गंगनाथ जागर का सार (गंगनाथ और भाना की अमर प्रेम -गाथा )
अस्त्युत्तरस्याम दिशी देवतात्मा .हिमालयो नाम नगाधिराज :,
पूर्वापरो तोयनिधि वगाह्या ,स्थित :पृथिव्याम एव मानदंड : ||
महाकवि कालिदास के कुमारसंभव के उपरोक्त श्लोक पर्वत राज हिमालय की अजर -अमर और विस्तृत प्राकृतिक ,बोधिक ,सामाजिक और सांस्करतिक विरासत की महता को समझने के लिये भले ही पर्याप्त हो परन्तु नगाधिराज हिमालय के विविध और बहुआयामी सांस्करतिक सोपानों का वास्तविक रसपान करने हेतु हिमालयी संस्कर्ति और जीवन शैली के सागर में ठीक वैसे ही गोता लगाना होगा जैसे की महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लगाकर अनुभव किया था शायद उन्हे और " चातक " जैसे प्रकृति के हर चितेरे को हिमालय की हर श्रृंखला पर ,हर नदी घाटी पर और हर एक मठ -मंदिर पर जीवन और संस्कृति के विविध रंगों का रंग देखने को मिला हो | इस हिमालय की झलक ही ऐसी है ,ना जाने कितने लोग यहाँ आकर इसके देवत्व में लींन होकर घुमक्कड् और बैरागी हो गए तो ना जाने कितने लोगौं में यहाँ आकर फिर से जीने की शक्ति का संचार हुआ |वेद -उपनिषद और पुराण और ना जाने क्या क्या लिखा गया पर हिमालय कहीं भी अतीत में पूर्ण रूप से समाया नहीं जा सका और शायद ना ही यह भविष्य में कभी समाया जा सकेगा | एक जीवन में तो हिमालय के एक भाग का ही रसपान करना असंभव प्रतीत होता है | इसी पर्वत राज हिमालय का एक मुकुट मणि देब भूमि उत्तराखंड अपनी वैदिक -पुराणिक-अध्यात्मिक और अनुपम सांस्करतिक और प्राकर्तिक धरोहर के लिये विश्वविख्यात है | वेदों पुराणों में उत्तराखंड को केदारखंड (गढ़वाल ) और मानसखंड (कुमायूं )के नाम से तो जाना ही जाता है परन्तु इसकी प्रत्येक घांटी ,गंगा -यमुना सहित इसकी प्रत्येक नदी - धारा , जीवन को एक निराले ही अंदाज से देखने और स्वयं में आत्मसात करने का निमंत्रण अवसर देती है | इसकी प्रत्येक पहाड़ी पर होने वाला शंखनाद अपने पीछे एक पुराणिक और ऐतिहासिक ज्ञान बोध के अनुनाद का आभास कराता है तो इसका प्रत्येक लोक- गीत कहीं ना कहीं जीवन में एक सुखद अनुभूति के साथ झुमने का अहसास देता है | देवभूमि का प्रत्येक गीत चाहे वहां "झुमेलो " गीत हो चाहे वह " बसंती " गीत हो या फिर " चैती " गीत हो सभी मनुष्य और प्रकृति के भावनात्मक सम्बन्धों की सुरमयी अभिव्यक्ति देते हैं तो वहीं दूसरी और खुदेड गीत अतीत के सुखद ,वर्तमान के वियोग के करुण और निकट भविष्य में आस मिलन की सुखद भाव को प्रतिबिंबित करते हैं तो तीसरी और देव आहवाहन के विभिन्न " जागर गीत " उत्तराखंड के विभिन्न देवी देवताओं के अपने भगतों से संवाद के साक्षी बनकर उन्हे ढोल -दमो हुड़का और कंससुरी थाली पर थिरकने रीझने ,और सुख दुःख को उनसे साझा करने का दुर्लभ अवसर प्रदान करते हैं |
इन्ही जागर गीतों में सम्बंधित देवी -देबता के आवाहन के मंत्रो का लय बध समावेश होने के साथ अतीत और इतिहास के असंख्य घटनाक्रम मंत्रो और गीत रूप मे सन्निहित होते हैं तथा प्रत्येक के आवाहन के मंत्र ,वाद्या यन्त्र , और पूजा की विधि भी अलग होती है और इनके मर्मज्ञ जिन्हे "जागरी " कहा जाता है वे भी पीढी दर पीढी विशेष दक्षता लिये होते हैं | ये जागर गीत उत्तराखंड की ना केवल धार्मिक आस्था के प्रतिक हैं अपितु ये उसकी सामाजिक ,सांस्कृतिक ,साहित्यिक और ऐतिहासिक धरोहर के आधार स्तंभों में से एक हैं |
जागर गीतों के इस अथाह सागर में से एक जागर "गंगनाथ जागर " के नाम से उत्तराखंड में जाना जाता हैं जो उत्तराखंड के कुमायूं क्षेत्र में अपने आराध्य " गंगनाथ " और उसकी प्रेमिका " भाना " के आहवाहन के लिये लगाया जाता हैं जिसमे केवल हुडके और कांसे की थाली का वाद्या यन्त्र के रूप में प्रयोग होता हैं चूँकि गंगनाथ गुरु गोरखनाथ के चेले थे इसलिये जागर में नाथ पंथी मंत्रो का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है |
गंगनाथ जागर में डोटी के कुंवर गंगनाथ के जन्म और उसकी रूपवती प्रेमिका भाना के प्रेम प्रसंग और उनकी निर्मम हत्या का उल्लेख मिलता जो की सार रूप में निम्नवत हैं :
गंगनाथ जागर (गंगनाथ और भाना की करुण प्रेम गाथा ) का सार
डोटी के राजा वैभव चन्द धन धन्य से संपन थे परन्तु उन्हे और उनकी पत्नी प्योंला देवी को संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था | संतान के वियोग में व्याकुल माता प्योंला देवी ने शिव की आराधना की ,शिव ने प्रसन्न होकर उन्हे स्वप्न में दर्शन देये और कहा की यदि प्योंला घर के पास के सांदंण के सुखे तने पर सात दिन तक लगातार जल अर्पित करेगी और अगर सातवे दिन उसमे से एक खिलता हुआ फूल निकलेगा तो रानी को गर्भ ठहरेगा और डोटी को अपना उत्तराधिकारी और उन्हे संतान का मुख देखने को मिलेगा | शिव के आदेश से प्योंला रानी रोज रात-ब्याणी आने पर ही उठकर जल चढाती ,राजा वैभव चन्द को लगता की जैसे रानी संतान वियोग में पागल सी हो गयी है | अंतत सातवे दिन सांदंण का फूल खिल उठा ,रानी प्योंला की प्रसन्ता का ठिकाना नहीं था |कुछ दिन बाद माता प्योंला रानी को गर्भ ठहर गया और उसने एक सुन्दर, तेजवान और अदभुत बालक को जन्म दिया |
डोटी गढ़ में चारो ओर हर्ष की लहर दौड़ पड़ी | भगवन शिव के आशीर्बाद से उत्पन्न बालक का नाम गंगनाथ रखा गया ,राज ज्योतिष से जब बालक के भविष्य की पूछ की गयी तो माता ओर पिता दोनों को सोच पड गए क्यूंकि ज्योतिष के अनुसार गंगनाथ १४ वर्ष बाद प्रेम -वियोग में जोगी हो जाएगा ओर डोटी को सदा के लिये छोड़ देगा |
समय के साथ गंगू बड़ा होने लगा ओर उसकी ख्याति एक दिव्य बालक के रूप में सम्पूर्ण डोटी में फैलने लगी |एक रात गंगू के स्वप्न में भाना का आना होता है ओर वह उसे अपने प्रेम वियोग के बारे में बता कर जोशी खोला (अल्मोड़ा ) आने की बात कहते है ओर कहती है की यदि वह अपनी माँ का सपूत होगा तो उससे मिलने जोशी खोला आयेगा ओर यदि मरी माँ का लड़का होगा तो डोटी में ही रहेगा |स्वप्न देखकर गंगू की नींद टूट जाती ओर वह भारी मन के साथ डोटी छोड़कर जोगी बन जाता है ओर हरिद्वार में आकर गुरु गोरखनाथ से शिक्षा दीक्षा लेता है वह बुक्सार विद्या का दुर्लभ ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है |गुरु गोरखनाथ उसे दिव्य ओर अनिष्ठ रक्षक वस्त्र प्रदान करते है ओर गोरिल देव भी (ग्वील /गोरिया /गोलू ) उन्हे अपनी शक्ति प्रदान करते हैं |
गंगनाथ चोला धारण कर बारही जोगी बनकर भिक्षा मांगते मांगते देवीधुरा के बन में शीतल वृक्ष की छावं में अपना ध्यान आसन लगाता है | ध्यान रत जोगी को देख कर लोग उसके पास पूजा अर्चना के लिये आते हैं ओर अपने दुःख समस्या आदि का कारण निवारण पूछते हैं | धीरे धीरे गंगू सारे क्षेत्र में प्रसिद्ध हो जाता है पर भाना का ख्याल उससे रह रह कर उसकी ध्यान साधना को भंग करता रहता है | अत : वह देवीधुरा को छोड़ अलख निरंजन कहता हुआ निकल पड़ता है | राह में चलते चलते जब राहगीर घस्यारीं गंगू जोगी को प्रणाम करके उसका पता पूछते है तो वह स्वयं को डोटी का राजकुमार बताता है ओर भाना से अपने प्रेम वियोग की अधूरी कथा- व्यथा सुनाता है ओर भाना का पता पूछता है |घस्यारिन उसे भाना की वियोग दशा का भी वर्णन करती है ओर कहती है की भाना सुंदरी अभी तक गंगनाथ के लिये प्रतीक्षारत है |
घस्यारिन ये सब बात जाकर भाना सुंदरी को बतलाती है | अगले दिन भाना इस आश के साथ की गंगनाथ उसे पहचान ही लेगा उससे बिना सुचना दिए ,पानी के बहाने उससे पहली बार निहारती है ओर दोनों की यह प्रथम मिलन बेला होती है | गंगनाथ ओर भाना को जोशी दीवान के आदमी जब इस प्रकार साथ देखते हैं तो जाकर इसकी सूचना दीवान को देते हैं |फिर एक साजिश के तहत होली के दिन गंगनाथ को भंग पिला कर उसको गोरखनाथ के द्वारा प्रदान अनिष्ठ रक्षक दिव्या वस्त्र उतार दिए जाते हैं | भाना विलाप करती हुई उसके प्राणों की दुहाई देती रहती पर उसकी एक नहीं सुनी जाती ओर अंत में गंगनाथ को विश्वनाथ घाट पर मौत के घाट उतार दिया जाता है | क्रोधाग्नि में जलती भाना उनको फिटगार मारती है की उन सबका घोर अनिष्ठ होगा ओर वो पानी की बूंद बूंद के लिये तरश उठेंगे ,उन्हे अन्न का एक दाना नसीब नही होगा | क्रोध में आकर दीवान भाना को भी मौत के घाट उतार देता है |
इसके कुछ दिन बाद ही सारा जोशी खोला ओर विश्वनाथ घाट डोलने लगता है ओर वहां घोर अक्काल जैसी स्थिति उत्पन हो जाती है जिससे जोशी खोला के लोग भय से काँप उठते हैं ओर गंगनाथ-भाना की पूजा कर क्षमा याचना करते हैं | और उन्हे देव रूप में स्थापित करते हैं ,तब से कुमायूं के अधिकांश क्षेत्रौं में गंगनाथ जी की देबता रूप में पूजा अर्चना की जाती है उनका जागर लगाया जाता है | जिसके कुछ अंश निम्नवत हैं :
(१) प्योंला राणि को आशीष प्राप्ति का अंश
हे भुल्लू उ उ उ उ उ उ उ उ
सुण म्यारा गंगू उ उ उ अब ,यो मेरी बखन अ अ अ अ अ अ अ
यो राजा भबै चन्न अ तब अ अ अ ,बड़ दुःख हई राही हो हो ओ ओ ओ ओ आंह ह ह ह अ अ
हे भुल्लू उ उ उ उ
क्या दान करैछ अब ,यो माता प्योंला राणी ई अ अ अ
यो गंगा नौं की नाम तुमुल अ अ ,यो गध्यार नहाल हो हो हो हो आ आ अ अ ह ह
इज्जा गंगा नाम की गध्यार नयाली आंह आंह आंह ह ह
हे भुल्ली इ इ ई ई ई ई ई
ये देबता नाम का तुमुल ,यो ढुंगा ज्वाड़ी व्हाला अ अ अ अ अ अ
कैसी कन देखि तुमुल अ अ अ , यो संतानौं मुख अ अ अ अ अ अ आंह ह ह ह अ अ अ
हे भुल्ली इ ई ई ई ई
को देब रूठो सी कौला यो डोटी भगलिंग अ अ अ अ अ
हाँ क्या दान करलू भग अ अ अ अ ,ये डोटीगढ़ मझ हो हो हो हो अ अ अ अ
औ हो हो डोटी भागलिंग की आन छै ,आंह आंह आंह आंह अ अ
हे भुल्ली ई ई ई ई ई ई
यो तुम्हरी धातुन्द एगे, तौं डोटी भगलिंग अ अ अ अ अ अ
ये सुणिक सपन ऐगे अ अ अ , ओ माता प्योंला राणी हों हों हों हों हां हां ह अ अ
डोटी भगलिंग जा ,माता प्योला राणि स्वीली सपन हेगि आंह आंह आंह ह ह
हे भुल्ली ई ई ई
त्यार कुड़ी का रवाडी होलो , यो सांदंण कु खुंट अ अ अ अ अ अ
सात दिन तू तो राणि ई ई ई ई ई , यो जल चढ़ा दीये अ अ अ अ अ अ
इज्जा सांदंण फूल मा जल चढई तू आंह आंह आंह ह ह ह
हे भुल्ली ई ई ई
सात दिन कौला अब , यो फल खिली जाल आ आ आंह आंह आंह
यो फल आयी जालू तब अ अ ,संतान हई जाली हो हो हो हो हो आ आ अ अ ह ह .....
इज्जा सांदंण खुंट भटेय कल्ल खिलल तब संतान व्हेली आंह आंह आंह ह ह ह
हे भुल्ली ई ई ई ई इ
वो माता प्योंला राणि तब ,यरणित उठी जैली आंह आंह आंह आंह आंह
रात-ब्याण बगत प्योंला आंह क्या जल चढाली ? हो हो हो हो हो हो हो ........
(२) गंगनाथ की गुरु गोरखनाथ जी से दीक्षा का अंश
ए.......तै बखत का बीच में, हरिद्वार में बार बर्षक कुम्भ जो लागि रौ।
ए...... गांगू.....! हरिद्वार जै बेर गुरु की सेवा टहल जो करि दिनु कूंछे......!
अहा.... तै बखत का बीच में, कनखल में गुरु गोरखीनाथ जो भै रईं......!
ए...... गुरु कें सिरां ढोक जो दिना, पयां लोट जो लिना.....!
ए...... तै बखत में गुरु की आरती जो करण फैगो, म्यरा ठाकुर बाबा.....!
अहा.... गुरु धें कुना, गुरु......, म्यारा कान फाडि़ दियो,
मून-मूनि दियो, भगैलि चादर दि दियौ, मैं कें विद्या भार दी दियो,
मैं कें गुरुमुखी ज बणा दियो। ओ...
दो तारी को तार-ओ दो तारी को तार,
गुरु मैंकें दियो कूंछो, विद्या को भार,
बिद्या को भार जोगी, मांगता फकीर, रमता रंगीला जोगी,मांगता फकीर।
(३) मृत्यु उपरान्त जोशी खोला में गंगनाथ और भाना की आत्मा आहवान का अंश
(साभार :हेम सिंह बिष्ट ,नवोदय पर्वतीय कला केंद्र ,पिथोरागढ़ )
मानी जा हो रूपवती भानाअब
जागा हो डोटी का कुंवर अब
जागा हो रूपवती भाना अब
प्राणियों का रणवासी छोडियो अब
छोडियो डोटी वास
माँ का प्यार पिता का द्वार -२ , छोडियो तू ले आज
भभूती रमाई गंगनाथा रे -२
डोटी का कुंवर गंगनाथा रे -२
रूपवती भाना गंगनाथा रे -२
ताज क्यूँ उतारी दियो नाथा रे -२
जोगी का भेष लियो नाथा रे -२
भभूती रमाई गंगनाथा रे -२
अंतत : उत्तराखंडी लोक संस्कृति विरासत के अथाह सागर के इस बूंद का अध्यन करने पर यह अहसास होता है की उत्तराखंड हिमालय में
जागर लोकगीतों का दुर्लभ सांस्करतिक और साहित्यिक ज्ञान पहाड़ -पहाड़ पर बिखरा पड़ा है जिसके मर्मज्ञ लोक कलाकार धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं जिनसे लोकगीतों की यह अमूल्य निधि विलुप्त होने के कगार पर आ खड़ी हुयी जिसके लोक संरक्षण और संवर्धन के लिये सम्बंधित तात्कालिक सामाजिक पीढी का इन सभी लोकगीतों को समझने और एक सामाजिक ,सांस्करतिक और ऐतिहासिक परिपेक्ष में इनके संकलन -अध्ययन तथा अवलोकन की नितांत आवश्यकता है |
लेखक - : (गीतेश सिंह नेगी , हिमालय की गोद से ,सिंगापूर प्रवास से )
बहुत सुंदर विवरण दिया उत्तराखंड का वह भी प्रवास में रहकर . जागर से सम्बंधित दुर्लभ ज्ञान प्रसारित कर उसके संबर्धन की ओर एक सही कदम है आभार
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