मी पहाड़ छोवं
बिल्कुल शान्त
म्यार छजिलू छैल
रंगिलू घाम
और दूर दूर तलक फैलीं
मेरी कुटुंब-दरी
मेरी हैरी डांडी- कांठी
फुलौं की घाटी
गाड - गधेरा
स्यार -सगोडा
और चुग्लेर चखुला
जौं देखिक तुम
बिसिर जन्दो सब धाणी
सोचिक की मी त स्वर्ग म़ा छौंव
और बुज दिन्दो आँखा फिर
पट कैरिक
सैद तबही नी दिखेंदी कैथेय
मेरी खैर
मेरी तीस
म्यारू मुंडरु
म्यारू उक्ताट
और मेरी पीड़ा साखियौं की
जू अब बण ग्याई मी जण
म्यार ही पुटूग
एक ज्वालामुखी सी
जू कबही भी फुट सकद !
रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह " घुर घूघुती घूर " से
और मेरी पीड़ा साखियौं की
ReplyDeleteजू अब बण ग्याई मी जण
म्यार ही पुटूग
एक ज्वालामुखी सी
जू कबही भी फुट सकद !
......पहाड़ी पीड़ा को आपने बहुत ही मार्मिकता से प्रस्तुत किया है... सच में पहाड़ का अपना ही दर्द है जिसे हम भूलते जा रहे है.. आज जब भी गाँव जाती हूँ तो पहाड़ों के प्रति लोगों की उदासीन रवैये से हैरानगी होती है...जंगल में पेड़ों के पहले जैसे छावं बहुत कम देखती है..अबकी बार गाँव में जंगल में घुमने गयी तो वहां बहुत सारी दारु के बोतल देख बहुत अफ़सोस हुआ ....
गाँव के पहाड़ के दर्द को समझने और लोगों को प्रोत्शाहित करने के लिए आभार!
पहाड़ी दर्द को समेटे हुए आपकी ये कविता बिलकुल गढ़वाली साहित्य के लिए कालजयी सिद्ध होगी सुंदर प्रस्तुति , आपकी कवितायेँ मेरे पास उतराखंडी इ पत्रिका के माध्यम से मेल पर भी प्राप्त होते रहते है
ReplyDeleteगीतेश जी सादर प्रणाम फैसबुक का माध्यम से मी आपसे मिलु। आपका कविताऔँ मा पहाड़कु दर्द ता आपन जन ढंग से हमरा समणि पैश काइ जुकि काबिले तारिफ़ छ।
ReplyDeleteमिता आपकि हर रचना पसँद आँदी अर मि आपका रचनाऔँ ता अपणि पास रखण चाँदू त प्लीज़ कृपा कैरिक मिता बतावा कि आपकि रचनाओँ ता हम लोग कख़ बटिन प्राप्त करि सकदो?औँ मा पहाड़कु दर्द ता आपन जन ढंग से हमरा समणि पैश काइ जुकि काबिले तारिफ़ छ।
मिता आपकि हर रचना पसँद आँदी अर मि आपका रचनाऔँ ता अपणि पास रखण चाँदू त प्लीज़ कृपा कैरिक मिता बतावा कि आपकि रचनाओँ ता हम लोग कख़ बटिन प्राप्त करि सकदो?