हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Saturday, May 7, 2011

इतिहास के झरोखों से

इतिहास के झरोखों से :  डोटी गढ़  का संक्षिप्त इतिहास और उसकी ऐतिहासिक और सामाजिक  महता

उत्तराखंड के जागर लोकगीत  और लोक गाथाएँ  स्वयं में अतीत के असंख्य ऐतिहासिक घटनाओं को  अपने गर्भ में समेटें हुए है जिनमे पुरातन हिमालयी संस्कृति के सर्जन और विघटन से भरे  असंख्य पन्ने समाये हुए है | ये लोकगीत इस हिमालयी  राज्य की सनातन संस्क्रति का उद्घोष  तो करते ही इसके साथ साथ एक ओर ये प्राचीन वीर भड़ो का यशोगान भी करते है तो वहीं दूसरी और ये लोकगीत और लोक गाथाएँ इतिहास प्रेमी  लोगौं के लिये काल चक्र परिवर्तन के रूप में अतीत  के अनछुए - बिखरे घटनाक्रम  को समझने - सजोने और एक विरासत के रूप में लोक इतिहास के क्रम में जोडने में  प्रमुख भूमिका निभाते आ रहे हैं  | 

इतिहासकारों के लिये भले ही ये ऐतिहासिक रूप से शोध के विषय हो परन्तु ये  समस्त लोकगीत और गाथाएँ उत्तराखंड के जनमानस के मानस पटल पर उनके असंख्य  आराध्य देबी-देबतौं   की आराधना -आह्वाहन  के मंत्रों ,लोकगीतों ओर साहित्यिक   धरोहर ओर  उनकी आस्था के बीज रूप में भी बिराजमान है और उनके समस्त सामाजिक क्रियाकलापौं,विवाह -पूजा संस्कारों , तीज -त्योहारौं,थोल म्यालौं आदि   में रच बस गए है |

इन्ही लोकगीत और लोक गाथाओं  विशेषकर गोरिल (ग्वील -गोलू -गोंरया  जो की चम्पावत  के  सूरज वंशी राजा झालराय का पुत्र  था और इतिहासिक काल में धामदेव -विरमदेव और हरु सेम के समकालिक  माना जाता है ) की गाथाओं और गीतों में  ,राजुला मालुशाही और गडु सुम्याल आदि में भी  डोटी गढ़ का अनेक बार उल्लेख    मिलता है | जो प्राचीन काल में डोटी गढ़ की इसकी ऐतिहासिक महता को सार्थक करता है |

डोटी शब्द  की उत्पति के सम्बन्ध  में दो  धारणायें व्यापत है | पहली धारणा के अनुसार इसकी उत्पति ‘Dovati’ ( which means the land area between the confluences of the two rivers ) sey  हुई है  जबकि दूसरी धारणा (DEVATAVI= DEV+AATAVI or AALAYA (Dev meaning the Hindu god and aatavi meaning the place of re-creation, place of attaining a meditation in Sanskrit) से इसकी उत्पति मानी गयी है |
 
डोटी गढ़ जो की नेपाल का एक सुदूर पश्चिम क्षेत्र है  , तथा उत्तराखंड के कुमौं  क्षेत्र की काली नदी तथा नेपाल की  कर्णाली नदी के बीच बसा है वर्तमान डोटी मंडल में नेपाल के सेती और महाकाली क्षेत्र के ९ जिल्ले कर्मश : धारचूला ,बैतडी ,डडेलधुरा ,कंचनपुर ( महाकाली में  ) और  डोटी,कैलाली,बझांग,बाजुरा और  अछाम  (सेती में )  हैं |

लोकगीतों ,लोककथाओं और उत्तराखंड और नेपाल के लोक इतिहास के अनुसार  डोटी गढ़ उत्तराखंड का  एक प्राचीन राज्य  था  जो सुदर नेपाल तक फैला हुआ था जो सन ११९१ तथा सन १२२३  में उत्तराखंड के  कत्युर राजवंश पर  खश  आक्रमण कारी अशोका- चल्ल और क्राचल्ल  देव आक्रमण के फलस्वरूप १३०० में स्थापित हुआ  ,अशोल चल बैतडी का ही महायानी बोध राजा (Atkinson  ,गोपेश्वर - बाड़ाहाट (उत्तरकाशी ) त्रिशूल अभिलेख )  था जबकि क्राचल्ल देव नेपाल के पश्चिम भाग डोटी का अधिपति था |
(दुलू ताम्रभिलेख  के अनुसार)  |

 डोटी  कत्युरौं के उन् ८ प्रमुख भागौं (बैजनाथ-कत्युर ,द्वाराहाट ,डोटी ,बारामंडल ,अस्कोट ,सिरा ,सोरा ,सुई (काली कुमोउन) में से एक  था  जो खश  आक्रमण  के कारण हुए  कत्युर साम्राज्य के विघटन के बाद  स्थापित  हुआ था |

विजय के पश्चात खश  आक्रमण कारी अशोका- चल्ल ने गोपेश्वर  में बैतडी धारा / वैतरणी धारा में पदमपाद राजयातन (प्रासाद ) का भी निर्माण किया था और उसे  अपनी राजधानी बनाया था जहाँ अब अवशेष  रूप में केवल बोध शैली के एक  भैरव मंदिर सहित कुछ अन्य मंदिर ही मौजूद है | उसने यहाँ   सन १२०० तक राज किया और इस  समय अंतराल में उसने बोध गया में बुद्ध मूर्ति की प्रतिष्ठा भी की  जो की  उसका मुख्या अभियान माना जाता है | जिसका उल्लेख गोपेश्वर त्रिशूल   में  "दानव भूतल स्वामी " के रूप में मिलता है (दानव  भूतल  गढ़वाल कुमोउन का दानपुर क्षेत्र,नंदा  जात का  प्रसिद्ध भड लाटू दाणु यहीं का बीर भड था जिसकी पूजा नंदा राज जात में होती है   )

अशोक चल्ल ने कर वसूली के लिये यहाँ बिभिन्न रैन्का चौकियों/चबूतरों का निर्माण भी  किया जिसके उतराधिकारी कैन्तुरी  रैन्का बाद में यहाँ शासन करते रहे (रैन्का = राजपुत्र ) इसके अतरिक्त प्रसिद्ध कैन्तुरी  राजा  ब्रहम देव (विरम देव ) जिसे गढ़वाली लोक गाथा गढ़ु  सुम्याल में "रुदी "   नाम से जाना जाता है और  जिसका शासन  काल सन १३७०-१४४३ ई समझा जाता है  ने महाकाली  क्षेत्र के कंचनपुर जिले में "ब्रहमदेव की मंडी " की स्थापना  भी की थी | 

क्राचल्ल  देव  जो की पश्चिम  नेपाल के डोटी गढ़ का अधिपति था और एक महायानी बोध था ने सन १२३३ मे उत्तराखंड के यत्र - तत्र   बिखरे कत्युरी राज्य पर आक्रमण किया जिसका उल्लेख दुलू  (क्राचल्ल  देव  का पैत्रेक राज्य ) के लेख में मिलता है | विजय के पश्चात  क्राचल्ल  देव ने इस भाग को दस सामन्तौं (जिन्हे मांडलिक कहा जाता था )के अधीन सौंपकर दुलू  लौट गया |

क्राचल्ल  देव द्वारा नियुक्त ये   दस मांडलिक सामंत निम्नवत थे :

(१) श्री बल्ला देव मांडलिक (२) श्री बाघ  चन्द्र मांडलिक (३) श्री श्री अमिलादित्य राउतराज    (४) श्री जय सिंह मांडलिक (५) श्री जाहड़देव मांडलिक
(६) श्री जजिहल देव मांडलिक (७) श्री चन्द्र  देव मांडलिक(करवीरपुर ,बैजनाथ अभिलेख ,१२३३ ई  ) (८) श्री वल्लालदेव मांडलिक (९) श्री विनय चन्द्र (१०) श्री मुसादेव मांडलिक

कालांतर में   कत्युरी राज्य के पश्चिम  भाग  अर्थात काली कुमौं में चन्द शक्ति  का उदय  हुआ उधर  गढ़वाल -कुमौं - नेपाल  के तराई पर यवनों के आक्रमण शुरू  हो चुके थे |

सन १४४५-५० ई  के आसपास डोटी राजपरिवार  का छोटा राजकुमार नागमल्ल (सिरा का रैन्का राजा ) ने अपने बडे भाई अर्जुन देव  से राजगद्दी  छीन कर अपनी शक्ति का विस्तार किया | अर्जुन देव को चन्द राजा कलि कल्याण चन्द्र की शरण में जाना पड़ा | कलि कल्याण चन्द्र की जानता उसके बर्ताव  से खुश नहीं थी,अस्तु राजकुमार भारती चन्द (कलि कल्याण चन्द का भतीजा     ने विद्रोही कुमौनियों को साथ मिलकर अपना अलग संघ बना डाला और डोटी पर छापा  मरने निकल पड़ा |
(Atkinson , के अनुसार भारती चन्द्र ने अपना   शिविर बाली चोकड़    नामक  स्थान  पर (काली नदी के तट पर) लगया था |

कालान्तर में जब डोटी के राजा ने काली कुमोउन पर आक्रमण कर दिया तो कटेहर  नरेश (संभवतया हरु सैम ) ,मुसा सोंन   के वंसज तथा सोंनकोट के पैक मैद सोंन की मदद से उन्होने भीषण  युद्ध में  डोटी के  नागमल्ल को परास्त कर दिया |

डोटी के रैन्का  :

निरंजन  मल्ला  देव  ने १३ वी  सदी के आस पास ,कत्युर साम्राज्य के अवसान के बाद डोटी राज्य की स्थापना की | वह संयुक्त कत्युर राज्य के अंतिम कत्युरी राजा  का पुत्र था | डोटी के राजा को  रैन्का  या रैन्का महाराज भी कहा जाता था |

इतिहास कारौं ने निम्न रैन्का महाराजौं की प्रमाणिक  पुष्टि की है :

निरंजन  मल्ल  देव  (Founder of Doti Kingdom), नागी   मल्ल  (1238), रिपु  मल्ल  (1279), निरई   पाल  (1353 may be of Askot and his historical evidence of 1354 A.D has been found in Almoda), नाग  मल्ल  (1384), धीर  मल्ल  (1400), रिपु  मल्ल  (1410), आनंद  मल्ल  (1430), बलिनारायण  मल्ल  (not known), संसार  मल्ल  (1442), कल्याण  मल्ल  (1443), सुरतान    मल्ल  (1478), कृति  मल्ल (1482), पृथिवी  मल्ल  (1488), मेदिनी  जय  मल्ल   (1512), अशोक  मल्ल    (1517), राज  मल्ल  (1539), अर्जुन  मल्ल / शाही   (not known but he was ruling Sira as Malla and Doti as Shahi), भूपति  मल्ल / शाही  (1558), सग्राम   शाही  (1567), हरी  मल्ल /शाही  (1581 Last Raikas King of Sira and adjoining part of Nepal), रूद्र  शाही  (1630), विक्रम  Shahi  (1642), मान्धाता  शाही  (1671), रघुनाथ  शाही  (1690), हरी  शाही  (1720), कृष्ण  शाही  (1760), दीप   शाही  (1785), पृथिवी  पति   शाही  (1790, 'he had fought against Nepali Ruler (Gorkhali Ruler) with British in 1814 A.D').

इतिहासकार डबराल के  अनुसार कत्युरी राजा  त्रिलोक पाल देव जिसकी  शासन  अवधि १२५०-७५ ई ० मानी जाती है का राज्य डोटी से अस्कोट ,दारमा,जौहार,सोर ,सीरा,दानपुर ,पाली पछाउ - बारामंडल -फल्दाकोट तक फैला हुआ था | इतिहासकारों  के अनुसार राजा निरंजन देव ने अपने भाई अभय पाल की मदद से असकोट को जीत लिया था उसने कुंवर धीरमल्ल को सीरा ,धुमाकोट   और चम्पावत का शासक नियुक्त किया उसने अपने छोटे पुत्र को द्वाराहाट(पाली पछाउ ) का और बडे पुत्र को चम्पावत सुई  का मांडलिक बनाया जो कालांतर में डोटी का राजा बना |

कैन्तुरी   इतिहास में प्रीतम देव /पृथ्वीपाल /पृथ्वीशाही का भी  उल्लेख मिलता है  जो आसन्ति - वासंती देव पीड़ी के ७ वे  नरेश अजब राय  (पाली पछाउ ) के पुत्र गजब राय  (द्वाराहाट का कैन्तुरी राजा ) के पुत्र सुजान देव का छोटा भाई था  जिसने रानीबाग के भयंकर युद्ध में तुर्क सेना को परस्त किया था | पिथोरागढ़   उसका एक प्रमुख गढ़ था  और उसकी एक पत्नी मान सिंह की बेटी गांगला देई,दूसरी धरमा देई और तीसरी धामदेव की माता और हरिद्वार के निकट  के पहाड़ी  भूभाग के मालवा खाती  क्षत्रिय राजवंशी झहब  राज की पुत्री थी जिसे    "रानी जिया " और  "मौला देई " के नाम से जाना जाता था | प्रीतम देव शत्रु  का विनाश  करने वाला प्रतापी राजा था  जिसका वर्णन जागर गीतों में ( "जै पृथ्वीपाल ने पृथ्वी हल काई "  ) मिलता है  |

रानी जिया पृथ्वीपाल की मृत्यु के पश्चात गौला नदी के समीप सयेदौं से हुए युद्ध में विजय के पश्चात मृत्यु को प्राप्त हुई थी जहाँ आज भी उसकी समाधि  "चित्रशीला " नाम से उत्तरायणी मेले  के दिन पूजी जाती है | जिया रानी का पुत्र धामदेव था जो बड़ा प्रतापी  और  शक्तिशाली राजा था और  कत्युरी राज के इतिहास में उसके  शासन काल को  स्वर्णिम युग की संज्ञा दी जाती है | राजुला - मालूशाही की प्रसिद्ध लोकगाथा का नायक मालूशाही , राजा धामदेव का ही पुत्र था |

प्रसिद्ध गीत " तिलै धारू बोला  "   जो तिलोतमा पर  विरमदेव के बलपूर्वक अधिकार की गाथा को अपने गर्भ में लिये हुए है भी डोटी गढ़ से ही सम्बन्ध  रखती है क्यूंकि तिलोतमा दुलू पधानी और रिश्ते में  विरम देव की मामी थी |
विरमदेव और  चन्द राजा विक्रम  के बीच का  जवाड़ी सेरा का युद्ध जिसमे विरम देव  ने धामदेव के साथ मिलकर  चन्द राजा के पुत्र की बारात जो की डोटी की राजकुमारी  विरमा डोटियालणी  का डोला ले कर आ रही थी जवाड़ी सेरा में लुट ली थी क्यूंकि विक्रम चन्द ने उसकी अनुपस्थिति  में उसका गढ़ लखनपुर लुटा था और विरमदेव की सात वीरांगना पुत्रियाँ उससे युद्ध करते हुए वीरगति  को प्राप्त हुई थी | विरमदेव विरमा डोटियालणी का डोला लुट कर लखनपुर ले आया था और  युद्ध में चन्दराजा की हार हुई जिसका उल्लेख लोकगीतों  में मिलता इस  प्रकार से मिलता है :

 "जै निरमा ज्यू  को आल  बांको ढाल बांको
 तसरी कमाण बांकी -जीरो (जवाड़ी) सेरो बाको "


इतिहासकारों  के अनुसार संन  १७९० के गोरखा विस्तार के दौरान सेती नदी के तट का नरी डंग  क्षेत्र में नेपाली  सेना का और धुमाकोट  क्षेत्र गोरखाली के विरुद्ध डटी  डोटी सेना का  शिविर था |

भाषा और संस्कृति :

डोटियाली या डुट्याली  तथा कुमोउनी , डोटी( पश्चिम नेपाल  क्षेत्र सहित ) में प्रचलित स्थानीय भाषाएं है | डोटियाली या डुट्याली जो की कुमोउनी भाषा से समानता  रखती है और इंडो यूरोपियन परिवार की एक भाषा है को महापंडित राहुल सांकृत्यान ने  कुमोउनी  भाषा की  एक उप बोली माना उनके अनुसार यह डोटी में कुमोउन के कन्तुरौं के साथ  डोटी में आई जिन्होने संन १७९० तक डोटी पर राज   किया था | परन्तु नेपाल में इससे  एक नेपाली बोली के रूप मे जाना जाता है समय समय पर डोटियाली या डुट्याली भाषा  को नेपाल की राष्ट्रीय  भाषा के रूप मे मान्यता देने की मांग उठती  रही है .  गोरा  (Gamra) कुमौनी  होली , बिश्पति , हरेला , रक्षा   बन्द्हब  (Rakhi) दासहिं , दिवाली , मकर  संक्रांति   आदि डोटी क्षेत्र के प्रमुख  त्यौहार रहे हैं .

पारम्परिक लोकगीत  :  छलिया , भाडा , झोरा  छपेली , ऐपन , जागर  डोटी संस्कृति के प्रमुख  अंग है | जागर कैन्तुरी  काल की लोक कथाओं को उजागर करने वाला मुख्या लोक गीत   हैं |
Jhusia Damai ( झूसिया दमाई ) कुमोउनी संस्कृति के एक प्रमुक जागरी और लोकगायक थे जिनका जन्म  १९१३ में   रणुवा  धामी  बैतडी जिल्ले के बस्कोट ,नेपाल में हुआ  था |

आज भी गढ़वाल -कुमौं के अनेक गोरिल जागर गीतों तथा गाथाओं में  में डोटी का उल्लेख मिलता है ,जैसे की

जै गुरु-जै गुरु
माता पिता गुरु देवत
तब तुमरो नाम छू इजाऽऽऽऽऽऽ
यो रुमनी-झूमनी संध्या का बखत में॥
तै बखत का बीच में,
संध्या जो झुलि रै।
बरम का बरम लोक में, बिष्णु का बिष्णु लोक में,
राम की अजुध्या में, कृष्ण की द्वारिका में,
यो संध्या जो झुलि रै,
शंभु का कैलाश में,
ऊंचा हिमाल, गैला पताल में,
डोटी गढ़ भगालिंग में
कि रुमनी-झुमनी संध्या का बखत में,
पंचमुखी दीपक जो जलि रौ,
स्योंकार-स्योंनाई का घर में, सुलक्षिणी नारी का घर में,
जागेश्वर-बागेश्वर, कोटेश्वर, कबलेश्वर में,
हरी हरिद्वार में, बद्री-केदार में,
गुरु का गुरुखण्ड में, ऎसा गुरु गोरखी नाथ जो छन,
अगास का छूटा छन-पताल का फूटा छन,
सों बरस की पलक में बैठी छन,
सौ मण का भसम का गवाला जो लागीरईए
गुरु का नौणिया गात में,
कि रुमनी- झुमनी संध्या का बखत में,
सूर्जामुखी शंख बाजनौ,उर्धामुखी नाद बाजनौ।
कंसासुरी थाली बाजनै, तामौ-बिजयसार को नगाड़ो में तुमरी नौबत जो लागि रै,
म्यारा पंचनाम देबोऽऽऽऽऽऽ.........!
अहाः तै बखत का बीच में,
नौ लाख तारों की जोत जो जलि रै,
नौ नाथन की, नाद जो बाजि रै,
नौखण्डी धरती में, सातों समुन्दर में,
अगास पाताल में॥
कि ऎसी पड़नी संध्या का बखत में,
नौ लाख गुरु भैरी, कनखल बाड़ी में,
बार साल सिता रुनी, बार साल ब्यूंजा रुनी,
तै तो गुरु, खाक धारी, गुरु भेखधारी,
टेकधारी, गुरु जलंथरी नाथ, गुरु मंछदरी नाथ छन, नंगा निर्बाणी छन, खड़ा तपेश्वरी छन,
शिव का सन्यासी छन, राम का बैरागी छन,
कि यसी रुमनी-झुमनी संध्या का बखत में,
जो गुरु त्रिलोकी नाथ छन, चारै गुरु चौरंगी नाथ छन,
बारै गुरु बरभोगी नाथ छन, संध्या की आरती जो करनई।
गुरु वृहस्पति का बीच में।
.......कि तै बखत का बीच में बिष्णु लोक में जलैकार-थलैकार रैगो,
कि बिष्णु की नारी लक्ष्मी कि काम करनैं,
पयान भरै। सिरा ढाक दिनै। पयां लोट ल्हिने,
स्वामी की आरती करनै।
तब बिष्णु नाभी बै कमल जो पैद है गो,
तै दिन का बीच में कमल बटिक पंचमुखी ब्रह्मा पैड भो,
जो ब्रह्मा-ले सृष्टि रचना करी, तीन ताला धरती बड़ै,
नौ खण्डी गगन बड़ा छि।
....कि तै बखत का बीच में बाटो बटावैल ड्यार लि राखौ,
घासिक घस्यार बंद है रौ, पानि को पन्यार बंद है रौ,
धतियैकि धात बंद है रै, बिणियेकि बिणै बंद है रै,
ब्रह्मा वेद चलन बंद है रो, धरम्क पैन चरण बंद है गो,
क्षेत्री-क खण्ड चलन बन्द है गो, गायिक चरण बन्द है गो,
पंछीन्क उड़्न बंद है गो, अगासिक चडि़ घोल में भै गईं,
सुलक्षिणी नारी घर में पंचमुखी दीप जो जलण फैगो........
......कि तै बखत का बीच में संध्या जो झुलनें,
दिल्ली दरखड़ में, पांडव किला में,
जां पांच भै पाण्डवनक वास रै गो,
संध्या जो झूलनें इजूऽऽऽ हरि हरिद्वार में, बद्री केदार में,
गया-काशी,प्रयाग, मथुरा-वृन्दावन, गुवर्धन पहाड़ में,
तपोबन, रिखिकेश में, लक्ष्मण झूला में,
मानसरोबर में नीलगिरि पर्वत में......।
तै तो बखत का बीच में, संध्या जो झुलनें इजू हस्तिनापुर में,
कलकत्ता का देश में, जां मैय्या कालिका रैंछ,
कि चकरवाली-खपरवाली मैय्या जो छू, आंखन की अंधी छू,
कानन की काली छू, जीभ की लाटी छू,
गढ़ भेटे, गढ़देवी है जैं।
सोर में बैठें, भगपती है जैं,
हाट में बैठें कालिका जो बणि जैं।
पुन्यागिरि में बैठें माता बणि जैं,
हिंगलाज में भैटें भवाणी जो बणि जैं।
....कि संध्यान जो पड़नें, बागेश्वर भूमि में, जां मामू बागीनाथ छन।
जागेशवर भूमि में बूढा जागीनाथ रुनी,
जो बूढा जागी नाथन्ल इजा, तितीस कोटि द्याप्तन कें सुना का घांट चढ़ायी छ,
सौ मण की धज चढ़ा छी।
संध्या जो पड़ि रै इजाऽऽऽ मृत्युंद्यो में, जां मृत्यु महाराज रुनी, काल भैरव रुनी।
तै बखत का बीच में संध्या जो झुलनें,
सुरजकुंड में, बरमकुंड में, जोशीमठ-ऊखीमठ में,
तुंगनाथ, पंच केदार, पंच बद्री में, जटाधारी गंग में,
गंगा-गोदावरी में, गंगा-भागीरथी में, छड़ोंजा का ऎड़ी में,
झरु झांकर में, जां मामू सकली सैम राजा रुनी,
डफौट का हरु में, जां औन हरु हरपट्ट है जां, जान्हरु छरपट्ट है जां.......।
गोरियाऽऽऽऽऽऽ दूदाधारी छै, कृष्ण अबतारी छै।
मामू को अगवानी छै, पंचनाम द्याप्तोंक भांणिज छै,
तै बखत का बीच में गढी़ चंपावती में हालराई राज जो छन,
अहाऽऽऽऽ! रजा हालराई घर में संतान न्हेंतिन,
के धान करन कूनी राजा हालराई.......!
तै बखत में राजा हालराई सात ब्या करनी.....संताना नाम पर ढुंग लै पैद नि भै,
तै बखत में रजा हालराई अठुं ब्या जो करनु कुनी,
राजैल गंगा नाम पर गध्यार नै हाली, द्याप्ता नाम पर ढुंग जो पुजिहाली,......
अहा क्वे राणि बटिक लै पुत्र पैद नि भै.......
राज कै पुत्रक शोकै रैगो
एऽऽऽऽऽ राजौ- क रौताण छिये......!
एऽऽऽऽऽ डोटी गढ़ो क राज कुंवर जो छिये,
अहाऽऽऽऽऽ घटै की क्वेलारी, घटै की क्वेलारी।
आबा लागी गौछौ गांगू, डोटी की हुलारी॥
डोटी की हुलारी, म्यारा नाथा रे......मांडता फकीर।
रमता रंगीला जोगी, मांडता फकीर,
ओहोऽऽऽऽ मांडता फकीर......।
ए.......तै बखत का बीच में, हरिद्वार में बार बर्षक कुम्भ जो लागि रौ।
ए...... गांगू.....! हरिद्वार जै बेर गुरु की सेवा टहल जो करि दिनु कूंछे......!
अहा.... तै बखत का बीच में, कनखल में गुरु गोरखीनाथ जो भै रईं......!
ए...... गुरु कें सिरां ढोक जो दिना, पयां लोट जो लिना.....!
ए...... तै बखत में गुरु की आरती जो करण फैगो, म्यरा ठाकुर बाबा.....!
अहा.... गुरु धें कुना, गुरु......, म्यारा कान फाडि़ दियो,
मून-मूनि दियो, भगैलि चादर दि दियौ, मैं कें विद्या भार दी दियो,
मैं कें गुरुमुखी ज बणा दियो। ओ...
दो तारी को तार-ओ दो तारी को तार,
गुरु मैंकें दियो कूंछो, विद्या को भार,
बिद्या को भार जोगी, मांगता फकीर, रमता रंगीला जोगी,मांगता फकीर।

उपरोक्त के आधार पर कहा जा सकता है की  डोटी गढ़ का उल्लेख उत्तराखंड और नेपाल  के प्राचीन इतिहास के  एक साक्षी  भूखंड के रूप में होने के साथ साथ ही यहाँ के देबी-देबतौं जो की प्रसिद्ध  ऐतिहासिक वीर भड  थे ,के  अदम्य साहस , वीरता ,प्रेम-प्रसंग ,विद्रोह  की लोक-गाथाओं और लोकगीतों में प्रमुख रूप से मिलता है और उनकी   ऐतिहासिक भूमिका में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है |

संदर्भ ग्रन्थ : उत्तराखंड के वीर भड , डा ० रणबीर सिंह चौहान
                    ओकले तथा गैरोला ,हिमालय की लोक गाथाएं 
                    यशवंत सिंह कटोच -मध्य  हिमालय का पुरातत्व

विशेष आभार : डॉ. रणबीर सिंह चौहान, कोटद्वार  (लेखक और इतिहासकार ), माधुरी रावत जी  कोटद्वार
स्रोत : म्यार ब्लॉग हिमालय की गोद से (सिंगापूर प्रवास से )           
          (http://geeteshnegi.blogspot.com/)

4 comments:

  1. राजनैतिक सीमारेखा से बँटे हुए मानसखण्ड की साझा सांंस्कृतिक, धार्मिक, भाषायी एवम् ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को रेखाङ्कित करने वाली यह एक महत्वपूर्ण कृति है.

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  2. बहुत ही बढ़िया जानकारी। दिल से आभार

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  3. झूलाघाट को डुबाने वाले है खर्क्तड़ी और बैतड़ी भी डूब जायेगा। पंचेश्वर डैम बनने से।

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  4. ये जो आपने लोकगीत गाया है ये ख्याला(जागर) लगाते समय गाते है। जय गंगनाथ बाबा की।

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