" महाभारत "
हिमाद्री की इस धरा पर ,घायल है कब से गंगा
सरस्वती विलुप्त है सदियौं से , निशब्द अभिशप्त है यमुना
पदमा है शोकाकुल ,है मुरझाई सी स्वर्णरेखा
आहत है सरयू सारी , नग्न आँखौं से मैने खुद रोते कोसी को देखा
है क्रोध भरा कृष्णा में आज ,गुमसुम है कावेरी भी
क्यूँ तपन में है तापी , थाम आँचल ब्रहमपुत्र का
फफक फफक कर रोती फिर रही क्यूँ तीस्ता
मूर्छित है नर्मदा ,है आहत चम्बल
खंडित हुई है मानवता ,दंभ फिर आज पौरुष का टूटा है
चंद जरासंधौं ने मिलकर ,आज फिर एक द्रोपदी को लूटा है
मौन है आज फिर वही ,धृत राष्ट्री सत्ता
दुराचारी रच रहे फिर खेल महाभारत का
खड़ा है भारत फिर उसी कुरुक्षेत्र में लगता है
जनता मांग रही है हक इन्साफ बन पांडव
हाथ कौरवों के फिर वही अंधी सत्ता है
है अंधे कानून फिर ,वही अन्यायी वनवास खांडव का
न्याय व्यवस्था से जूझता अकेला निशस्त्र
क्यूँ वही दृश्य अभिमन्यु -चक्रव्यूह सा है ...........
स्रोत : हिमालय की गोद से ,गीतेश सिंह नेगी (सर्वाधिकार सुरक्षित )
सार्थक प्रस्तुति के लिए आपका आभार!
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