वर्षा !
ये मौन तुम्हारा
करता नित संवर्धन
द्वंद मेरे अंतर्मन का
देते निमंत्रण
सुन्दर समोहक
चक्षु तुम्हारे
अधरों को मेरे
पर प्रिये !
शून्य है क्यूँ
तुम्हारा आलिंगन
और क्यूँ शांत है
मन का आँगन
जहाँ सहस्त्र स्वप्न दर्पण खंडित हुए
छन्न से एक एक कर
फिर भी है ध्वनि रहित क्यूँ वियावान सा
वह जीवन कानन
अट्टाहास करता
प्रतिदिन
और मैं बस निहारता
एकटक
असहाय और निरुत्तर सा
चंद्रमुखी को
सजल नेत्रौं में
योवन के मौन को
ढूंढ़ता
शब्दहीन !
रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे ब्लॉग हिमालय की गोद से
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