हिमालय की गोद से

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बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Tuesday, May 17, 2011

इतिहास के झरोखों से



इतिहास के झरोखों से : उत्तराखंड क़ी बीर गाथाएं (राजा धामदेव क़ी " सागर ताल गढ़ " विजय गाथा )


देवभूमि उत्तराखंड अनादि काल से ही वेदों , पुराणों ,उपनिषदों और समस्त धर्म ग्रंथों में एक प्रमुख अध्यात्मिक केद्र के रूप में जाना जाता रहा है | यक्ष ,गंधर्व ,खस ,नाग ,किरात,किन्नरों की यह  करम स्थली  रही है तो भरत जैसे प्राकर्मी और चक्रवर्ती  राजा की यह जन्म और क्रीडा स्थली रही है | यह प्राचीन  ऋषि मुनियों - सिद्धों की तप  स्थली भूमि रही है | उत्तराखंड एक और जहाँ  अपने अनुपम प्राक्रतिक  सौंदर्य के कारण  प्राचीन काल से ही मानव जाति को को  अपनी  आकर्षित तो करता रहा है तो वहीं दूसरी और केदारखंड और मानस खंड (गढ़वाल  और कुमौं ) इतिहास के झरोखों में  गढ़ों और भड़ों  की ,बलिदानी वीरों की जन्मदात्री भूमि भी कही ज़ाती रही  है | महाभारत युद्ध में इस  क्षेत्र के   वीर राजा सुबाहु (कुलिंद का राजा ) और हिडिम्बा पुत्र घटोत्कच का और अनेकों  ऐसे राजा- महाराजाओं का  वर्णन मिलता है जिन्होने कौरवों और पांडवों की और से युद्ध लड़ा था | नाग वीरों में यहाँ वीरंणक नाग (विनसर के वीर्नैस्वर भगवान ) ,जौनसार के महासू नाग (महासर नाग ) जैसे वीर आज भी पूजे जाते हैं | आज भी इन्हे पौड़ी -गढ़वाल में  डांडा  नागराजा  ,टिहरी में सेम मुखिम,कुमौं शेत्र में बेरी -  नाग ,काली नाग ,पीली नाग ,मूलनाग, फेर्री नाग ,पांडूकेश्वर में  में शेषनाग ,रत्गौं में भेन्कल नाग, तालोर में सांगल नाग ,भर गोवं  में भांपा  नाग तो नीति  घाटी में लोहान देव नाग और दूँन  घाटी में नाग सिद्ध का बामन  नाग अदि नाम से पूजा जाता है |जो प्राचीन काल में नाग बीरो कि वीरता परिभाषित करता है | बाडाहाट (उत्तरकाशी) कि बाड़ागढ़ी   के नाग बीरों कि हुणो पर विजय का प्रतीक   और खैट   पर्वत कि अन्चरियों कि गाथा (७ नाग पुत्रियाँ जो हुणो के साथ अंतिम साँस तक  तक संघर्ष  करते हुए वीरगति  का प्राप्त हो गयी थी ) आज भी " शक्ति  त्रिशूल "के रूप में आज भी नाग वीरों क़ी  वीरता क़ी गवाही देता है तो गुजुडू  गढ़ी का गर्जिया  मंदिर गुर्जर और प्रतिहार वंश के वीरों का शंखनाद करता है | यूँ तो देवभूमि वीर भड़ो और गढ़ों क़ी भूमि होने के कारण अपनी हर चोटी हर घाटी में वीरों क़ी एक गाथा का इतिहास लिये हुए है जिनकी दास्तान आज भी यहाँ के लोकगीतों ,जागर गीतों आदि के रूप में गाई ज़ाती है यहाँ आज भी इन् वीरों को यहाँ आज भी  देवरूप में पूजा जाता है |



उत्तराखंड के इतिहास में नाथ- सिद्ध प्रभाव प्रमुख भूमिका निभाता है क्यूंकि कत्युरी   वंश के राजा  बसंत देव (संस्थापक राजा )  क़ी नाथ गुरु  मत्स्येन्द्र  नाथ (गुरु गोरख नाथ के गुरु ) मे आस्था थी |१० वी शताब्दी में इन् नाथ  सिद्धों ने कत्युर वंश में अपना प्रभाव देखते हुए नाथ  सिद्ध नरसिंह देव (८४ सिद्धों मे से एक )  ने कत्युर वंश के राजा से  जोशीमठ राजगद्दी  को दान स्वरुप प्राप्त कर उस पर गोरखनाथ क़ी पादुका रखकर ५२ गढ़ूं के भवन नारसिंघों क़ी नियुक्ति क़ी जिनका उल्लेख नरसिंह वार्ता में निम्नरूप से मिलता है   :



वीर बावन  नारसिंह -दुध्याधारी नारसिंह ओचाली  नरसिंह कच्चापुरा नारसिंह नो तीस  नारसिंह -सर्प नो वीर नारसिंह -घाटे  कच्यापुरी  नरसिंह - -चौडिया नरसिंह- पोडया नारसिंह - जूसी  नारसिंह -चौन्डिया  नारसिंह कवरा नारसिंह-बांदू  बीर  नारसिंह- ब्रजवीर नारसिंह खदेर वीर नारसिंह - कप्पोवीर नारसिंह -वर का वीर नारसिंह -वैभी नारसिंह घोडा नारसिंह तोड्या नारसिंह -मणतोडा  नारसिंह चलदो नार सिंह - चच्लौन्दो   नारसिंह ,मोरो  नारसिंह लोहाचुसी  नारसिंह मास भरवा नारसिंह ,माली  पाटन नारसिंह पौन घाटी नारसिंह केदारी नारसिंह खैरानार सिंह सागरी नरसिंह ड़ोंडिया नारसिंह बद्री का पाठ थाई -आदबद्री छाई-हरी हरी द्वारी नारसिंह -बारह हज़ार कंधापुरी को आदेश-बेताल घट  वेल्मुयु भौसिया -जल मध्ये नारसिंह -वायु मध्ये  नार सिंह वर्ण मध्ये  नार सिंह   कृष्ण अवतारी नारसिंह घरवीरकर नारसिंह रूपों नार सिंह पौन धारी नारसिंह जी सवा गज फवला  जाणे-सवा मन सून की सिंगी जाणो तामा पत्री जाणो-नेत पात की झोली जाणी-जूसी मठ के वांसो  नि पाई  शिलानगरी को वासु  नि पाई (साभार सन्दर्भ डॉ. रणबीर  सिंह चौहान कृत " चौरस   की धुन्याल से " , पन्ना १५-१७)   

   
     

इसके साथ नारसिंह देव ने अपने राजकाज   का संचालन करने और ५२ नारसिंह  को मदद करने हेतु  ८५ भैरव भी  नियुक्त  स्थापित किये इसके अलावा कईं  उपगढ़ भी स्थापित   किये   गए जिनके बीर भडौं गंगू रमोला,लोधी रिखोला  ,सुरजू कुंवर ,माधो सिंह भंडारी ,तिलु रौतेली ,कफ्फु चौहान आदि के उत्तराखंड में आज भी जागर गीतौं -पवाड़ों  में यशोगान होता है |

                                                                     

                                        " सागर ताल गढ़ विजय गाथा "



इन्ही गढ़ों में से एक "सागर ताल गढ़ " गढ़ों के इतिहास में प्रमुख  स्थान रखता है जो कि भय-संघर्ष और विजय युद्ध रूप में उत्तराखंड के भडौं कि बीरता का साक्षी रहा है जो कि सोंन  नदी और रामगंगा के संगम पर कालागढ़ (काल का गढ़ ) दुधिया चोड़,नकुवा ताल आदि नामों से भी जाना जाता है | तराई -भावर का यह क्षेत्र तब माल प्रदेश के नाम से जाना  जाता था | उत्तराखंड के प्रमुख कत्युरी इतिहासकार डॉ० चौहान    के अनुसार यह लगभग दो सो फीट लम्बा   और लगभग इतना ही चौड़ा टापू पर बसा एक सात खण्डो का गढ़ था जिसके  कुछ खंड जलराशि में मग्न थेय  जिसके अन्दर ही अन्दर खैरा-  गढ़ (समीपस्थ  एक प्रमुख  गढ़ ) और रानीबाग़ तक सुरंग बनी हुयी थी | स्थापत्य   कला में  में सागर ताल गढ़ गढ़ों में   जितना अनुपम था उतना ही भय और आतंक के लिये भी जाना जाता था | सागर ताल गढ़ गाथा का प्रमुख  नायक  लखनपुर के कैंतुरी राजा  प्रीतम देव(पृथिवी पाल  और पृथिवी शाही आदि नामों से भी जाना जाता है ) और मालवा से हरिद्वार  के समीप आकर बसे  खाती क्षत्रिय राजा झहब राज कि सबसे छोटी पुत्री मौलादई (रानी जिया और पिंगला रानी आदि नाम  से भी जानी ज़ाती है  ) का नाथ सिद्धों और  धाम  यात्राओं के पुण्य से उत्पन्न प्रतापी पुत्र   धामदेव था | रानी जिया धार्मिक स्वाभाव कि प्रजा कि जनप्रिय रानी थी ,चूँकि रानी जिया के अलावा राजा पृथिवी पाल   कि अन्य बड़ी रानिया भी थी जिनको धामदेव के पैदा होते ही रानी जिया से ईर्ष्या होने लगी | धीरे धीरे धामदेव बड़ा होने लगा | उस समय माल-सलाँण अक्षेत्र   के सागर ताल गढ़ पर नकुवा और समुवा का बड़ा आतंक रहता था जो सन् १३६०-१३७७ ई ०   के मध्य  फिरोज तुगलक के अधीन आने के कारण  कत्युरी राजाओं के हाथ  से निकल गया था जिसके बाद से समुवा मशाण जिसे साणापुर (सहारनपुर ) कि " शिक" प्रदान कि गयी थी का   आंतंक चारो तरफ छाया हुआ था ,समुवा स्त्रियों  का अपरहण करके सागरतल गढ़ में चला जाता था ,और शीतकाल में कत्युरी राजाओं  का भाबर  में पशुधन  भी लुट लेता था , चारो और समुवा समैण  का आतंक मचा रहता था |



इधर कत्युरी राजमहल में रानी जिया और धाम देव के विरुद्ध  बाकी रानियौं द्वारा साजिश का खेल सज रहा था | रानियों ने धामदेव को अपने रास्ते से हटाने कि चाल के तहत राजा पृथ्वीपाल  को पट्टी पढ़ानी  शुरू कर दी और   राजपाट के  के बटवारे में रानीबाग से सागरतल गढ़ तक का भाग रानी जिया को दिलवाकर और राज को मोहपाश में बांध कर धामदेव को सागर ताल गढ़ के अबेध गढ़ को साधने हेतु उसे  मौत के मुंह  में भिजवा दिया |



पिंगला रानी माता जिया ने गुरु का आदेश मानकर विजय तिलक कर पुत्र धाम देव को ९ लाख कैंत्युरी सेना और अपने मायके  के बीर भड ,भीमा- पामा कठैत,गोरिल राजा (जो कि गोरिया और ग्वील भी कहा जाता है और जो  जिया कि बड़ी बहिन  कलिन्द्रा  का  पुत्र था ),डोंडीया  नारसिंह और भेरौं शक्ति के वीर बिजुला नैक (कत्युर राजवंश कि प्रसिद्ध राजनर्तकी छ्मुना -पातर का पुत्र ) और निसंग महर सहित सागर ताल गढ़  विजय हेतु प्रस्थान का  आदेश दिया |



धाम कि सेना ने सागर ताल गढ़ में समुवा को चारो और से घेर लिया ,इस बीच धामदेव को राजा पृथ्वीपाल कि बीमारी का समाचार मिला और उसने निसंग महर को सागर ताल को घेरे रखने कि आज्ञा देकर लखनपुर कि और रुख किया और रानियों को सबक सिखाकर लखनपुर कि गद्धी कब्ज़ा कर वापिस सागर ताल गढ़ लौट आया जहाँ समुवा कैंत्युरी सेना के भय से सागर ताल गढ़ के तहखाने में घुस गया था | ९ लाख  कैंत्युरी  सेना के सम्मुख

अब समुवा समैण छुपता फिर रहा था | गढ़ के तहखानों में भयंकर  युद्ध छिड़ गया  था और  खाणा और कटारों  कि टक्कर से सारा सागर ताल गढ़ गूंज उठा था |युद्ध में समुवा समैण मारा गया नकुवा को गोरिल ने जजीरौं  से बाँध दिया  और जब बिछुवा कम्बल ओढ़ कर भागने लगा तो धाम देव ने उस पर कटार से  वार कर उसे घायल कर दिया |चारो और धामदेव कि जय जयकार होने लगी | जब धामदेव ने गोरिल से  खुश होकर कुछ मागने  के लिये कहा तो गोरिल ने अपने पुरुष्कार में कत्युर कि राज चेलियाँ मांग ली जिससे धामदेव क्रुद्ध हो गया और गोरिल नकुवा को लेकर भाग निकला परन्तु भागते हुए धाम देव के वर से उसकी टांग घायल  हो गयी  थी | गोरिल ने नुकवा को लेकर खैरा  गढ़ कि खरेई पट्टी के सेर बिलोना  में कैद कर लिया जहाँ धामदेव से उसका फिर युद्ध हुआ और नकुवा उसके हाथ से बचकर धामदेव कि शरण  में आ गया और अपने घाटों  कि रक्षा का भार देकर धामदेव ने उसे प्राण दान दे  दिया  परन्तु बाद में जब नकुवा फिर अपनी चाल पर आ गया तो न्याय प्रिय  गोरिया (गोरिल )  ने उसका वध कर दिया  |



सागर ताल गढ़ विजय  से धामदेव कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल चुकी थी और मौलादेवी अब कत्युर वंश कि राजमाता मौलादई के नाम से अपनी कत्युर का राज चलाने  लगी | धामदेव को दुला शाही  के नाम से भी जाना जाता था वह कत्युर का मारझान (चक्रवर्ती ) राजा था और उसकी राजधानी वैराठ-लखनपुर थी उसके राज में सिद्धों का पूर्ण  प्रभाव  था और दीवान पद पर महर जाति के वीर   ,सात भाई निन्गला कोटि और सात भाई पिंगला कोटि  प्रमुख थे |



धामदेव अल्पायु में कि युद्ध करते हुए शहीद  हो गया था परन्तु उसकी सागर ताल गढ़ विजय का उत्सव आज भी उसके भगत जन धूमधाम से मानते है वह कत्युर वंश में प्रमुख  प्रतापी राजा था जिसके काल को कत्युर वंश का स्वर्ण काल कहा जाता है जिसमे अनेकों मठ मंदिरों का निर्माण हुआ ,पुराने मंदिरों को जीर्णोद्धार किया गया  और जिसने अत्याचारियों  का अंत किया |



वीर धाम देव तो भूतांगी होकर चला गया परन्तु आज भी सागर ताल  विजय गाथा उसकी वीरता का बखान करती है और कैंतुरी पूजा में आज भी उसकी खाणा और कटार पूजी ज़ाती है | कैंतुरी  वार्ता में "रानी जिया कि खली म़ा नौ लाख कैंतुरा  जरमी गयें " सब्द आज भी कैंतुरौं मैं जान फूंक कर पश्वा रूप में अवतरित हो जाता है और युद्ध सद्रश   मुद्रा में  नाचने लगता है धामदेव समुवा को मरने कि अभिव्यक्ति देते हैं तो नकुवा  जजीरौं  से बंधा होकर धामदेव से अनुनय विनय कि प्रार्थना करने लगता है तो विछुवा को  काले कम्बल से छुपा कर  रखा जाता है | इसके उपरान्त समैण पूजा में एक जीवित सुकर  को

गुफा में बंद कर दिया जाता है और रात में  विछुवा समैण को अष्टबलि   दी ज़ाती है जो कि घोर अन्धकार में सन्नाटे  में  दी ज़ाती है और फिर चुप चाप अंधेरे में गड़ंत करके बिना किसी से बात किये  चुपचाप आकर एकांत में वास  करते हैं और तीन दिन तक ग्राम  सीमा से बहार प्रस्थान नहीं करते अन्यथा समैण लगने का भय बना रहता है | धामदेव कि पूजा के विधान से ही समुवा कि क्रूरता और उस काल में उसके भय का बोध होता है | उसके बाद दल बल के सात  और शस्त्र और वाद्या  यंत्रों के सात जब गढ़ के समीप  दुला चोड़ में धामदेव कि पूजा होती है तो धामदेव का पश्वा और ढोल वादक गढ़ कि गुफाओं में दौड़ पड़ता  है   और तृप्त होने पर स्वयं जल से बहार आ जाता हैं उसके बाद बडे धूम धाम-धाम  से रानी जिया कि रानीबाग स्थित  समाधि "चित्रशीला " पर एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है |



अब इसे वीर भडौं कि वीरता का प्रभाव कहें या गढ़-कुमौनी वीरों  कि वीरता शोर्य और बलिदानी इतिहास लिखने कि परम्परा  या फिर मात्रभूमि के प्रति उनका अपार पर स्नेह ,कारण चाहे जो भी हो पर आज भी उत्तराखंडी बीर अपनी भारत भूमि कि रक्षा के लिये कफ़न बांधने वालौं  में सबसे आगे खडे नज़र आते है फिर चाहे  वह चीन के अरुणाचल सीमा युद्ध का "जसवंत बाबा " हो पाकिस्तान युद्ध के अमर शहीद ,या विश्व युद्ध के फ्रांस युद्ध के विजेता या  " पेशावर क्रांति " के   अग्रदूत  " वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली " ,या कारगिल के उत्तराखंडी रणबांकुरे  या अक्षरधाम और मुंबई हमलों में  शहीद म़ा भारती के अमर सपूत सब आज भी उसी   " वीर  भोग्या  बसुन्धरा " कि परम्परा का निर्वाहन कर रहे हैं |




संदर्भ ग्रन्थ :  उत्तराखंड के वीर भड , डा ० रणबीर सिंह चौहान
                    गढ़वाल के गढ़ों का इतिहास एवं पर्यटन के सौन्दर्य स्थल  ,डा ० रणबीर सिंह चौहान
                    ओकले तथा गैरोला ,हिमालय की लोक गाथाएं 
                    यशवंत सिंह कटोच -मध्य  हिमालय का पुरातत्व
विशेष आभार : डॉ. रणबीर सिंह चौहान, कोटद्वार  (लेखक और इतिहासकार ) ,माधुरी रावत जी
स्रोत :म्यार ब्लॉग हिमालय क़ी गोद से (गीतेश सिंह नेगी.सिंगापूर प्रवास से )


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