" उकाल उंदार "
बाबू मोशाय द्वारा " गैरसैंण " के घाव पर "राजधानी " का मल्हम लगाने के बजाय " विधानसभा भवन " और सत्र रूपी पैबंद लगाया जा रहा है वो भी बिना योजनारूपी अस्तर के !
बाबू मोशाय पहाड़ी बहुत सीधे होते हैं पर उनके होंसले हिमालय से विशाल और फौलादी होते हैं ,महाराज किसी गलतीफहमी में मत रहना ,ये नयी पीड़ी के सरफिरे लोग कुछ भी उखाड़ सकते हैं ,कुछ भी ....
" गैरसैंण " से कम पर ये मानने वाले नहीं ,सुना है कुछ लौंडे सनकी हो चले हैं ,खूब जूते घिसते हैं "गैरसैंण " जा जाकर ,गैरसैंण को ऐसे मोह्हबत करते हैं जैसे बस यही उनकी माशूका हो अब " बाबा मोहन उत्तराखंडी " का नाम लेकर इधर उधर मंडराते रहते हैं ,सुना है दिल्ली ,बम्बई ,दुबई अर ना जाने कहाँ कहाँ इस माशूका के कई दीवाने हैं ,कुछ तो अब परलोक सिधार गये पर इश्क है की अब भी उनका नाम इस माशूका के साथ गाये बगाहे जुड़ ही जाता है ,और इश्क देखिये ये सर फिरे लौंडे है की इन्ह मरहूम दिवानौं की कसमे ऐसे खाते हैं जैसे कोई प्रेमी हीर रांझा या फिर लैला मजनू की कसम खाकर प्रेम पथ पर बढ रहा हो ,मानो सब कुछ भुलाकर कोई अग्निपथ पर अग्रसर हो चला हो हाँ वो बात भी दुरुस्त ठहरी की कुछ पुराने आशिक अब बेवफाई पर उतर आयें हैं ,सत्ता मद में चूर होकर सुना है अब सत्ता के " खुचिल्या " मात्र बन कर रह गए हैं ,कसमे भूल गए है और वादे हैं की अब चुनाव के समय ही याद आते हैं , पर बाबू मोशाय सच तो आपको भी पता है ,टिहरी उपचुनाव से आपने कुछ तो सीखा ही होगा ,बिचारे बेवफा अर सत्ता के " खुचिल्या " अर क्रांति के ढोंगी .दर्रे ! क्या व्हालू युन्कू ?
त्राहि माम ! त्राहि माम ! भावना में बहकर एक प्रवासी उत्तराखंडी के मुख से गढ़वाली निकल गई क्षमा महाराज ! पर वैसे आपको तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़ी होगी ,सुना है आप तो अकबर इलाह्बादी के जमाने से बाबू मोशाय ठहरे
अरे बाबू मोशाय इलाह्बाद से याद आया ये अपना " हिमालय पुत्र " भी तो बाड़ा कददावर नेता था एक जमाने में ,सुना है खूब चलती थी उसकी ,धाकड़ नेता था ,आपका कुछ लगता था क्या ?
अरे बाबू मोशाय मैं भी बस कुछ भी बके जा रहा हूँ ?बाबू मोशाय अर " हिमालय पुत्र " में भी भला कोई रिश्ता हो सकता है ,खैर छोडिये रिश्तों में अब रखा ही क्या है ,वैसे भी आप तो अब बाबू मोशाय ठहरे ,है की नहीं सो " हिमालय पुत्र " में भी अब क्या रखा समझो ? हाँ याद आया बात सिरफिरे लोगौं की चल रही थी । ये सर फिरे सनकी लोग बहुत सीधे हैं पर हैं तो पक्के आशिक ना बाबू मोशाय माना की दिल्ली- देहरादून की राजनितिक गलियौं के रास्ते इन्हे नहीं पता , माना की इनकी सारी उम्र पहाड़ में उकाल उंदार काटते ही बीत गई ,यु तो पहाड़ में कहीं किस्म के खबेश हैं मसलन माफिया , आपदा ,कुनीति ,अव्यवस्था , बेरोजगारी पर सबसे बड़ा अकाल तो यहाँ कुशल नेतृत्व का ही पड़ा है ना अपने देश की तरह
रही बात दिल्ली मुंबई की तो दिल्ली - मुंबई तो बस ये पलायन के भुत के बसीभूत होकर ही दौडते हैं ,पिछले बारह सालौं में कोई ऐसा माई का लाल भी तो पैदा नहीं हुआ उत्तराखंड की राजनीति में जो सुकून से दो बगत की मेहनत की रोटी दिला सके इन्हे पहाड़ में ,हाँ स्वयंभू विकाश पुरुष ,रेल पुरुष ,अलाणा पुरुष फलाणा पुरुष जरुर पैदा हुए यहाँ ,काश राजनीति में भी कुछ परिवार नियोजन जैस सिस्टम होता पर क्या करे ..........
खैर आज सिस्टम की बात ना ही करे तो अच्छा रहेगा ,मुझे तो सिस्टम शब्द सुनकर ही बदहजमी शुरु हो जाती है ,मुह से अनाप सनाप निकलने लगता है ,
ये पलायन का भूत तो ऐसा चिपटा महाराज की एक बार चिपटा तो अब छुटने का नाम ही नहीं लेता , पहाड़ी इस भूत से ऐसे डरते हैं जैसे आप और आपके विपक्षी "गैरसैंण " के भूत से डरते हैं
इनकी जवानी तो पहाड़ में उकाल उंदार काटते ही बीत गई ,खैर छोडिये बाबू मोशाय उकाल उंदार से आपको क्या ? उकाल उंदार का आपका कैसे पता चलेगा आप तो कभी गए ही नहीं "पहाड़ " ,आपने कहाँ देखा हमारा पहाड़ ,वैसे एक बात कहूँ बुरा मत मानना देखे तो अभी अपने पहाड़ी भी नहीं ठीक से शायद
सुना है आप गये थे ' गैरसैंण " राजकीय पुष्पक विमान से अपने दल बल के साथ ?
सच सच बोलना बाबू मोशाय कैसा लगा आपको हम " गैरौं का ये सैण " ?
आप नेता लोगौं की ख़ामोशी भी ना कम डरावनी नहीं होती ,अच्छे अच्छे मुद्दौं पर आप गिच्चौं पर ऐसे म्वाले लगा लेते हो जैसे बल्द के लगे रहते हैं दैं करते समय, कई बार तो हमे ऐसे प्रतीत होता है की साले हमारे बल्द ही गल्या हैं ,ऐन टेम पर घुण्ड टेक देते हैं अब इसमे बिचारे हल्या ब्वाडा भी क्या करे ?
वैसे महाराज करने क्या गये थे वहां ? "संजीवनी बूटी " खोजने तो नहीं गये थे ? या फिर आप भी सिर्फ आत्मिक शांति की खोज में गए थेय पहाडों पर " जस्ट फॉर पीस ऑफ़ माईंड इन गैरसैंण आफ्टर बैटल ऑफ़ टिहरी " बाबू मोशाय ये पहाड़ ऐसे ही होते हैं ,हमेशा अपनी बाहें फैलाकर आपका स्वागत करने हेतु तत्पर ,पर बाबू मोशाय अब एक काम करो फ़ौरन एक किताब लिख डालो अपने अगले गैरसैंण प्रवास मेरा मतलब सत्र के दौरान अरे भाई क्या पता कल आपका भी एक आश्रम बन गए कहीं गैरसैंण में ,आप भी एक संत और महापुरुष के रूप में किसी पाषाण खंड पर उत्कीर्णित हो जाएँ और आने वाली राजनीतिक पीड़ी जब जब गैरसैंण सत्र के बहाने राजधानी का चूसना लेकर वहाँ जाये तो लोग कृतार्थ हो जाएं
वैसे सुना है देश में एक नयी क्रांति आने वाली है ,कुछ लोग कहते हैं २०२० में आयेगी कुछ कहते हैं की २०१४ के बाद आयेगी पर हल्या ब्वाडा की समस्या तो कुछ और ही है वो तो बस यही पूछता है की उसके मरने से पहले आयेगी की नहीं ? क्या मालुम कब आयेगी वैसे क्रांति का क्या है कभी भी आ सकती हैं बाबू मोशाय ,छोडो वैसे भी तुमको क्या लेना क्रांति से तुमको तो बस " सिंहासन " ....
पर बाबू मोशाय एक बात हमे समझ नहीं आती की आप सब देहरादून -दिल्ली वाले " गैरसैंण " से इतना डरते क्यूँ हैं ?
कहीं उकाल उंदार से आपकी .......
स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी ( सर्वाधिकार सुरक्षित )
बाबू मोशाय द्वारा " गैरसैंण " के घाव पर "राजधानी " का मल्हम लगाने के बजाय " विधानसभा भवन " और सत्र रूपी पैबंद लगाया जा रहा है वो भी बिना योजनारूपी अस्तर के !
बाबू मोशाय पहाड़ी बहुत सीधे होते हैं पर उनके होंसले हिमालय से विशाल और फौलादी होते हैं ,महाराज किसी गलतीफहमी में मत रहना ,ये नयी पीड़ी के सरफिरे लोग कुछ भी उखाड़ सकते हैं ,कुछ भी ....
" गैरसैंण " से कम पर ये मानने वाले नहीं ,सुना है कुछ लौंडे सनकी हो चले हैं ,खूब जूते घिसते हैं "गैरसैंण " जा जाकर ,गैरसैंण को ऐसे मोह्हबत करते हैं जैसे बस यही उनकी माशूका हो अब " बाबा मोहन उत्तराखंडी " का नाम लेकर इधर उधर मंडराते रहते हैं ,सुना है दिल्ली ,बम्बई ,दुबई अर ना जाने कहाँ कहाँ इस माशूका के कई दीवाने हैं ,कुछ तो अब परलोक सिधार गये पर इश्क है की अब भी उनका नाम इस माशूका के साथ गाये बगाहे जुड़ ही जाता है ,और इश्क देखिये ये सर फिरे लौंडे है की इन्ह मरहूम दिवानौं की कसमे ऐसे खाते हैं जैसे कोई प्रेमी हीर रांझा या फिर लैला मजनू की कसम खाकर प्रेम पथ पर बढ रहा हो ,मानो सब कुछ भुलाकर कोई अग्निपथ पर अग्रसर हो चला हो हाँ वो बात भी दुरुस्त ठहरी की कुछ पुराने आशिक अब बेवफाई पर उतर आयें हैं ,सत्ता मद में चूर होकर सुना है अब सत्ता के " खुचिल्या " मात्र बन कर रह गए हैं ,कसमे भूल गए है और वादे हैं की अब चुनाव के समय ही याद आते हैं , पर बाबू मोशाय सच तो आपको भी पता है ,टिहरी उपचुनाव से आपने कुछ तो सीखा ही होगा ,बिचारे बेवफा अर सत्ता के " खुचिल्या " अर क्रांति के ढोंगी .दर्रे ! क्या व्हालू युन्कू ?
त्राहि माम ! त्राहि माम ! भावना में बहकर एक प्रवासी उत्तराखंडी के मुख से गढ़वाली निकल गई क्षमा महाराज ! पर वैसे आपको तो कुछ पल्ले ही नहीं पड़ी होगी ,सुना है आप तो अकबर इलाह्बादी के जमाने से बाबू मोशाय ठहरे
अरे बाबू मोशाय इलाह्बाद से याद आया ये अपना " हिमालय पुत्र " भी तो बाड़ा कददावर नेता था एक जमाने में ,सुना है खूब चलती थी उसकी ,धाकड़ नेता था ,आपका कुछ लगता था क्या ?
अरे बाबू मोशाय मैं भी बस कुछ भी बके जा रहा हूँ ?बाबू मोशाय अर " हिमालय पुत्र " में भी भला कोई रिश्ता हो सकता है ,खैर छोडिये रिश्तों में अब रखा ही क्या है ,वैसे भी आप तो अब बाबू मोशाय ठहरे ,है की नहीं सो " हिमालय पुत्र " में भी अब क्या रखा समझो ? हाँ याद आया बात सिरफिरे लोगौं की चल रही थी । ये सर फिरे सनकी लोग बहुत सीधे हैं पर हैं तो पक्के आशिक ना बाबू मोशाय माना की दिल्ली- देहरादून की राजनितिक गलियौं के रास्ते इन्हे नहीं पता , माना की इनकी सारी उम्र पहाड़ में उकाल उंदार काटते ही बीत गई ,यु तो पहाड़ में कहीं किस्म के खबेश हैं मसलन माफिया , आपदा ,कुनीति ,अव्यवस्था , बेरोजगारी पर सबसे बड़ा अकाल तो यहाँ कुशल नेतृत्व का ही पड़ा है ना अपने देश की तरह
रही बात दिल्ली मुंबई की तो दिल्ली - मुंबई तो बस ये पलायन के भुत के बसीभूत होकर ही दौडते हैं ,पिछले बारह सालौं में कोई ऐसा माई का लाल भी तो पैदा नहीं हुआ उत्तराखंड की राजनीति में जो सुकून से दो बगत की मेहनत की रोटी दिला सके इन्हे पहाड़ में ,हाँ स्वयंभू विकाश पुरुष ,रेल पुरुष ,अलाणा पुरुष फलाणा पुरुष जरुर पैदा हुए यहाँ ,काश राजनीति में भी कुछ परिवार नियोजन जैस सिस्टम होता पर क्या करे ..........
खैर आज सिस्टम की बात ना ही करे तो अच्छा रहेगा ,मुझे तो सिस्टम शब्द सुनकर ही बदहजमी शुरु हो जाती है ,मुह से अनाप सनाप निकलने लगता है ,
ये पलायन का भूत तो ऐसा चिपटा महाराज की एक बार चिपटा तो अब छुटने का नाम ही नहीं लेता , पहाड़ी इस भूत से ऐसे डरते हैं जैसे आप और आपके विपक्षी "गैरसैंण " के भूत से डरते हैं
इनकी जवानी तो पहाड़ में उकाल उंदार काटते ही बीत गई ,खैर छोडिये बाबू मोशाय उकाल उंदार से आपको क्या ? उकाल उंदार का आपका कैसे पता चलेगा आप तो कभी गए ही नहीं "पहाड़ " ,आपने कहाँ देखा हमारा पहाड़ ,वैसे एक बात कहूँ बुरा मत मानना देखे तो अभी अपने पहाड़ी भी नहीं ठीक से शायद
सुना है आप गये थे ' गैरसैंण " राजकीय पुष्पक विमान से अपने दल बल के साथ ?
सच सच बोलना बाबू मोशाय कैसा लगा आपको हम " गैरौं का ये सैण " ?
आप नेता लोगौं की ख़ामोशी भी ना कम डरावनी नहीं होती ,अच्छे अच्छे मुद्दौं पर आप गिच्चौं पर ऐसे म्वाले लगा लेते हो जैसे बल्द के लगे रहते हैं दैं करते समय, कई बार तो हमे ऐसे प्रतीत होता है की साले हमारे बल्द ही गल्या हैं ,ऐन टेम पर घुण्ड टेक देते हैं अब इसमे बिचारे हल्या ब्वाडा भी क्या करे ?
वैसे महाराज करने क्या गये थे वहां ? "संजीवनी बूटी " खोजने तो नहीं गये थे ? या फिर आप भी सिर्फ आत्मिक शांति की खोज में गए थेय पहाडों पर " जस्ट फॉर पीस ऑफ़ माईंड इन गैरसैंण आफ्टर बैटल ऑफ़ टिहरी " बाबू मोशाय ये पहाड़ ऐसे ही होते हैं ,हमेशा अपनी बाहें फैलाकर आपका स्वागत करने हेतु तत्पर ,पर बाबू मोशाय अब एक काम करो फ़ौरन एक किताब लिख डालो अपने अगले गैरसैंण प्रवास मेरा मतलब सत्र के दौरान अरे भाई क्या पता कल आपका भी एक आश्रम बन गए कहीं गैरसैंण में ,आप भी एक संत और महापुरुष के रूप में किसी पाषाण खंड पर उत्कीर्णित हो जाएँ और आने वाली राजनीतिक पीड़ी जब जब गैरसैंण सत्र के बहाने राजधानी का चूसना लेकर वहाँ जाये तो लोग कृतार्थ हो जाएं
वैसे सुना है देश में एक नयी क्रांति आने वाली है ,कुछ लोग कहते हैं २०२० में आयेगी कुछ कहते हैं की २०१४ के बाद आयेगी पर हल्या ब्वाडा की समस्या तो कुछ और ही है वो तो बस यही पूछता है की उसके मरने से पहले आयेगी की नहीं ? क्या मालुम कब आयेगी वैसे क्रांति का क्या है कभी भी आ सकती हैं बाबू मोशाय ,छोडो वैसे भी तुमको क्या लेना क्रांति से तुमको तो बस " सिंहासन " ....
पर बाबू मोशाय एक बात हमे समझ नहीं आती की आप सब देहरादून -दिल्ली वाले " गैरसैंण " से इतना डरते क्यूँ हैं ?
कहीं उकाल उंदार से आपकी .......
स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी ( सर्वाधिकार सुरक्षित )
हम सब की भावनाओं का सुन्दर प्रकटीकरण किया है आपने .............
ReplyDelete