हिमालय की गोद से

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बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Sunday, December 16, 2012

विश्व प्रसिद्ध कवियौं की कवितायें ( गढ़वाली अनुवाद ) : ६ सुमित्रानंदन पन्त की कविता मोह

 

   सुमित्रानंदन पन्त की कविता मोह   (गढ़वाली अनुवाद )  

                 प्रकृति के सुकुमार कवि को समर्पित ,गढ़वाली अनुदित उनकी एक रचना

 अनुवादक : गीतेश सिंह नेगी 

 

 

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मोह

                         

छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले! तेरे बाल-जाल में कैसे उलझा दूँ लोचन?
भूल अभी से इस जग को!
तज कर तरल तरंगों को,
इन्द्रधनुष के रंगों को,
तेरे भ्रू भ्रंगों से कैसे बिधवा दूँ निज मृग सा मन?
भूल अभी से इस जग को!
कोयल का वह कोमल बोल,
मधुकर की वीणा अनमोल,
कह तब तेरे ही प्रिय स्वर से कैसे भर लूँ, सजनि, श्रवण?
भूल अभी से इस जग को!
ऊषा-सस्मित किसलय-दल,
सुधा-रश्मि से उतरा जल,
ना, अधरामृत ही के मद में कैसे बहला दूँ जीवन?
भूल अभी से इस जग को!

                          

(गढ़वाली अनुवाद )

                                                    

छोड़  डालीयूं  कु छैल  मिट्ठू
तोड़ कुदरतै  माया बि
                     छोरी ! कनक्वे अलझ्या दियूं  लटूल्यूं  मा तेरी आँखी ?
                     अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

छोडिक बुग्दी गद्नौं थेय ,
    दगड धडैं का रंगौं थेय      
                   कनक्वे बिधै द्यूं  भौंहौं मा तेरी हे  प्यारी ! 
         चंचल  घ्वीड सी ईं जिकुड़ी थेय
       अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

  चखुलियुं का मीठा मीठा बोल
भौंरौं कु भिमणाट  अनमोल
 बोल कनक्वे सुणु ,
मीठी बाच तेरी ही बस हे प्यारी
            अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !
     खिल्दा सुबेर  जब दल कमल  
जौंन भटी उतरदू जल
ना ,अमृत उठडीयूँ का नशा मा ही सै
पर कनक्वे बुथिया दियुं यू जीवन 
                                अब्बि  भटेय दुनिया थेय ईं बिसरैऽ कि !

( गढ़वाली अनुवाद : गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित )



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