श्री भीष्म कुकरेती गढ़वाली साहित्य में एक जाना पहचाना नाम है । वे गढ़वाली साहित्य
के ख्यात व्यंग्यकार ,समीक्षक और आलोचक हैं
तथा गढ़वाली भाषा साहित्य के प्रचार प्रसार में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है ।
समय समय पर वे विभिन्न माध्यमो से गढ़वाली भाषा -साहित्य से जुड़े मूल मसलौं पर भी बेबाकी
से अपनी राय रखते रहे हैं । इस दौर में जहाँ एक ओर यूनेस्को जैसी अन्तराष्ट्रीय संस्थाएं
गढ़वाली -कुमाउनी आदि भाषाओं के प्रति संवेदनशील नज़र आती हैं तथा उनको संकटग्रस्त भाषाओं की श्रेणी में सूचीबद्ध करती हैं तो दूसरी ओर गढ़वाली -कुमाउनी भाषा साहित्य से जुड़े लेखक ,कवि ,साहित्यकार और भाषा
-संस्कृतिकर्मी भी अनवरत साहित्य सृजन द्धारा गढ़वाली -कुमाउनी को संविधान की आठवी अनुसूची मे शामिल करने हेतु
प्रयासरत हैं ,ऐसे समय में गढ़वाली साहित्य से जुडे विभिन्न पहलुओं और विभिन्न
विधाओं में इसकी वर्तमान सृजन स्थिति पर श्री
गीतेश नेगी ने भीष्म कुकरेती जी से एक लम्बी बातचीत और बेबाक चर्चा की ।
पाठकों हेतु पेश हैं इस लम्बी बातचीत और चर्चा के कुछ अंश :
भीष्म कुकरेती - यद्यपि मैं विज्ञान का विद्यार्थी था किन्तु कथा साहित्य
से रुझान शायद जन्मजात था। कविता बांचने से
मैं आज भी डरता हूँ। हाँ हास्य कवितायें मुझे पसन्द है। साहित्यिक उपन्यास व जासूसी साहित्य दोनों को मैंने
विद्यार्थी काल में बहुत बांचा। MSC में अंग्रेजी में सिद्धस्त होने के लिए अंग्रेजी
उपन्यास लिया। सर्वप्रथम God Father बांचा और फिर James Hadley Chase के व अन्य इतर POP
लिटरेचर खूब पढा।
मुम्बई आने पर सेल्स लाइन में आने से मैनेजमेंट की पुस्तकें
खूब पढ़ी। किन्तु साहित्य से जुड़ा ही रहा। यहीं विद्यार्थी काल के मित्र श्री गिरीश ढौण्डियाल
भी साहित्य में रूचि साहित्यिक चर्चा होती
रहती थी। मई एक संस्था शैलसुमन
से जुड़ा वहां स्व प्रोफ शशि शेखर नैथानी , स्व अर्जुन सिंह गुसाईं
जैसे साहित्यिक वृति के लोग मिले. श्री देवेश
ठाकुर से भी मिला। बाद में सारिका के उप सम्पादक
श्री सुरेश उनियाल भी मिल गए और साहित्यिक गोष्ठियों में भाग लेने का मौका मिला, कला नाटकों को देखने
का मूक मिला। स्व कमलेश्वर , स्व मुद्गल व उनकी
पत्नी से भी मिला हुआ। जब सुरेश उनियाल जी
दिल्ली आ गए तो कम्पनी काम से दिल्ली जाना होता था तो उनियाल जी के साथ एक दिन पूरा
बिताता था। रमेश बत्रा जी, अवश्थी जी ,
रमेश बिष्ट जी , बल्लभ डोभाल जी ,
गंगा प्रसाद विमल आदि
से कॉफी हाउस में गोष्ठी सुनता था।
गीतेश नेगी - तो आपने तब तक लेखन शुरू नही किया था ?
भीष्म कुकरेती -नही।
सुनने में आनन्द आता था। सेल्स लाइन
में टुरिंग जॉब था तो नए नए लोग , नई नई संस्कृति के
दर्शन होते थे। आज भी। श्री अर्जुन सिंह से
तकरीबन हर महीने मिलता ही था। गुसाईं जी ने हिलाँश प्रकाशन शुर कर दिया था। व मेरी बिल्डिंग में ही प्रोफेसर डोभाल के यहां
साहित्यिक कछेड़ी जमती थी। मेरी शादी 11 मार्च 78 को कोटद्वार में हुयी
और भोज देने गाँव भी गया था।शादी होने के बाद
मुम्बई आने के दो दिन बाद मैं कार्यालय जा रहा था कि अर्जुन सिंह जी मिल गए। कहने लगे '" भीषम बाबू ! यार उत्तराखण्डी
बड़े असंवेदनशील जैसे हो गए हैं। एक कहानी नही मिल रही है किसी से। अगर आप लिख दें तो मार्च अंक के लिए कथा..
"
मैं तरोताजा गाँव से आया था और पलायन से उपजे नए सामाजिक समीकरण
से आमना सामना हुआ था। मैंने रात में ही अपनी
शादी के अनुभव में कल्पना जोड़कर हिंदी में
'काली चाय ' कथा लिख डाली (काली चाय नाम गुसाईं जी ने दिया ) पलायन बिभीषिका दर्शन था इस कथा में। जब पाठकों ने कथा पढ़ी तो उन्हें लगा मैंने उनकी
कथा लिख दी। पिता जी के ड्राइवर थे स्व लाल
सिंग जी। वे कुमाऊं के थे और उन्होंने कथा
पढ़कर कहा था ," पण्डि जी मेरे गांव कब गए थे। म्यार गाँव की कथा च ... " . इसी तरह मुम्बई
के कई पाठकों ने कथा पढ़ी और कथा नही असलियत कह कर प्रशसा की।
गीतेश नेगी- तो आपकी
प्रथम कथा हिंदी में थी ?
भीष्म कुकरेती - जी हाँ और फिर दूसरी कथा तो मैंने स्व प्रेमलाल
बड़थ्वाल जो बिल्डिंग में चौकीदारी करते थे व दिन में इनकम टैक्स ऑफिस की कैंटीन में
काम करते थे की असल जिंदगी पर कथा लिख डाली।
इसमें नायक यहां कसकर मेहनत करता है, रहने को घर नही और घर से उसके पिताजी नए मकान बनवाने के पत्र लिखा
करते थे क्योंकि घर में दिखाना है कि मेरा बेटा कमाता है। करुणामय कथा थी। इस पर बहुत ही अच्छे प्रतिक्रियाएं
मिली कि यह भी रियल स्टोरी है। हिलांस में
सत्य घटनाओं या सच्ची नायिकाओं संबंधित कथाएं हिलांस में प्रकाशित हुईं। अलकनन्दा के सम्पादक से गढ़वाली गद्य 'गाड म्यटेकी गंगा '
व शैलवाणी मिलीं।
गीतेश नेगी- यहां से गढ़वाली साहित्य में प्रवेश ?
भीष्म कुकरेती - नही जी।
मेरी एक एक व्यंग्य कथा 'वेस्टर्न हल ' कथा हिलांस में छपी थी। उसमे मैंने वजनदार वेस्टर्न हल उठाकर अपने गाँव
से लयड़ पहाड़ी चढ़ने का
जीवन्त वर्णन किया था। स्व रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' जी के पत्र आया कि
यह पहाड़ी जसपुर की है कि बड़ेथ की । पहाड़ी जी प्रथम गढ़वाली डीएम स्व गोविंद प्रसाद घिल्डियाल (जिन्होंने हितोपदेश कथाओं का गढ़वाली
अनुवाद प्रकाशित किया था ) के पुत्र थे व उनका मामाकोट मेरे गांव से एक मील दूर बड़ेथ।
था पहाड़ी जी का बचपन बड़ेथ में ही बीता था। उन्होंने मुझे गढ़वाली में लिखने को उकसाया और एक
पत्र आने के बाद मैंने 'कैरा को कतल ' कथा लिख डाली। इसमें हर वाक्य में 'के ' अक्षर से शुर होने
वाले शब्द थे प्रयोग हुए हैं। यह कथा अलकनन्दा में छपी किन्तु मेरा पास उपलब्ध
नही है। मैंने अपनी सभी हिंदी व गढ़वाली कथाओं के संग्रह निकलने हेतु
अलकनन्दा के श्री स्वरूप ढौण्डियाल को सौंप दी थी किन्तु वे छाप नही सके और उनके देहावसान
के बाद कुछ पता नही चला। इससे पहले स्वरूप
जी ने मेरी पुस्तक 'गढ़वाल की लोककथाएं ' भी प्रकाशित की।
गीतेश नेगी- तो ऐसा शुरू हुआ आपका गढ़वाली भाषा साहित्य में प्रवेश
?
भीष्म कुकरेती - जी हाँ गढ़वाली कथाएं व व्यंग्य हिलांस ,
अलकनन्दा ,
अंजवाळ में प्रकाशित
होता गया।
गीतेश नेगी - धाद पत्रिका में तो आपके धारदार घपरोळी लेखों की
बड़ी चर्चा हुयी थी।
भीष्म कुकरेती - हाँ ! लोकेश भाई से प्रगाड़ मित्रता थी व है। धाद में मैंने मानकीकरण विरुद्ध
लेख -बीं बरोबर गढ़वाली, ह्वे त गे मानकीकरण , च , छ , थौ व असली नकली गढ़वाली
लेख लिखे जो चर्चा में आ गए। श्री अबोध जी
व बाबुलकर जी ने कठोर भर्त्सना की , श्री भगवती प्रसाद नौटियाल जी ने मेरे विरुद्ध
में व्यंग्य लिखा।
गीतेश नेगी - आप स्वभाव से कंट्रोवर्सियल नही हैं किन्तु गढ़वाली
में घपरोळ करवाते हैं। श्री नौटियाल जी के
विरुद्ध अशिष्ट भाषा में लेख, श्री नरेंद्र कठैत के विरुद्ध इंटरनेट में लेख, चिठ्ठी पत्री में 'अलग गढ़वाली राज्य की आवश्यकता ' जैसे लेख आदि आपके
स्वभाव के विरुद्ध हैं। फिर भी ?
भीष्म कुकरेती - यह ठीक है मैं कंट्रोवर्सी से बचता हूँ। किन्तु
जब मैं गढ़वाली साहित्य में उतरा तो पाया कि बड़ा ही स्टीरियो टाइप माहौल है व चर्चा
होती नही है तो मैंने इस तरह से लिखना शुरू किया कि जो भी गढ़वाली में लिखा जाय उस पर
चर्चा हो साहित्यकार चर्चा करें व पाठक इन्वोल्व हो जायँ। गढ़वाली साहित्य में मेरे लेखों ने स्टीरियो टाइप
स्थिति तोड़ी थी।
गीतेश नेगी - इंटरनेट में भी आपने कामसूत्र का अनुवाद पोस्ट
कर दिए थे ? रामी बौराणी को बैन करने की पोस्ट आदि
भीष्म कुकरेती -जी यह भी सोची समझी रणनीति के तहत ही किया।
गीतेश नेगी -रणनीति ?
भीष्म कुकरेती - मै शुरू से ही मानता रहा हूँ कि जब तक गढ़वाली
के बारे में चर्चा , बहस , घपरोळ न हो आम पाठक गढ़वाली में रूचि नही लेगा। तो मैंने सबसे पहले इंटरनेट सर्कल ( उस समय इंटरनेट
ग्रुप होते थे ) में मैंने पहले रामी बौराणी गीत पर बैन का लेख पोस्ट किया ,
' Brahimin Vad of Madan Duklan लेख लिखा जिसमे मदन डुकलान पर ब्राह्मण वाद का अभियोग लगाया।
दोनों पोस्ट पर काफी चर्चा हुयी। इंटरनेट धारकों
को पता चला कि गढ़वाली में भी साहित्य होता है। इस बहस से ' दर्जन से अधिक लोगों
ने 'चिट्ठी पत्री ' पत्रिका मंगाई
गीतेश नेगी - और कामसूत्र का गढ़वाली अनुवाद ?
भीष्म कुकरेती - कामसूत्र अनुवाद ने भूचाल ला दिया था। 400 से अधिक प्रतिक्रियाएं आयीं। गाली भी खाई।
कईयों ने गढ़वाली में पुस्तक छापने की गुजारिश भी की। अधिसंख्य लोगों ने प्रथम बार गढ़वाली पढ़ी।
गीतेश नेगी -आप 'गढ़ ऐना ' दैनिक से भी जुड़े रहे
तो ...
भीष्म कुकरेती - जी दैनिक गढ़ -ऐना 88 -91 तक तीन साढ़े तीन सालों तक छपा। मैं गढ़ ऐना के लिए रोज एक व्यंग्य या अन्य
लेख भेजता था बाद में मैंने एक व्यंग्य चित्र रोजाना भेजना शुरू किया।
गीतेश नेगी -अच्छा ?
भीष्म कुकरेती - हाँ और इसके अलावा गढ़वाली क्रॉस वर्ड भी छपवाए , बच्चों के लिए चित्रों
के द्वारा कुछ पज्जल्स भी प्रकाशित किये। गढ़वाली
में समालोचना की शुरुवात भी मैंने ही की। गढ़वाली में इंटरव्यू विधा की शुरवात की।
गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य में आपने किन किन विधाओं पर कार्य
किया हैं
भीष्म कुकरेती - परम्परागत
और इंटरनेट माध्यम में कुल मिलाकर 25 से अधिक कथाएं , 2000 से अधिक व्यंग्य , 700 के व्यंग्य चित्र
, क्रॉस वर्ड्स , पज्जल्स , एक नाटक, समालोचनाएँ , अन्य
लम्बे लेख आदि जैसे संसार प्रसिद्ध 2000 से अधिक कथाकारों
का संक्षिप्त वर्णन , गढ़वाली कविता इतिहास , गढ़वाली कथा इतिहास
, गढ़वाली नाटक इतिहास आदि आदि।
गीतेश नेगी - अनुवाद ?
भीष्म कुकरेती - हाँ
तकरीबन 20 विदेशी भाषाओं व संस्कृत कथाओं का अनुवाद , 25 से अधिक विदेशी नाटकों
अनुवाद किया है। ये नाटक गढ़वाल सभा देहरादून
में उपलब्ध हैं। अपने नाटक 'बखरों ग्वेर स्याळ
' व ललित मोहन थपलियाल जी के दो नाटक 'खाडू लापता '
व एकीकरण का गढ़वाली
अनुवाद ' भी किया।
गीतेश नेगी - आपने शब्दकोश पर भी काम किया है ?
भीष्म कुकरेती -जी अंग्रेजी
-गढ़वाली शब्दकोश का फोटोस्टेट संस्करण
गीतेश नेगी -आपने अंग्रेजी में गढ़वाली साहित्य पर लेख भी लिखे
हैं। क्या क्या लिखा ?
भीष्म कुकरेती - गढ़वाली लोक गीतों की समीक्षा , गढ़वाल के तन्त्र और
मन्त्रों की समीक्षा , लोक नाटकों पर भरत नाट्य शास्त्र अनुसार टीका , गढ़वाली कविता व कवियों
की समीक्षा, नाटकों की समीक्षा , गढ़वाली कथाओं की समीक्सा
, १२० लोक कथाययें अंग्रेजी लिखीं।
तकरीबन 3000 लेख तो पोस्ट की ही होंगी। अंग्रेजी में 100 से अधिक व्यंग्य आदि
गीतेश नेगी -अंग्रेजी में लिखने का कारण ?
भीष्म कुकरेती - सिम्पल।
गढ़वाली को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाना।
गीतेश नेगी -आपने चिट्ठी पत्री के कई विशेषांको के लिए संयोजन
भी किया ?
भीष्म कुकरेती -जी हाँ लोक नाटक , कविता विशेषांक आदि
के लेख व अन्य साहित्य जुटाया। फिर अंग्वाळ
व हुंगरा जैसे ऐतिहासिक पुस्तकों के लिए साहित्यकारों से सम्पर्क व साहित्य जुटाया। किन्तु मदन डुकलाण भाई ने इसका विशेष जिक्र नही
किया। दुःख होता है।
गीतेश नेगी -उत्तराखण्ड का इतिहास भी अंग्रेजी में लिखा है आपने
?
भीष्म कुकरेती - जी अभी ब्रिटिश काल तक पँहुच हूँ
गीतेश नेगी - क्या आप
अपने आजतक के लेखन योगदान से संतुष्ट हैं ?
भीष्म कुकरेती - जी अभी काफी कुछ पूरा करना है। हाँ इंटरनेट में 15 लाख से अधिक बार पढ़े
जाने से सन्तुष्टि तो होती ही है।
गीतेश नेगी -गढ़वाली कुमाऊनी भाषा -साहित्य के समक्ष वर्तमान
में सबसे बड़ी चुनौती ,सबसे बड़ी समस्या क्या
हैं ?
भीष्म कुकरेती - कैच
द्यम यंग की समस्या हमेशा से रही है। यंग रीडर्स न पाना सबसे बड़ी समस्या रही है और उसका
मुख्य कारण है लिखित साहित्य की वितरण की समस्या। ऑडियो -वीडियो व इंटरनेट माध्यम से कुछ हद तक समस्या
निपट रही है किन्तु फिर भी यंग रीडर्स एक समस्या आज भी है।
गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य की वर्तमान दशा क्या हैं ?
इसमे किन किन विधाओं
में कार्य हो रहा है ?
भीष्म कुकरेती - कमपैरिटिवली
पहले से अधिक काम हो रहा है , स्टीरियो टाइप को तोडा
जा रहा है , कई लेखक जैसे सुनील थपलियाल घँजीर सरीखे तीखे -बेबाक वाले साहित्यकार भी आगे आएं हैं जो
एक शुभ संकेत है।
नए विषय जैसे डा सत्येश्वर कालेश्वरी का बुलेटिन जैसी सामयिक
समाचार की कविताएं रचना , संदीप रावत , धर्मेंद्र नेगी , पयास पोखड़ा की कविताएं
, प्रीतम अपछ्याण व कृष्ण कुमार ममगाईं के दोहे
, महेशा नन्द व वीरेंद्र जुयाल आदि की नव कथाएं , सतीश रावत की तिपत्ति
नुमा कविता , रमेश हितैषी की सामाजिक सरोकारी कविताएं , लालचन्द राजपूत के
जोक्स शुभ संकेत हैं
गीतेश नेगी -वह कौन सा पहलू है जो अभी
तक अछूता है या जिसमें अधिक कार्य करने की आवश्यकता है ?
भीष्म कुकरेती - एक तो सड़क छाप साहित्य याने गढ़वाली -कुमाउँनी
में पॉपुलर साहित्य की ओर किसी की दृष्टि ना जाना सबसे बड़ी कमजोरी है
गीतेश नेगी - सड़क छाप साहित्य ?
भीष्म कुकरेती - जी
हाँ। हिंदी प्रसारण में प्रेमचन्द से अधिक योगदान गुलसन नन्दा
, रानू , जासूसी उपन्यासों का हाथ अधिक है। जब तक
सड़क छाप याने पॉपुलर साहित्य पॉपुलर न होगा
भाषा का प्रसारण नही हो पायेगा । और ...
गीतेश नेगी - और ?
भीष्म कुकरेती -और फाणु
बाड़ी विषय से ऊपर उठकर कॉन्टिनेंटल डिशेज पर भी सोचना होगा। आज हमारे पाठक देश और दुनिया में सभी जगहों पर वसे है तो उनके परिवेश व नए ज्ञान को मद्देनजर रखकर
साहित्य रचना आवश्यक है इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय
कविताओं या अन्य साहित्य का अनुवाद आवश्यक है। इस मामले में नरेंद्र कठैत और गीतेश नेगी के कार्य
की प्रशसा की जानी चाहिए।
गीतेश नेगी - गढ़वाली कविता की वर्तमान दशा क्या हैं ?
एक समीक्षक के रूप
में आप इसका भविष्य किस रूप में देखते हैं ? क्या इस दौर की कवितायें
पुरानी वर्जनाओँ को तोड़कर नये
प्रतिमान नये बिम्ब और नये विषयों पर अपनी बात प्रभावशाली ढंग से रखने में
सक्षम हैं ?
भीष्म कुकरेती - संख्या
दृष्टि से अच्छा काम हो रहा है। हाँ कुछ कवि
क्वांटिटिटी पर अधिक क्वालिटी पर कम ध्यान दे रहे हैं। कुछ कवि फोटोग्राफिकल नैरेसन को ही कविता
समझ बैठे हैं। कुछ तो फालतू की कविताएं दिए
जा रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि पॉप साहित्य और फालतू के साहित्य में भी अंतर होता
है। एक बात बड़ा खतरनाक पहलू भी है कि बहुत
से पोटेंशियल कवि दुसरी भाषा के साहित्य से
परहेज करते हैं और अपने पास , शब्दकोश , गढ़वाली व्याकरण की
पुस्तक नही रखते हैं। वैसे नई वर्जनाएं टूट रही हैं और नए अलंकार भी सामने
आ ही रहे हैं।
गीतेश नेगी -आज के दौर
की गढ़वाली कविता के वो कौन कौन से नाम है जो
अच्छी और सशक्त कविता लिख रहे हैं या जिनसे
गढ़वाली कविता को एक नई दिशा एक नया विस्तार , नये बिम्ब नये विषय और नये कलेवर मिलने की आश बँधती
है ?
भीष्म कुकरेती - इंटरनेट पर कुछ कवि अछि कविताएं पेश कर रहे
हैं। सबसे बड़ी कमी है कवित्व के स्टैंडर्ड को बरकरार
रखना। दूसरा विषय, शैली या कवित्व में एक्सपेरिमेंट भी कम हो रहा है।
गढ़वाली कविता का भविष्य तो उज्जवल दिख रहा है. हाँ कवियों को
अपने कवित्व में स्व विकास आवश्यक है
गीतेश नेगी - गढ़वाली में ग़ज़ल विधा में भी आजकल खूब लिखा जा रहा
है ,संभावना की दृष्टि से गढ़वाली ग़ज़ल का भविष्य
आपको कैसा दिखता है ? कुछ नाम जो इस विधा में सक्रिय योगदान दे रहे हैं ?
भीष्म कुकरेती - गजल का अपना चरित्र है कि यह फटाफट आकर्षित
करती है। गजल तो अब गढ़वाली साहित्य में जमी रहेगी। पुराने गजलकार जैसे नेत्र सिंह असवाल
, मदन डुक्लाण , मधुसुधन, उमा भट्ट आदि तो जमे
हैं किन्तु जगमोहन बिष्ट , शशि देवली , अतुल गुसाई , पयास पोखड़ा आदि ने दस्तक दी है कि हम भी कम
नही हैं। मदन डुकलाण के आने वाले गजल संग्रह हेतु कई नए गजलकार सामने आएं जो शुभ संकेत
है।
गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य में व्यंग्य विधा में हो रहे साहित्य
सर्जन पर आपकी क्या राय है ? आपको नहीं लगता की इस दौर में गढ़वाली व्यंग्य , कविता को बराबर टक्कर
दे रहा है और खूब पढ़ा और पसन्द किया जा रहा है ? गढ़वाली व्यंग्य साहित्य
का भविष्य आपको कैसा दिखता
है ? कुछ नयी संभावनायें ,कुछ नये चेहरे ,कुछ नये
नाम ?
भीष्म कुकरेती - हाँ आजकल कविता के बाद व्यंग्य अधिक लिखा जा
रहा है। वास्तव में राजनैतिक व सामाजिक वातावरण
व्यंग्य लिखने के लिए फर्टाइल जमीन सिद्ध हो रही है। पाठक भी व्यंग्य से जुड़ रहे हैं। व्यंग्य तो हमेशा
रहेगा गढ़वाली में। प्रथम आधुनिक कथा व प्रथम व्यंग्य ही थे। भीष्म कुकरेती , नरेंद्र कठैत ,
पाराशर गौड़,
हरीश जुयाल के बाद गढ़वाली को सुनील थपलियाल घँजीर एक सशक्त व्यंग्यकार मिला है
गीतेश नेगी - गढ़वाली गद्य में किन किन विधाओं में सर्जन कार्य
हो रहा है ? क्या गद्य की अपेक्षा पद्य ही तरफ ज्यादा जोर नहीं है?
भीष्म कुकरेती - व्यंग्य छोड़ गद्य के अन्य विधाओं में कुछ भी
नही हो रहा है। रन्त रैबार में पत्रकारिता
का गद्य छोड़ दें और धाद के विशेषांकों के निबन्धों को छोड़ दे तो सूखा ही है। पद्य का
जोर अधिक है। दुःख इस बात का है कि गढ़वाली नाटकों
में सुन्नपट्ट आया है। बल साहित्य तो अपेक्षित ही है जमानों से।
गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य सम्मेलनों/ मंचों और साहित्यिक संस्थाओँ
द्वारा केवल कविता को जायदा महत्व दिया जा रहा है ? आपको नहीं लगता की इन स्थानों पर गद्य या साहित्य के अन्य विधाओं
,पहलुओं को हासिये पर रखा जा रहा है ?
भीष्म कुकरेती - वास्तव में यह सभी भाषाओँ में भी पाया जाता
है। ऑडिएंस को कविया अधिक पसन्द होती है। शरद जोशी व के पी सक्सेना हों तो गद्य भी सम्मेलनों
में पढा जाएगा।
गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य में आलोचना-समालोचना के क्षेत्र
में कितनी प्रगति हुई हैं ,वर्तमान में हो रहा कार्य क्या संतोषजनक कहा जा सकता है ? क्या आपको इन विधाओं में कुछ नयी
संभावनायें कुछ नए सर्जक कहीं दिखाई
पढ़ते हैं ?
भीष्म कुकरेती - आलोचना , समीक्षा विधा बची है। वीरेंद्र पंवार व संदीप रावत की पुस्तकें इसका प्रमाण
है। इंटरनेट पर तारीफ़ वाली टिप्पणियां सही
ये टिप्पणियां संभावनाएं की ओर इंगित करती हैं।
गीतेश नेगी -क्या आज भाषाई विरासत के निब्त एक
और नये सशक्त लोकभाषा आंदोलन की जरूरत आपको महसूश होती है ?
भीष्म कुकरेती - जी दिल्ली -मुम्बई सरीखे शहरों में कैच द्यम
यंग के निबत आंदोलन की आवश्यकता है।
गीतेश नेगी -लोकभाषा साहित्य के प्रचार प्रसार और विस्तार में सरकार और सामाजिक संस्थाओं की क्या भूमिका हो सकती है ? क्या वे इस दिशा सार्थक और वांछित भूमिका
का पूरी सिद्दत के साथ निर्वाहन कर रहे हैं ?
भीष्म कुकरेती - किसी भी भाषा का विकास सरकार नही अपितु समाज
करता है। तो सामाजिक संस्थाओं को लीड लेने
की अति आवश्यकता है। सामाजिक संस्थाओं को भी जगाने की आवश्यकता है।
गीतेश नेगी -राज्य की नवगठित सरकार से
एक समर्पित गढ़वाली साहित्यकार के रूप में आप क्या अपेक्षा रखते हैं ?
भीष्म कुकरेती - अपेक्षाएं तो बहुत थीं किन्तु अब केवल निराशा
ही है बस।
गीतेश नेगी -नयी पीढ़ी
के लेखकों और गढ़वाली कुमाउनी भाषा -साहित्य प्रेमियों -पाठकों को आप क्या सन्देश देना
चाहेंगे ?
भीष्म कुकरेती - साहित्यकार लिखते रहें और पाठक पढ़ते रहें तो
अपने आप सब सुधर जाएगा
सर्वाधिकार सुरक्षित (रीजनल रिपोर्टर, हलन्त में पूर्व प्रकाशित )
No comments:
Post a Comment