सुमित्रानंदन पन्त की कविता : पहाड़ मा बस्गाल (गढ़वाली अनुवाद )
जन्म दिवस पर प्रकृति के सुकुमार कवि को समर्पित ,गढ़वाली अनुदित उनकी एक रचना
अनुवादक : गीतेश सिंह नेगी
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पर्वत प्रदेश में पावस
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में लनस-नस उत्तेजित कर
मोती की लडि़यों सी सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षायों से तरूवर
है झॉंक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार वारिद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल
( सुमित्रानंदन पन्त )
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृति-वेश।
मेखलाकर पर्वत अपार
अपने सहस्त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार
नीचे जल में निज महाकार,
-जिसके चरणों में पला ताल
दर्पण सा फैला है विशाल!
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में लनस-नस उत्तेजित कर
मोती की लडि़यों सी सुन्दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्चाकांक्षायों से तरूवर
है झॉंक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कुछ चिंता पर।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार वारिद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टूट पड़ा भू पर अंबर!
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुऑं, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल
( सुमित्रानंदन पन्त )
पहाड़ मा बस्गाल
(गढ़वाली अनुवाद )
बस्गल्या मैना छाई ,छाई पहाड़ी देश
सर सर बदलणी छाई प्रकृति अप्डू भेष !
सर सर बदलणी छाई प्रकृति अप्डू भेष !
करद्वडी जन्न पहाड़ चौदिश
फूलूं सी आंखियुं थेय खोलिक अप्डी हज़ार
देख्णु छाई भन्या बगत बगत
पाणि मा अप्डू बडू अकार
जैका खुट्टौं मा सैन्त्युं च ताल
दर्पण सी फैल्युं चा विशाल
गैकी गीत गिरि गौरवऽका
उक्सैऽकि नशा मा नस नस
मोतीयुं क़ि माला सी सुन्दर
खतैणा छीं गाज भोरिक छंछडा झर झर
उठ उठिक छातीम पहाड़ऽक
डाली लम्बी लम्बी जन्न आशऽक
झकणा छीं शांत असमान फर
अन्ध्यरु ,अटल ,कुछ चिंता फर |
उडी ग्याई ,ल्यावा अचाणचक्क ,पहाड़
फड्डकीं जब पंखुडा बड़ा बड़ा बादल
सन्न रै ग्यीं छंछडा फिर
सरग चिपट ग्याई धरती फर जब !
धसिक ग्याई धरती मा डैरिक सान्दण
उठणु च धुऑं ,हल्ये ग्याई दयाखा ताल
सलका डबका दगड बदलौं का
इंद्र खेल्दु छाई अप्डू इंद्र जाल |
( गढ़वाली अनुवाद : गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित )
bhalu lagi negi ji . lagyan ra..
ReplyDeletegeetesh bahi, bahut sundar prayas, sadhuvad
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