हिमालय की गोद से
Sunday, January 2, 2011
आईना
अब की जब हर बचपन नौजवानी से पहले लुट जाता है ,
और रोज एक नया पैबंद भ्रष्टाचार का ईमानदारी पर सज जाता है ,
उसूल,आचरण और सिद्धांत जिंदगी के तहखानों में उम्रकैद हो जाते है,
और धर्म ,जाति और भाषाओं के नाम पर हम रोज बट जाते हैं,
रिश्वत अब जब लहू बनकर हमारी रगों में दौड़ लगाती है ,
और मानवीय मूल्य सरे आम चौराहों पर रोज नीलाम होते हों ,
अब जब बेटियां जहाँ अपने ही घरों में सुरक्षित ना हों ,
और जलती,लुटती और पेडों पर लटकाई जाती हों ,
अक्सर सामाजिक अहम् के बोझ से ,
जहाँ संवेदनायें भी जब न्यापालिका और सरकारों की भांति अक्सर मौन हों ,
और हत्यारे ,फिरकापरस्त और भ्रष्ट मुखौटे हर बार की तरह
जब लोकतंत्री बिस्तरों में खटमल की तरह घुसपैंठ कर जाते हों
और चुसतें हो वही खूंन जिसकी उन्हे आदत हो चुकी है
जहाँ आज भी रोती हो एक शहीद की माँ अक्सर अकेले में फफक फफक कर
क्यूंकि सदियों से दहशत गर्द यहाँ मेहमाँ बनाकर रखे जाते हैं
आज भी होता है रोज यहाँ एक आन्दोलन धर्म ,जाति और सम्प्रदाय के नाम पर
और फुका जाता है फिर कोई अपना सा ही घर और अपने से ही लोग
चन्द मतलबी और मजहबी ठेकेदारों की सामाजिक एकता के नाम पर
वैमनष्य और संकीर्णता की फसले अब सरपट उग आती हैं यहाँ नवजात मस्तिक पर
उत्तरदायित्व से पूर्व अब यहाँ हर तरफ हकों की अक्सर हर रोज बात उठती है
कुछ महत्वाकांक्षी आँखे आधुनिकता की चकाचौंध में होती है अक्सर आज भी अंधी
तो कुछ ख्वाब आज भी दो वक्त की रोटी की आश में चुपचाप भूखे पेट सो जाते हैं
तो कुछ ख्वाब आज भी दो वक्त की रोटी की आश में चुपचाप भूखे पेट सो जाते हैं
रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी (सिंगापूर प्रवास से,सर्वाधिकार सुरक्षित )
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