाणा छीं कुक्कर थेय , गूणी अटकाणा बाघ 
         बिरली कन्नी छीं  रखवली दुधऽकि , कन्न फुट्ट कपाऽल


..........................................................................   क्रम जारी

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित

Friday, May 25, 2012

बाँध की विभीषिका पर आधारित गढ़वाली कविता : डाम

A Poem based on dam catastrophe   ;  A Poem based on dam catastrophe by an Asian poet ; A Poem based on dam catastrophe by a south Asian poet ;  A Poem based on dam catastrophe by an SAARC countries poet ; A Poem based on dam catastrophe by an Indian subcontinent  poet ;  A Poem based on dam catastrophe by an Indian  poet ; A Poem based on dam catastrophe by a North Indian  poet ; A Poem based on dam catastrophe by a Himalayan  poet ; A Poem based on dam catastrophe by a Mid-Himalayan poet ; A Poem based on dam catastrophe by an Uttarakhandi  poet ; A Poem based on dam catastrophe by a Garhwali  poet



 डाम



 

त्वे भी डाम
मी भी डाम
कन्न कपाल लग्गीं यी डाम
सरया पहाड़  जौंल  डाम

कैक मुख आई  पाणि
कैकी लग्ग मवसी  घाम
छोट्ट  छोट्टा व्हेय ग्यीं मन्खी
बड़ा बड़ा व्हेय ग्यीं यी डाम

कक्खी बुगाई सभ्यता युन्ल
कक्खी  बोग्दी गंगा थाम
तोडिऽक करगंड पहाड़
छाती मा खड़ा व्हेय गईं यी  डाम

उज्याला बाटा  दिखैक झूठा
कन्न अन्ध्यरौं पैटीं यी डाम
कुड़ी पुंगडी खैऽकी  हमरी 
कन्न जल्मीं यी जुल्मीं  डाम ?

तैरीक अफ्फ गंगा रुप्यौं की
डूबै  ग्यीं हम थेय यी डाम
बुझे  की भूख तीस अप्डी
सुखै  ग्यीं हम्थेय यी डाम

मन्खी खान्द मंस्वाग द्याख
यक्ख सभ्यता खै ग्यीं यी डाम
साख्युं कु जम्युं  ह्युं संस्कृति
चस्स चुसिऽक गलै ग्यीं  यी डाम

त्वे भी डाम
मी भी डाम
सरया मुल्क डमै ग्यीं यी डाम !
सरया मुल्क डमै ग्यीं यी डाम !



रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित 


A Poem based on dam catastrophe   ;  A Poem based on dam catastrophe by an Asian poet ; A Poem based on dam catastrophe by a south Asian poet ;  A Poem based on dam catastrophe by an SAARC countries poet ; A Poem based on dam catastrophe by an Indian subcontinent  poet ;  A Poem based on dam catastrophe by an Indian  poet ; A Poem based on dam catastrophe by a North Indian  poet ; A Poem based on dam catastrophe by a Himalayan  poet ; A Poem based on dam catastrophe by a Mid-Himalayan poet ; A Poem based on dam catastrophe by an Uttarakhandi  poet ; A Poem based on dam catastrophe by a Garhwali  poet




Wednesday, May 23, 2012

गढ़वाली कविता : " खैरीऽ का गीत "

गढ़वाली कविता :  " खैरीऽ का गीत "


  मी त गीत खैरीऽ का लगाणु  छौं ! 

  कांडों थेय  बिरैऽकी ,फूल बाटौं सजाणु छौं
  छोडिक अप्डी , दुन्या कि लगाणु छौं
होली दुनिया बिरड़ी कलजुगी चुकापट्ट मा
  सोचिऽक मुछियलौंऽल बाटा दिखाणु छौं 

 मी त गीत खैरीऽ का लगाणु  छौं  !  

तिस्वला  रें प्राण  सदनी जू ,अस्धरियौंऽल उन्थेय  रुझाणु छौं
ज्वा  जिकुड़ी फूंकी रैं अग्गिन   मा ,वा प्रीत पाणिऽल बुझाणु छौं
कु बग्तऽ कि फिरीं मुखडी  सब्या , सुख मा सब सम्लाणु छौं
जौं पिसडौंऽल डमाई सरया जिंदगी मीथै , मलहम उन्ह फर आज लगाणु छौं
                                                 
    मी त गीत खैरीऽ का लगाणु  छौं  !


जौंल बुगाई मिथै  ढंडियूँ मा , उन्थेय  गदना तराणु छौं
 जैल मार गेड खिंचिक सदनी ,वे थेय ही  सुल्झाणु छौं
अटगाई जौंल जेठ दुफरी मा , छैल बांजऽक उन्ह बिठाणु
छौं
जैल  बुत्तीं विष कांडा सदनी , फुल पाती वे खुण सजाणु छौं
  
मी त गीत खैरीऽ का   लगाणु  छौं !
 
 जौं ढुंगौंऽल खैं ठोकर मिल , उन्थेय देबता आज बणाणु छौं
जौंल नि थामू अन्गुलू भी कब्बि  ,कांध उन्थेय लगाणु छौं
  रुसयाँ रैं मि खुण सदनी जू ,   वूं थेय आज मनाणु  छौं
  जौंल रुवाई सदनी मिथै ,भैज्जी वूं थेय  आज  बुथ्याणु छौं
                                                   
मी त गीत खैरीऽ का   लगाणु  छौं  !


रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार  सुरक्षित
स्रोत : म्यार ब्लॉग - हिमालय की गोद से

" ललित केशवान "

गढ़वली अर हिंदी साहित्याऽक   वरिष्ठ साहित्यकार आदरणीय ललित केशवान जी थेय सादर      सप्रेम समर्पित मेरी एक कबिता
          
          " ललित केशवान "

 संवत १८६१ ,.....गते ....
 पौड़ी जिल्ला , पट्टी इद्वाल्स्युं
 छटी ग्या कुयेडी पुरणी  ,चमक चौछ्व्डी घाम
 आ  हा पैदा व्हाई सिरालीऽम   , गढ़  कवि एक महान
  भै  बंधो ,गढ़  कवि एक महान 

 खिल्दा फूल  हंसदा पात ,रुमझुम बरखणी बरखा आज
खित खित हैसणु डांडीयूँ  मा द्याखा , दंतुडी दिखान्द  चौमास
बांजी  पुंगडी  चलदा व्हेंगी , इन्न आई गढ़ स्यारौं मा मौल्यार
भै  बंधो ,इन्न आई गढ़ स्यारौं मा मौल्यार


डालियुं मा चखुली  बसणी छाई , बस्णु  छाई कक्खी कफ्फु हिलांस
 मोरणी छाई मातृ भाषा , करण कैल अब म्यारू  थवांस
कै से करण  आज आश मिल ,छीं दिख्याँ दिन अर  तपयाँ घाम
भै  बंधो ,छीं दिख्याँ दिन अर  तपयाँ घाम

दीबा व्हेय ग्या  दैणी फिर  ,व्हेय ग्या दैणु जय बद्री नरैण
प्रकट व्हेग्या लाल हिमवंत कु , प्रकट व्हेय ग्याई कवि ललित महान
भै  बंधो , प्रकट व्हेय ग्याई कवि ललित महान

कलम प्लायी इन्ह उन्ल तब ,सर सर चलैं  व्यंग बाण
लस्स लुकाई मुखडी अंध्यरऽल , पैटाई जब गढ़ गंगा ज्ञान
प्रकट कै दयाई  भड  गंगू रमोला ,प्रकट कै दयाई हरी हिंदवाण  ,
भै  बंधो , प्रकट कै दयाई हरी हिंदवाण  ,

टूट्ट ग्यीं  मायाऽक जाल पुरणा सब , तिडकीं पुरणा बिम्ब
छौंक लगाई ढौऽल पुरैऽक कविता कु तब  ,  छोलिक  किस्म किस्म
ऽक  रंग
मच  ग्याई जंग असलियात की  तब   ,जब  ध्वलीं   मर्चण्या  व्यंग ,
भै  बंधो ,जब  ध्वलीं मर्चण्या  व्यंग


 भूख  मिटै  बरसूँ की  मेरी ललित तिल्ल  मिटै  साखियुंऽक  तीस
खुश  व्हेयऽक सरस्वती तब्ब  , दिन्द यू  शुभ आशीष
 मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव !  अजर अमर  करयाँ   त्वे थेय जगदीश
 मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव ! अजर अमर  करयाँ   त्वे थेय जगदीश
 मातृ भाषा की सेवा मा हे गढ़ गौरव ! अजर अमर  करयाँ   त्वे थेय जगदीश |

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित

Sunday, May 20, 2012

विश्व प्रसिद्ध कवियौं की कवितायें ( गढ़वाली अनुवाद ) : 5 सुमित्रानंदन पन्त की कविता

सुमित्रानंदन पन्त की कविता पहाड़ मा बस्गाल   (गढ़वाली अनुवाद )  

जन्म दिवस पर प्रकृति के सुकुमार कवि को समर्पित ,गढ़वाली अनुदित उनकी एक रचना

 अनुवादक : गीतेश सिंह नेगी 

 

विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि  कविताएँ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ;

 

 

 




पर्वत प्रदेश में पावस

पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।

मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,

-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!

गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में लनस-नस उत्‍तेजित कर
मोती की लडि़यों सी सुन्‍दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!

गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
है झॉंक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।

उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार वारिद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!

धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल

( सुमित्रानंदन पन्त )
      


पहाड़ मा बस्गाल 

(गढ़वाली अनुवाद ) 

बस्गल्या मैना छाई ,छाई पहाड़ी देश
सर सर बदलणी  छाई प्रकृति  अप्डू भेष !

करद्वडी जन्न  पहाड़ चौदिश
फूलूं सी आंखियुं थेय खोलिक अप्डी हज़ार  
देख्णु छाई भन्या  बगत बगत
  पाणि मा अप्डू  बडू अकार


जैका खुट्टौं  मा सैन्त्युं च ताल
 दर्पण सी फैल्युं  चा  विशाल


गैकी गीत गिरि  गौरवऽका 
उक्सैऽकि नशा मा नस नस
मोतीयुं  क़ि माला सी सुन्दर
खतैणा छीं गाज भोरिक छंछडा झर झर

उठ उठिक छातीम पहाड़ऽक
डाली लम्बी लम्बी जन्न आशऽक
 झकणा  छीं शांत असमान फर
 अन्ध्यरु ,अटल ,कुछ चिंता फर |

उडी ग्याई ,ल्यावा अचाणचक्क ,पहाड़
फड्डकीं जब पंखुडा बड़ा बड़ा बादल
सन्न रै ग्यीं छंछडा फिर
सरग चिपट ग्याई धरती फर जब  !


धसिक ग्याई धरती मा डैरिक सान्दण
उठणु च धुऑं ,हल्ये ग्याई दयाखा ताल
सलका डबका दगड बदलौं का
इंद्र खेल्दु  छाई अप्डू इंद्र जाल  |


( गढ़वाली अनुवाद : गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित )


विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि  कविताएँ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ; विश्व प्रसिद्ध कवियौं क़ि कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ; ..........क्रम जारी

 

Friday, May 18, 2012

Poems on subject of World war विश्व युद्ध अर कविता : अनुवाद 2


 

Translation of Poems on  subject of  World war

Translation By Geetesh singh Negi


Notes on Translation of a Poem based on world war ; Translation of a Poem based on world war  by an Asian translator; Translation of a Poem based on  World war by a south Asian translator;  Translation of a Poem based on  World war by an SAARC countries translator; Translation of a Poem based on  World war by an Indian subcontinent  translator;  Translation of a Poem based on  World war by an Indian  translator; Translation of a Poem based on  World war by a North Indian  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Himalayan  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Mid-Himalayan  translator; Translation of a Poem based on World war by an Uttarakhandi  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Kumauni  translator; Translation of a Poem based on World war by a Garhwali  translator

युद्ध विभीषिका पर कविताएँ; युद्ध विभीषिका पर कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; युद्ध विभीषिका पर कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ;


                                                       विश्व युद्धऽक कवियौं कि कविता
                        
सिगफ्राईड सैसून कि कबिता (गढ़वाली अनुवाद ) : 2
  
The Survivors

No doubt they'll soon get well; the shock and strain
  Have caused their stammering, disconnected talk.
Of course they're 'longing to go out again,'--
  These boys with old, scared faces, learning to walk.
They'll soon forget their haunted nights; their cowed
  Subjection to the ghosts of friends who died,--
Their dreams that drip with murder; and they'll be proud
  Of glorious war that shatter'd all their pride...
Men who went out to battle, grim and glad;
Children, with eyes that hate you, broken and mad. 

( Siegfried Sassoon)


                       
 जू बच ग्यीं


कुई शक नी च व्हेय जाला वू दुबरा एकदम ठीक ,सदमा अर तनाव से
उंकी लडखडान्दी अर अलझीं  छुईं बत्था
        बिलकुल वू तरसणा छीं भैर जाण खुण
दगड दाना अर डरोंण्या मुख  सिखणा छीं हिटणु  इह नौना
       सर्र   बिसिर जाला वू अप्डी त्रस्त  डरोंण्या रातौं थेय ,
मोरयां दगडीयूँ का  भूतों का दगडू  थेय ,
        दगड कत्ल  का टपकदा  उंका स्वीणा ,अर उ फक्र करला
शानदार लडै फर जैन्ल ख़तम कैर  द्याई उन्कू सरया हंकार
         आदिम , जू चलीं ग्यें लडै मा , छीं गंभीर अर खुश
 नफरात करद  आंखि त्वे से  ,  दुखी  अर बोल्या बच्चों क़ि 


             ( The Survivors  कु गढ़वली अनुवाद  )     

अनुवादक : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित 

 

 Translation of Poems on  subject of  World war


Notes on Translation of a Poem based on world war ; Translation of a Poem based on world war  by an Asian translator; Translation of a Poem based on  World war by a south Asian translator;  Translation of a Poem based on  World war by an SAARC countries translator; Translation of a Poem based on  World war by an Indian subcontinent  translator;  Translation of a Poem based on  World war by an Indian  translator; Translation of a Poem based on  World war by a North Indian  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Himalayan  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Mid-Himalayan  translator; Translation of a Poem based on World war by an Uttarakhandi  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Kumauni  translator; Translation of a Poem based on World war by a Garhwali 
translator 

continued ....






युद्ध विभीषिका पर कविताएँ; युद्ध विभीषिका पर कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; युद्ध विभीषिका पर कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ;

Poems on subject of World war विश्व युद्ध अर कविता : अनुवाद एवम आलेख : 1


 

Translation of Poems on  subject of  World war

Translation By Geetesh singh Negi


Notes on Translation of a Poem based on world war ; Translation of a Poem based on world war  by an Asian translator; Translation of a Poem based on  World war by a south Asian translator;  Translation of a Poem based on  World war by an SAARC countries translator; Translation of a Poem based on  World war by an Indian subcontinent  translator;  Translation of a Poem based on  World war by an Indian  translator; Translation of a Poem based on  World war by a North Indian  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Himalayan  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Mid-Himalayan  translator; Translation of a Poem based on World war by an Uttarakhandi  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Kumauni  translator; Translation of a Poem based on World war by a Garhwali  translator


युद्ध विभीषिका पर कविताएँ; युद्ध विभीषिका पर कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; युद्ध विभीषिका पर कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ;





विश्व युद्ध अर कविता

कब्भी यु जरूरी हुन्द
ता कब्भी नि भी हुन्द
कब्भी यु हमरी भारी  रक्षा करद
ता  कभी कम
कब्भी यु हुन्द न्यौ  अर सच का बाना
कभी हुन्द पैदा झूठ से
ता कब्बी निकज्जू  नेतौं  की घमंडी भूख से

लडै कु कारण चाहे  कुछ भी हो ,सच -झूठ , न्यौ - इन्साफ ,अपडा लोगौं अपडा   मुल्क अप्डी कौम की रक्षा , लोभ , या फिर दुनिया मा अप्थेय बडू अर ताकतवर साबित करणा की राजनैतिक  जिद  या फिर कूट नीतिक चाल |    लडै मा शामिल चाहे कुई  भी हो अमीर गरीब ,छोट्टू बडू ,लाचार मजबूर ,मन्न से  या फिर बेमन्न से ,धरम का नौ फर या इंसानियत का नौ से - लडै  का परिणाम ता आखिर सब खुण  एक जन्नू ही हुन्द |

जब लडै लग जान्द ता दुनिया कु काम काज करणा कु तरीका अर मकसद अर सोच सब  बदल जन्दी ,हल्या हैल  छोड़ दिन्द अर बन्दुक पकड़ दिन्द ,स्कूलया स्कूल छोडिक फौजी वर्दी मा आ जन्दी ,कवि किसा  मा कलम अर कांधी मा  बन्दुक लेकी  चलणा  कु मजबूर  व्हेय जान्द या फिर इनंह  समझा की भारी मन्न से ही सै पर  वी भी एक हिस्सा बण जांद इन्ह लडै  कु | जू कवि ब्याली  तक बन्नी  बन्नी का फुलौं मा अप्डी सुवा कु रंग रूप खुज्यांदु  छाई , जू चखुलीयूँ ,गाड गद्नियूं ,दीवार  ,कुलैं अर किस्म किस्म की  डालियुं मा अप्डी सुवा की चलक - बलक  वींकी मूल मूल हैन्स्दी मुखडी  देख्दु छाई ,जू गदिन्यौं  का पाणी सी समोदर मा समाणा की  आस लगैक  अप्डी कलम चलन्दु छाई ,अपडी जिकुड़ी का प्रेम भाव इन् खत्दु छाई जन्न बस्गाल मा सरग पाणी बरखांद ,जन्न ह्युंद मा सुबेर घाम हिम्वली डांडीयूँ  मा फैलैंद पर लडै मा   वू अब मजबूर व्हेय जान्द दुःख अर दर्द का गीत लिख्णु कु ,उन् ता कवि कु असल काम ये बगत मा अपडा मुल्क मा  वीर रस की गंगा बगाण हुन्द पर जब सरया दुनिया आगऽल हलैणी व्ह़ा  अर एक मनखी दुस्सर मनखी की लोई पीणा कु तयार बैठ्युं व्ह़ा ,चौदिश लोई मा भोरयां हथ - मुंड -खुट्टा पोडयाँ व्ह़ा ता वेकि कलम मा बगता का दगड  लडै का तजुर्बा का हिसाब से वीर रस की स्याई  सुखदा जान्द अर  कल्कालू  रस का
गदना खतैण  बैठ जन्दी अब कवि थेय फुलौं की मौल्यार  अर बाश का बदल बारूदऽक  गंद आन्द ,वू  लाल -पिंगला रंग देखि की सुवा की मुखडी या बुरंशी या  फ्योंली का फूल नी सम्लांदु ,इन् मा वे थेय खून से लतपत ज्वानौं की मुखडी या फिर परेशान , डरयाँ मनख्यूं की पिंगली मुखडी ही दिखेंद | किलै कि बूलै जान्द की कवि अर लिख्वार समाज कु दर्पण हुन्दी इलै एक कवि अर लिख्वार कि या नैतिक जवाबदरी  हुन्द कि वू  लडै कु खरु  सच लडै कि असल पीड़ा अर अप्डी  खैर थेय सरया दुनिया मा मिसाव ताकि वेक चराह दुनिया बी  समझ  साक कि लडै से कब्बी मनख्यात  थेय फैदा नी हुंदू |

इतिहास साक्षी च कि जब जब दुनिया मा लडै लग्ग , बौंल फ़ैल ,अत्याचार व्हाई ,अपराध व्हाई कलम का यूँ सिपैयुंऽल सच दुनिया का समिणी उन्ही धैर द्याई  जन्न कि वू छाई |
दुनिया मा मची ये बगता कि   सबसे खतरनाक लडैऽम भटेय  एक  - विश्व युद्ध  ज्यां से सरया दुनिया कु  नुकसान त  व्हाई च पर सबसे ज्यादा छैल छट्टी मनख्यात कि लग्गीं | विश्व युद्ध कि इन्ह लडैऽमा बड़ा बड़ा कवियुं अर लिख्वारौं हिस्सा ल्याई , पर अच्छी बात या चा कि यूँ लिख्वारौंऽल सब्बी दुःख दर्द सैं ,कन्धा मा बन्दुक धैरिक भी युन्ल कलम नी छ्वाडि अर दुनिया मा लडै  कु असल मुंड मुख दिखै |यूँ कवियुं मा रुडयार्ड किपलिंग ,वर्ड्स वर्थ ,वेरा ब्रिटेन ,थोमस हार्डी ,एडवर्ड थोमस ,सिगफ्राईड सैसून ,रोबेर्ट निकोल्स ,मुरिएल स्टुवर्ट ,चार्ल्स सोरले ,हेनरी न्युबोल्ट ,ऐलन सीगर ,कैथरीन ,इवोर गुरने ,विल्फ्रेड ओवेन ,ओवेन सीमैन ,रोबेर्ट ग्रवेस अर झणी कत्गा ज्ञात अज्ञात नौ छीं ,झणी कत्गा कलम लडै मा सुख ग्ये होली अर झणी कत्गौं  कि कलम लडै का मैदान मा कक्खी  पत्डेय ग्ये होली  |

विश्व युद्ध का तजुर्बौं थेय  कतगे कवियौंऽल कबिता संग्रे का रूप मा तमाम  दुनिया  तक पहुँचाई | यूँ मा सबसे पहलु अर खास नौ विल्फ्रेड ओवेन , सिगफ्राईड सैसून ,एडवर्ड थोमस अर वोर्ड्स वर्थ  कु आन्द |

  विश्व युद्धऽक बाबत छप्यां कुछ खास कबिता  संग्रे  : वोर्ड्स वर्थ बुक आफ फर्स्ट वर्ल्ड वार पोएट्री (मार्केस  क्लाफाम सम्पादित ) , विल्फ्रेड ओवेन्सऽक  द  पोयम्स ऑफ़ विल्फ्रेड ओवेन्स  ,रुपर्ट  हार्ट -डेविस संग्रहित सिगफ्राईड सैसूनऽक   ११३  कबितौं कु संग्रे द वार पोएम्स ,जीन मूर्क्रोफ्त विल्सन सम्पादित  सिगफ्राईड सैसून : मेकिंग  आफ ए वार पोएट भाग १, पैट्रिक  कैम्पबेल सम्पादित : सिगफ्राईड सैसून : ए स्टडी  आफ द वार पोएट्री ,अर एडवर्ड थोमस  कि कबितौं का द्वी संग्रे ख़ास मनै  जन्दी येका अलावा जोंन स्टालवोर्थी सम्पादित वार पोयम्स आफ विल्फ्रेड ओवेन्स , डेविड  रोबेर्ट सम्पादित आउट इन द डार्क - पोएट्री ऑफ़ फर्स्ट वर्ल्ड वार   जैंमा विल्फ्रेड ओवेन  कि २० कविता अर सैसून कि २७ कबिता संग्रहित छीं , माइंड्स ऐट वार : पोएट्री एंड एक्सपिरिएंस ऑफ़ द  फर्स्ट वर्ल्ड वार   जैम डेविड  रोबेर्ट सम्पादित ८० कवियौं कि २५० कबिताऔं कु संग्रे चा ,विवियन नोएयस सम्पादित वोइसिस आफ साईलेंस : द अल्टरनेटिव  बुक ऑफ़ फर्स्ट वर्ल्ड वार पोएट्री ,क्रिस्टोफर  मार्टिन संपादित  वार  पोयम्स कुछ और संग्रे छीं |



 
                                      विश्व युद्धऽक कवियौं कि कविता
                        
सिगफ्राईड सैसून कि कबिता (गढ़वाली अनुवाद ) : १



















 सिगफ्राईड सैसून  कु जलंम ८ सितम्बर १८८६ मा केंट मा व्हाई छाई ,उंल  कैम्ब्रिजऽक  क्लारे कॉलेज मा दाखिला ल्याई पर अधा मा ही कॉलेज छोड़ द्याई  वर्ल्ड वार का बगत वू  कैवेलेरी मा भर्ती व्हेय ग्याई अर १९१५ मा अफसर बणिक फ़्रांसऽक पछिमी सीमा मा भेज्ये ग्याई ,१९१६ मा उन्थेय सैन्य चक्र   भी मिल | फ्रांस मा वेकि भेंट विल्फ्रेड ओवेन अर रोबेर्ट ग्रवेस जन्न  कवियौं दगड व्हाई |१९१७ मा लडै मा घैल हूंण  से वे थेय घार वापिस भेज्ये ग्याई | वू ब्रिटेन अर ताकतवर मुल्कौं कि लडै थेय लम्बू खिच्णा कि कूटनीति से इत्गा परेशान छाई कि वेल एक खिलाफत मा एक घोषणापत्र छपा द्याई छाई | युद्ध का प्रति वेकि नफरात वेकि कवितौं मा साफ़ झलकैंद वेल अफसरों  कि लापरवाही अर मनख्यात विरोधी भावना का खिलाफ अप्डी कबितौं मा व्यंग  रूपी हथियार से भारी भारी चोट करीं अर जब इ कबिता द ओल्ड हंट्स मैंन (१९१७) अर काउंटर अटैक (१९१८ )    मा  छपीं ता भारी हंगामा व्हेय पर वेल विद्रोल  का बाद भी ओवेन अर रोबेर्ट ग्रवेस जन्न मनख्यात का पक्ष मा वैचारिक लडै नी  छोड़ी  अर  मेमोइर्स आफ फोक्स हंटिंग मैंन (१९२८ ) ,ममोइर्स ऑफ़ इन्फैंट्री ऑफिसर  (१९३० ) , शेरस्टनस प्रोगरेस (१९३६ ) ,द ओल्ड सेंचुरी (१९३८ ) ,द वेअल्ड ऑफ़ यूथ (१९४२ ) अर सिगफ्राईडस जर्नी (१९४५ )   लेखिक अप्डू तजुर्बा अर विरोध दुनिया का समिण धैर द्याई  |


मन्खियात का बाना संघर्ष करद करद कलम कु यु सिपै १९६७ मा सदनी खुण चिर निंद्रा मा ख्वे ग्याई अर रै ग्याई ता बस वेकु विश्व युद्धऽक तजुर्बा अर मन्खियात का पक्ष मा आखिर सांस तक  कै भी हालत मा लडै लड्नैक वेकि प्रेरणा |



How to Die


Dark clouds are smouldering into red
While down the craters morning burns
The dying soldiers shifts his head
To watch the glory that returns ;
He lifts his fingers towards the skies
Where holy brightness breaks in flame ;
Radiance reflected in his eyes ,
And on his lips whispered name 

You'd think , to hear some people talk 
That lads go west with sobs and curses ,
And sullen faces as chalk 
Hankering for wreaths and tombs and hearses .
But they 've been  taught the way to do it 
Like christian soldiers ; not with haste
And shuddering groans ; but passing through it 
With due regard for decent taste
  

( Siegfried Sassoon)



 " कन्न कैऽ मोरंण  "

सुलगणा छीं काला बादल लल्नगा व्हेकि

 अर फुकेणि च   सुबेर  ज्वालामुखी का मूड

कटा दिन्द  अप्डू मुंड घैऽल  सिपै

देखणा  कु शान जू आन्द बोडिक

उठैकी अप्डी अंगुली  असमान जन्हे

पैदा हुन्द जक्ख पवित्र लौं  मा   चमक  

अर चमकद आँखौं मा

अर वेक उठ्डियौं मा खुप्स्यानद  एक नौऽ
तुम सोचिला  ,सुणणा  व्हेला  कुछ लोगों थेय  बच्यांद

क़ि जन्दी  पछिम  जन्हे  बिल्खदा अर फिटगरयाँ  ज्वाँन

अर उदास  खढैऽय सी मुखडी   उंकी  

 
तयार  फूल-मालौं ,कब्रौं अर ताबूत सरण वाली गाडीयूँ  खुण

क़िलैय क़ि   उन्थेय सिखये ग्याई ,इन्ही करणु

इसै सिपैयूँ का जन्न , जल्दबाजी मा ना

दगड झरझर कौम्पद ,  पर वे थेय पुरयाणु

शौक  से पुरु ध्यान लगैऽक

( How to Die कु गढ़वली अनुवाद  )


अनुवादक : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित 

 

 Translation of Poems on  subject of  World war


Notes on Translation of a Poem based on world war ; Translation of a Poem based on world war  by an Asian translator; Translation of a Poem based on  World war by a south Asian translator;  Translation of a Poem based on  World war by an SAARC countries translator; Translation of a Poem based on  World war by an Indian subcontinent  translator;  Translation of a Poem based on  World war by an Indian  translator; Translation of a Poem based on  World war by a North Indian  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Himalayan  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Mid-Himalayan  translator; Translation of a Poem based on World war by an Uttarakhandi  translator; Translation of a Poem based on  World war by a Kumauni  translator; Translation of a Poem based on World war by a Garhwali 
translator 

continued ....


युद्ध विभीषिका पर कविताएँ; युद्ध विभीषिका पर कविताओं का एशियाई अनुवादक का अनुवाद ; युद्ध विभीषिका पर कविताओं का दक्षिण  एशियाई अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का उत्तर भारतीय  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का मध्य हिमालयी  अनुवादक का अनुवाद ;युद्ध विभीषिका पर कविताओं का गढ़वाली  अनुवादक का अनुवाद ;