साक्षात्कार
गढ़वाली भाषा-साहित्य का एक जीवन्त ज्ञानकोश - भगवती प्रसाद नौटियाल
श्री भगवती प्रसाद नौटियाल गढ़वाली और हिन्दी के जाने माने समालोचक और प्रख्यात समीक्षक हैं। साहित्य ,संस्कृति और हिमालय पर सैकड़ों शोधपरक लेख लिखने वाले प्रबुद्ध साहित्यकार श्री भगवती प्रसाद नौटियाल जी ने जहां एक ओर महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल की प्रसिद्ध कविता ‘ठ्यकरया’ की समीक्षा लिखकर गढ़वाली भाषा में कविताओं में समीक्षा की शुरुआत की वहीं दूसरी ओर प्रख्यात साहित्यकार अबोध बंधु बहुगुणा रचित गढ़वाली महाकाव्य भूम्याळ की भूमिका लिखकर गढ़वाली में भूमिका लेखन की शुरुआत भी की। श्री नौटियाल जी को समालोचना और समीक्षा के क्षेत्र में एक अनुभवी विशेषज्ञ के रूप में जाना जाता है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेन्द्र कठैत के अनुसार गढ़वाली साहित्य में नौटियाल जी का व्यक्तित्व एक ऐसे सख्त मिजाज शिक्षक के रूप में आता है जिसकी कक्षा में हर कोई विद्यार्थी अनुशासन में बंधा रहता है। कई ऐसे कलमकार हैं जिन्होनेे नौटियाल जी को अपना होम वर्क कभी दिखाया ही नहीं है। और कई ऐसे हैं जिन्होने होम वर्क दिखाने के बाद उनकी टिप्पणियों को ही तह खाने में दफन करना उचित समझा। गढ़वाली साहित्य के साथ-साथ हिन्दी में भी आपने वृहद कार्य किया है। ‘हिन्दी पत्रकारिता की दो शताब्दियां और दिवंगत प्रमुख पत्रकार’ तथा ‘मध्य हिमालयी भाषा, संस्कृति, साहित्य एवं लोक साहित्य’ नाम से प्रकाशित दोनों पुस्तकें शोध संदर्भित हैं। साहित्य-संस्कृति पर विविध शोध कार्यों,कार्यशालाओं में श्री नौटियाल जी की सदैव सृजनात्मक भागीदारी रही है। वृहत त्रिभाषीय (गढ़वाली ,हिन्दी ,अंग्रेजी ) शब्दकोश के निर्माण में सम्पादक के रूप में भगीरथ योगदान निभाने वाले कई ग्रन्थों के सम्पादक ,हिन्दी और गढ़वाली के वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवती प्रसाद नौटियाल से युवा गढ़वाली लेखक गीतेश नेगी के सृजन संवाद के मुख्य अंश ............
गीतेश नेगी - आपके प्रारम्भिक जीवन ,शिक्षा आदि के विषय में कुछ बतायें ?
भगवती प्रसाद नौटियाल - मेरा जन्म १० मई सन्न 1931 ,ग्राम गौरीकोट , इडवालस्यूँ,पौड़ी गढ़वाल में हुआ। कक्षा ३ तक की शिक्षा गाँव हुई फिर सन्न 1938 मैं पिताजी के साथ दिल्ली आ गया था। एम ० बी ० प्राइमरी स्कूल ,कश्मीरी गेट से कक्षा ४ उत्तीर्ण करने के बाद सन्न १९३९ में मेरा दाखिला अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल हैप्पी स्कूल ,कश्मीरी गेट में कर दिया गया। फीस थी ५ रुपये महीना । सन 19४१ -४२ में साम्प्रदायिक दंगों के कारण पिताजी मुझे गाँव में ही छोड़ गए थे। सन्न १९४३ में पिताजी की स्वास्थय समस्या के कारण मैं उनके साथ पौड़ी रहा फिर सन्न १९४४ को हम फिर से दिल्ली लौट गये जहाँ मुझे कक्षा ६ में हैप्पी स्कूल ,कश्मीरी गेट में पुनः दाखिला मिल गया । मेरी एम ० ए ० (ऑनर्स ) तक की शिक्षा दिल्ली में ही हुई ।
गीतेश नेगी - आपकी साहित्य सृजन यात्रा की शुरुआत कब और कहाँ से हुई ?
भगवती प्रसाद नौटियाल - नेगी जी साहित्य सृजन तो बहुत बड़ी बात है ,मैं नहीं जानता की मैने साहित्य सृजन की ओर कभी कदम उठाया ,अलबत्ता छुट-पुट लेखन अवश्य किया है जिसकी शुरुआत हाईस्कूल की परीक्षा के बाद सन्न १९५० में ,जब मैने हिन्दू कालेज ,दिल्ली में प्रवेश लिया था तो कालेज पत्रिका इन्द्रप्रस्थ में एक छोटे से हिन्दी लेख गीता के दसवे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण से हुई थी । इसके बाद एम ० ए ० (ऑनर्स ) तक प्रतिवर्ष मैं हिन्दू कालेज की इस पत्रिका में लेख लिखता रहा ,इस पत्रिका में मेरा अन्तिम लेख था वीर वधु देवकी जो श्री भजन सिंह ‘सिंह’ जी की वीर वधु देवकी पर आधारित था ।इस लेख मैं मैने एक समीक्षक की दृष्टि डाली थी।वस्तुतः यही वह लेख था जिससे मेरे भीतर का समीक्षक मुखरित हुआ था ।
सन्न १९५४ -५७ तक तथा सन्न १९६७-७० तक भाई नन्दकिशोर नौटियाल आदि द्वारा दिल्ली से प्रकाशित पर्वतजन, भाई द्वारिका प्रसाद उनियाल द्वारा सम्पादित हिमालय टाइम्स तथा शिवानन्द नौटियाल जी की पत्रिका शैलवाणी के लिए कुछ ना कुछ लिखता रहा ।उसके बाद नन्दकिशोर भाई बिल्टज में बम्बई चले गये ,द्वारी भाई हिमालय टाइम्स को लेकर शिमला चले गये और शिवानन्द नौटियाल जी विधायक बनकर लखनऊ चले गए ।
सन्न १९५९ में भारत सरकार के मंत्रालय ,वैज्ञानिक अनुसंधान एवं सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय में मैं पुस्तकालयाध्यक्ष के पद पर चयनित हो गया । इस मंत्रालय के मंत्री थे प्रो ० हुमायुं कबीर । एक दिन हुमायुं साहब ने मुझे अचानक तलब कर लिया। उनका पहला प्रश्न था - पुस्तकालय विज्ञान के अतिरिक्त क्या जानते हो ? मैने बहुत ही धीमे स्वर में उत्तर दिया - महोदय ,मैं संस्कृति और हिमालय आदि पर कभी कभी लेख लिख लेता हूँ ,यही मेरी रूचि के विषय हैं । बात आई गई सी हो गई ,इस मंत्रालय की एक संस्कृति नाम की पत्रिका थी जो वर्ष में एक बार ही प्रकाशित होती थी । एक दिन मैं अपनी टेबल पर बैठा ही था कि संस्कृति के सम्पादक द्विवेदी जी ने पूछा - क्या पुस्तकों (हिन्दी पुस्तकों ) की समीक्षा कर सकोगे ? मुझे तो जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गई । मैने चट से हाँ कह दिया । फिर क्या था मुझे संस्कृति में पुस्तकों की समीक्षा का काम मिल गया । इससे मुझे दो लाभ हुए ,एक तो कुछ मुद्रा का जुगाड़ हो गया और दूसरे नाम हो गया। मेरी समीक्षाओं से द्विवेदी जी बहुत खुश हुए , समीक्षा के साथ साथ मुझे अंग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद का काम भी द्विवेदी जी देने लगे ।
सन्न १९६३ में यह मंत्रालय शिक्षा मंत्रालय में विलीन हो गया - ऐसे में मुझे अब शिक्षा मंत्रालय मैं जोड़ दिया गया । हुमायुं कबीर साहब के मंत्रालय में रहते हुए संस्कृति के लिए मैने कई लेखकों की पुस्तकों की समीक्षा की जिनमे नई कविता ,नई आलोचना और कला (विमल कुमार ),विश्व के दार्शनिक (रत्न चन्द्र शर्मा),चिट्ठी रसेन ,मेरी तीस कहानियां ,कबूतरखाना (शैलेश मटियानी ),जीवन रश्मियां ,सुमित्रा नन्दन पंत रू स्मृति चित्र (गुलाब राय ), सात साल (मुल्कराज आनन्द ),भैरवी ,अतिथि (गौरा पंत शिवानी ),पतझर , आखीरी आवाज (रांगेय राघव ),जीवन और जवानी (दिनेश देवराज ),हिमालय में संस्कृति ( विश्वम्भर सहाय प्रेमी ),वैरियर आल्विन की सफलताएं (आर ० के ० लेसर ) , पर्वताकार प्रारब्ध हिमालय ( लाइफर वाल्टर ,रुपांतरकार -शशिबंधु ) आदि प्रमुख हैं।
इस बीच गढ़वाली हिन्दी भाषा में मेरे लेख ,पुस्तकों की समीक्षाएं आदि उत्तराखण्ड के लगभग सभी आंचलिक व राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे । पिछले ६०-६५ वर्षों की अवधि में मेरे २०० से अधिक लेख और ५५ -६० पुस्तकों की समीक्षाएं एवं समीक्षात्मक लेख प्रकाशित हो चुके हैं । उत्तराखण्ड के जिन महान गढ़वाली और कुमांऊनी लेखकों,कवियों ,नाटककारों ,व्यंग्यकारों ,कहानीकारों की रचनाओं समीक्षा मैने की है उनमे मुख्य हैं - डा ० महावीर प्रसाद गैरोला ,डा ० रमेश पोखरियाल निशंक ,दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल, शैलेश मटियानी ,कमल साहित्यालंकार ,शिवराज सिंह रावत निःसंग ,कुलानन्द घनशाला ,राधाकृष्ण पंत, ललित केशवान ,मदन मोहन डुकलाण ,सत्य प्रसाद रतूड़ी (सम्पादक ) ,गोकुलानंद किमोठी ,आचार्य रघुनाथ भट्ट ,प्रेमलाल भट्ट ,बुद्धि बल्लभ थपलियाल ,धर्मानन्द उनियाल ,राजेन्द्र सिंह राणा ,वीणापाणि जोशी ,नरेन्द्र कठैत ,डा० गंगा प्रसाद विमल सुदामा प्रसाद प्रेमी ,अबोध बंधु बहुगुणा ,सन्दीप रावत ,शेर सिंह गढ़देशी , चिन्मय सायर ,देवेन्द्र जोशी ,जीत सिंह नेगी और जयांनद खुगशाल बौळ्या आदि । गढ़वाली चलचित्र तेरी सौं और घरजवैं की समीक्षाएं भी लिखीं । देहरादून से प्रकाशित युगवाणी और हलन्त पत्रिकाओं के अनेक लेखों आदि पर अभिमत लिखे जो एक प्रकार की समीक्षाएं ही हैं । पहाड़ (सम्पादक प्रो ० शेखर पाठक ) की समीक्षाएं आदि भी लिखीं ।
पहाड़ सहित दिल्ली तथा देहरादून की कई संस्थाओं का आजीवन सदस्य रहा/हूँ , इनमे गढ़वाल साहित्य मण्डल ,दिल्ली ,गढ़वाल हितैषिणी सभा ,दिल्ली ,गढ़वाल भ्रातृ परिषद ,दिल्ली,हिमालय कला संगम ,दिल्ली,गढ़वाल अध्ययन प्रतिष्ठान ,देहरादून ,अखिल गढ़वाल सभा ,देहरादून ,उत्तराखण्ड नागरिक परिषद और हमारी चिट्ठी व धाद देहरादून आदि प्रमुख हैं।इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज ,नई दिल्ली ,इंडियन मॉउंटेनीरिंग फाउंडेशन ,नई दिल्ली से भी जुड़ा रहा और उत्तराखण्ड भाषा संस्थान की कार्यकारणी का सदस्य भी रहा हूँ ।
गीतेश नेगी - गद्य आपके लेखन में अधिक शुमार रहा है ,इसमे किन किन विषयों और विधाओं में आपका अधिक लेखन रहा ?
भगवती प्रसाद नौटियाल - साहित्य लेखन कहो चाहे हिन्दी -गढ़वाली लेखन -इसकी शुरुआत गद्य लेखन से ही हुई ,तथा गद्य लेखन ही लेखन का मुख्य माध्यम रहा । लेखन में संस्कृति और हिमालय मेरे प्रिय विषय रहे और समीक्षा और समालोचना मुझे अधिक पसन्द रही। हिन्दी ,गढ़वाली कविता ,कहानी आदि पढ़ते -पढ़ते या देखते देखते जहाँ पर भी मेरी आँखे थम जाती ,समालोचना शुरू हो जाती ,शायद मैं जन्मजात समीक्षक ही हूँ । वैसे ज्यादातर समीक्षाओं में लेखकों ने मुझे सराहा पर हर्बि -हर्बि एक ऐसी कविता और गजल की पुस्तक रही जिसका लेखक मेरे द्वारा की गई समालोचना को अंगीकार नहीं कर सका और मेरे लिए वह सब कहा गया जो कुछ भी समाज में अकथ्य है।
गीतेश नेगी - गढ़वाली साहित्य में भूमिका लेखन के क्षेत्र में आपका ऐतिहासिक कार्य रहा है ,इस विषय पर थोड़ा विस्तार से जानकारी चाहूँगा कि लगभग कितनी पुस्तकोँ की भूमिका आपने लिखी और कुछ ख्यात लेखक ,साहित्यकार और कवि जिनकी पुस्तकों की भूमिका आपने लिखी ?
भगवती प्रसाद नौटियाल - दिल्ली में सत्तर और अस्सी के दशक में गढ़वाली में लेखन (कविता ,कहानी आदि ) चरम पर रहा इस दौरान भूमिका लेखन के कई मौके आये ,पर मैं टाल जाता था पर सन्न १९७७ में महाकाव्य भूम्याळ की भूमिका लिखने से नहीं बच सका । भूम्याळ के प्रकाशन से पूर्व हिमालय कला संगम के सदस्यों ने सोची समझी कार्यविधि के अन्तर्गत मुझे ना चाहने पर भी संस्था का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया। अध्यक्षता ग्रहण करते ही मेरे सामने भूम्याळ महाकाव्य के प्रकाशन का प्रश्न खड़ा हो गया । यथार्थ में शिवानन्द नौटियाल जी ने लखनऊ से १५०० रुपये भूम्याळ के प्रकाशन हेतु भिजवाये थे । १५०० रुपये में तो भूम्याळ छपता नहीं ,अतः यह सोचते हुए की मैं ही इसमे कुछ मदद कर सकता हूँ ,मुझे अध्यक्ष मनोनीत किया गया। खैर भूम्याळ प्रकाशित हुआ और अध्यक्ष होने के नाते मुझे उसकी बहुत की कम शब्दों में भूमिका भी लिखनी पड़ी ।
सन्न १९७०-८० के दशकों में गढ़वाली भाषा में साहित्य के किसी भी क्षेत्र में लेखक ,कवि ,आदि साहित्यिक गोष्ठियों अथवा कवि सम्मेलनों आदि में डा० गोविन्द चातक व भगवती प्रसाद नौटियाल को विशेष रूप से आमंत्रित करते थे चाहे आयोजन दिल्ली में हो या देहरादून आदि में। ये सब लेखक/कवि हमसे सुझाव आदि की अपेक्षा रखते थे ,यहाँ तक की महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल भी। डंडरियाल जी की शायद ही कोई कविता या नागरजा की कोई पंक्ति ऐसी हो चर्चा करने के लिए डंडरियाल जी मेरे घर पर ना आये हों। पर विडम्बना देखिये की उन्होने अपनी किसी भी कृति में नहीं लिखा कि.........
कहाँ तक लिखूं साहित्यकार अपना काम निकल जाने के बाद अक्सर भूल जाय करते थे ,यही स्थिति अबोधबंधु बहुगुणा जी की भी थी । हिमालय कला संगम द्वारा संकलित एवं प्रकाशित तथा बहुगुणा जी द्वारा सम्पादित शैलवाणी में बहुगुणा जी ने भूमिका या जो भी आप नाम दें ,में मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ तो उद्वरित की परन्तु पुस्तक में कवि रूप में मेरा कहीं नाम तक नहीं लिखा । मेरा नाम लेना नहीं भूले तो वो थे गढ़वाली भाषा के कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार डा० महावीर प्रसाद गैरोला ,दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल ,शिवराज सिंह रावत निःसंग ,ललित केशवान,सुरेन्द्र चैहान (चिन्मय सायर),नरेन्द्र कठैत ,कुलानन्द घनसाला और सन्दीप रावत ।
गढ़वाली भाषा में मैने डा ० महावीर प्रसाद गैरोला ,अबोध बंधु बहुगुणा ,कुलानन्द घनसाला ,दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल ,चिन्मय सायर ,आर ० के ० शर्मा ,गोपाल दत्त भट्ट ,जीत सिंह नेगी ,नरेन्द्र कठैत ,चन्द्रदत्त सुयाल ,राधाकृष्ण पंत ,सर्वेश जुयाल ,शिवराज सिंह रावत निःसंग,डा ० उमाशंकर सतीश ,ललित केशवान ,शेर सिंह गढ़देशी ,डा ० प्रीतम अपछ्याण,प्रेम लाल भट्ट आदि सहित लगभग ३०-३५ भूमिकाएं लिखी होंगी ।
गीतेश नेगी - भूमिका लेखन की साहित्य में क्या भूमिका है ? आपकी नजर में गढ़वाली साहित्य को साहित्य की इस परम्परा से क्या लाभ हुआ ?
भगवती प्रसाद नौटियाल - नेगी जी आपका प्रश्न काफी मुश्किल है ,मुश्किल इसलिए की इस पर सीधे सीधे कुछ कहा/लिखा नहीं जा सकता । काव्य दर्पण के पण्डित आचार्य मम्मट ने एक स्थान पर लिखा है - कविः करोति काव्यानि रसं जानाति पण्डितः अर्थात लेखक तो ग्रन्थ की रचना कर देता है पर वह ग्रन्थ कैसा है ? उसमे मुख्यतः क्या वर्णित है ? उसकी भाषा शैली में मौलिकता है की नहीं ,विषय प्रवेश किस प्रकार का है ? क्या लेखक ने पुस्तक की कथावस्तु के साथ न्याय किया है की नहीं ? आदि की विस्तृत जानकारी पण्डित अर्थात भूमिका लेखक/समीक्षक ही देता है ।
भूमिका लेखक और समीक्षक में बाल बराबर का अन्तर होता है । भूमिका लेखक पुस्तक को पढता है ,समीक्षक पुस्तक और लेखक दोनों को पढता है । पुस्तक की प्रमाणिकता को विधिवत स्थापित करने के लिए ही लेखक ,उस विद्वान से भूमिका लिखने का निवेदन करता है ,जिसे बौद्विक समाज परिचित हो साथ भाषा एवं साहित्यिक विधाओं से जुड़ा हो । भूमिका लिखने/लिखवाने का पुराना रिवाज है । इससे पुस्तक के विषय की जानकारी तो होती ही है,पाठकों को बहुत लाभ भी होता है । भूमिका पाठक के लिए एक प्रकार का दरवाजा है ,जिससे गुजरकर वह पुस्तक के कार्य विषय तक पहुँचता है ।
नेगी जी मैं जितना कुछ पढ़ पाया या देख पाया ,गढ़वाली साहित्य को इस परम्परा से कुछ विशेष लाभ नही हुआ । गढ़वाली मानुष पाठक नही है ,ना हिन्दी का ना गढ़वाली का । लेखक अपनी ऊर्जा को कागज के पन्नो पर छितरा देता है ,भूमिका लेखक उस छितरे हुए के प्रति न्याय करता है ,पर पाठक - द भै -कै मू च इथग टैम जु तै रंगड़वात पर अपणु दिमाग खपाउ। जिसने भी जितनी पुस्तके (गद्य/पद्य ) लिखीं ,उसने उनको खुद बेचा या घर के एक कोने में सजा दिया , और जिसने उन पुस्तकों को खरीदा उसने भी उन्हे अपने तक ही सिमित रखा । देखने में आया है की लेखक/कवि अपनी पुस्तकों की भूमिका उन विद्वानों से लिखवाते हैं ,जिन पर विश्वास होता है कि वे हितैषी हैं अहित नहीं करेंगे यही स्थिति पुस्तकों की समीक्षा आदि के साथ भी है । और अब तो गढ़वाली के लेखक भी गिने चुने रह गये हैं । कभी कवि सम्मेलन होता है तो कुछेक कवि अपनी कविताओं के साथ जरूर दिखाई दे जाते हैं । यदि कुछ गलत कह रहा हूँ तो आप ही बताइए ।
गीतेश नेगी - गढ़वाली साहित्य में आलोचना,समालोचना ,समीक्षा की वर्तमान दशा और दिशा पर आपके विचार जानना चाहूँगा? क्या आलोचना गढ़वाली साहित्य में अपने धर्म और उत्तरदायित्व का कुशलतापूर्वक पालन करती दिख रही है ?
भगवती प्रसाद नौटियाल - गीतेश जी आलोचना समालोचना ,लेखक और कृति दोनों को दिशा प्रदान करने का कार्य करते हैं । साहित्य की कोई भी विधा -कविता ,नाटक ,उपन्यास ,कहानी आदि अतीत का दस्तावेज नही है ,वह वर्तमान के लिए जीवन शक्ति है । आलोचक अपनी विवेचना द्वारा रचनात्मक साहित्य को सम-सामयिक जीवन के सन्दर्भ देखता है । होना तो यह चाहिए की लेखक अपने साहित्य की आलोचना/समालोचना करने के लिए समालोचक से सन्देह वार्ता करे ताकि वह उसकी कृति की समालोचना/समीक्षा विधि विधान के अनुरूप कर सके। आलोचक के लिए यह जरूरी है की वह अपने समय की समस्याओं के प्रति जागरूक हो किन्तु यह जागरूकता ही सब कुछ नहीं है । आलोचक/समालोचक/समीक्षक के लिए साहित्यिक समझ के साथ साथ सांस्कृतिक परम्परा का गहरा और बहुमुखी ज्ञान भी जरूरी है । उसमे परम्परा के सन्दर्भ के बौद्विक स्तर पर विवेचन की क्षमता होनी चाहिए । राजनीति ,भाषा ,धर्म आदि के प्रति उसकी दृष्टि यथार्थवादी होनी चाहिए । समालोचक के विषय में अंग्रेजी भाषा के एक लेखक ने कहा है - " A Critic is a man whose watch is five minute ahead of other people's watch ."अर्थात वह सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति से बहुत पहले ही लेखक का कथ्य और मंतव्य समझ लेता है ।
आलोचना गढ़वाली साहित्य में अपने धर्म और उत्तरदायित्व का पालन करने असमर्थ है ,लेखक,कवि ,नाटककार आदि नही चाहते कि उनके लिखे पर कोई किन्तु-परन्तु तथा कौमा या सेमिकोलन लगाए ।
गीतेश नेगी - गढ़वाली साहित्य की वर्तमान दशा और दिशा कैसे है ? किन - किन विधाओं पर अच्छा काम हो रहा है ?
भगवती प्रसाद नौटियाल - नेगी जी गढ़वाली साहित्य गति नहीं पकड़ पा रहा है । इसका सबसे बड़ा कारण यह है साहित्य चाहे गढ़वाली हो या हिन्दी गढ़वाली जनसमाज ( प्रबुद्ध व्यक्तियों से लेकर जन साधारण सभी ) पाठक नही है ,पैसा खर्च कर पढ़ना उसके भाग्य में नहीं है (कुछ अपवाद को छोड़कर ),उत्तराखण्ड सरकार हिन्दी ,उर्दू ,पंजाबी और संस्कृत के लिए तो दबादब अकादमी भी बना रही है और अन्य सुविधाएं भी प्रदान कर रही है जबकि ये सब भाषाएं संविधान की ८ वी अनुसूची में पहले से ही हैं और खूब फली फूलीं हैं पर उत्तराखण्ड की अपनी भाषाओं विशेषकर गढ़वाली कुमाऊनी के लिए उसके कान पर जूं तक नही रेंग रही है । सरकारी तंत्र सिर्फ उन्ही लोगों को जानता है जो भाषा को नहीं जानते । हर जिले के अपने अपने धड़े हैं जिन्हे स्थानीय विधायक बहला फुसला लेते हैं । दुर्भाग्यवश एकजुट ना तो साहित्य सेवी ही होते हैं और ना ही साहित्य प्रेमी । ऐसे में आप सोच सकते हैं की क्या आशा की जा सकती होगी ।
दूसरी और नजर डालें तो कहाँ हैं लेखक ,कवि ,नाटककार आदि ?
गढ़वाली का पहला महाकाव्य -गढवीर महाकाव्य सन्न १९२७-२८ मैं प्रकाशित हुआ,दूसरा महाकाव्य भूम्याळ सन्न १९७७ अर्थात पचास साल बाद प्रकाशित हुआ ,तीसरा महाकाव्य उत्तरायण सन्न १९८७ में प्रकाश में आया उसके बाद सन्न १९९३ में नागरजा प्रकाशित हुआ । इसी सन्दर्भ में गढ़वाली का पहला उपन्यास पारबती सन्न १९८१ में प्रकाशित हुआ , इसके बाद अकलबर को ?, शेरू ,ब्योली ,निमाणी, भुगत्यूँ-भविष्य ,उच्याणो,नाता ना पाथा, औडा हटै द्या ,निरबिजु ,सबला और बीसवीं सदी को विरही यक्ष आदि ही प्रकाशित हो सके। ये स्थितियां ऐसी हैं जो हतोत्साहित करती हैं । कमोबेश यही दशा गढ़वाली कहानी संग्रहों की भी है। काव्य संग्रह हतोत्साहित तो नहीं कर रहे हैं पर उनमे वह गूढ़ता बहुत कम नजर आती है जिसे काव्य का मर्म कहा जाता है। नाटक लिखे भी जा रहे हैं ,मंचित भी हो रहे हैं पर प्रकाशित नहीं हो पा रहें हैं। अभी तक इस दिशा में एक दो ही नाम सामने आते हैं। अब आप ही बताएं -नरेंद्र कठैत के व्यंग्यों ने और कुलानंद घनशाला के नाटकों ने कुछ लाज बचाई हुई है । चिन्मय सायर कुछ अच्छी और दार्शनिक सोच वाली कविता लिख रहे थे परन्तु दुर्भाग्यवश वो असमय ही काल के ग्रास हो गए ।
नेगी जी एक बार फिर से दोहरा देता हूँ - गढ़वाली साहित्य का तब तक कोई भविष्य नहीं है जब तक (१) पाठक वर्ग पैदा ना हो (२) भाषा को संविधान की ८ वी अनुसूची में स्थान नहीं मिलता ।
गीतेश नेगी - गढ़वाली भाषा शब्दकोश निर्माण पर आपके विचार/अनुभव
भगवती प्रसाद नौटियाल - गढ़वाली भाषा का अपना शब्दकोश होना चाहिए ,यह विचार सर्वप्रथम गढ़वाली साहित्य परिषद् ,लाहौर के विशिष्ट सदस्य प० बलदेव प्रसाद नौटियाल के मस्तिष्क में कौंधा । उन्होने एक शब्द-गवेषणा समिति का गठन किया जिसके वे सयोंजक थे और सदस्य थे - प० श्रीधरानन्द घिल्डियाल ,व्याकरणाचार्य और प० शिव प्रसाद घिल्डियाल ,शास्त्री । परिषद के बाहर से भी अनेकों विद्वानों का उन्हे सहयोग प्राप्त था ,जिनमे मुख्य थे - प० चक्रधर बहुगुणा ,शास्त्री ,प्रो० भगवती प्रसाद पांथरी ,कविवर महंत योगीन्द्र पुरी ,शास्त्री ,प० श्रीधरानन्द नैथानी व श्री भक्तदर्शन आदि । इन्होने लगभग दस -बारह हजार शब्द एकत्र किये और शब्दकोश को नाम दिया - गढ़वाली शब्द भण्डार पर भारत विभाजन के कारण इन सबको लाहौर दिल्ली आना पढ़ा और स्थिति ऐसी बनी की वह शब्द भण्डार अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया ।
प० बलदेव प्रसाद नौटियाल के बाद मास्टर जयलाल वर्मा ने - गढ़वाली भाषा शब्दकोश का निर्माण किया । इस शब्दकोश में लगभग चार हजार शब्द हैं । यह शब्दकोश सन्न १९८२ में प्रकाशित हुआ था और इसकी भूमिका डा० शिव प्रसाद डबराल (इतिहासविद ) ने लिखी थी । गढ़वाली भाषा का दूसरा शब्दकोश श्री मालचन्द रमोला का गढ़वाली-हिन्दी शब्दकोश है जो सन्न १९९४ में प्रकाशित हुआ था । इसमे भी लगभग चार हजार के आसपास शब्द हैं ।तीसरे शब्दकोश - गढ़वाली हिन्दी शब्दकोश के सम्पादक हैं श्री अरविन्द पुरोहित और श्रीमती बीना बेंजवाल । इसमे शब्दों की संख्या तो दस हजार से ऊपर ही है पर शब्दों के अर्थों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है ।चौथा शब्दकोश है -वृहत त्रिभाषीय (गढ़वाली ,हिन्दी ,अंग्रेजी ) शब्दकोश । इसमे बत्तीस हजार से अधिक शब्द हैं,शब्दकोश के सम्पादक हैं- भगवती प्रसाद नौटियाल और डा० अचलानन्द जखमोला। कोश निर्माण अधिकांशतः एक सामूहिक और संस्थागत प्रयास होता है । इस निमित्त मैने अखिल गढ़वाल सभा ,देहरादून का आश्रय लिया । आश्रय इसलिए की इस शब्दकोश निर्माण के लगभग ६ वर्षों तक मैं अखिल गढ़वाल सभा में ही रहा । अखिल गढ़वाल सभा ने मेरे रहने के लिए सभी सुविधाओं से युक्त कक्ष की और मेरे भोजन इत्यादि की भी समुचित प्रकार से व्यवस्था कर रखी थी । इन ६ वर्षों में सम्पूर्ण गढ़वाल मण्डल से अपितु दिल्ली ,अहमदाबाद आदि शहरों से भी विद्वानों को आमंत्रित कर कई दिनों तक अखिल गढ़वाल सभा में ही ठहराया जाता था। शब्दों को एकत्रित करने के लिए देहरादून,श्रीनगर ,गोपेश्वर ,कोटद्वार ,पौड़ी आदि स्थानों पर छोटी - छोटी सभाएं की और पुस्तकालय में प्रयोग होने वाले कैटालौग कार्ड हजारों की संख्या में बाटे, इस निवेदन के साथ कि एक कार्ड पर एक ही शब्द और उसका अर्थ लिखा जाय । और जब ५०० -१००० कार्ड हो जाएं तो उन्हे अखिल गढ़वाल सभा ,देहरादून में आकर दे जाएं । इन सभी कार्यो के नियोजन हेतु गढ़वाली भाषा और साहित्य समिति का गठन किया गया ताकि काम सुचारु रूप से चलता रहे । विद्वानों के ठहरने और उनके आने जाने का पुख्ता इंतजाम रहे। अखिल गढ़वाल सभा ,देहरादून ने इस उत्तरदायित्व को खुशी खुशी निभाया जिसके लिए मैं (भगवती प्रसाद नौटियाल ) सभा का ऋणी हूँ ।
यद्यपि गढ़वाली भाषा का शब्द भण्डार बहुत बड़ा है ,पर इस कोश के लिए जितने भी शब्द जुटाए गए वो समस्त गढ़वाल मण्डल का प्रतिनिधित्व करते हैं । दैनिक जीवन में काम आने वाले शब्दों के अतिरिक्त ,गढ़वाल मण्डल के जंगलों में पाए जाने वाले वृक्ष ,औषधीय पादप ,घास-फूंस ,खाने के सभी अन्न एवं सब्जियों आदि के नामों को हिन्दी -अंग्रेजी आदि के साथ -साथ उनके वनस्पतिक नाम भी दिए गए हैं । इसके अतिरिक्त संक्षिप्त व्याख्या ,विवरण ,व्याकरण ,परिभाषा ,प्रयोग,उद्वरण आदि सभी मिली जुली पद्धतियों और माध्यमों का उपयोग किया गया है ।
जब हिन्दी प्रचारिणी सभा ,बनारस ने पहला शब्दकोश - हिन्दी -हिन्दी पर कार्य किया था तो उन्हे भी छह -सात वर्ष लगे थे ,पर वो बहुत दुखी हुए थे द्य उनके बाद डा० हरदेव बाहरी ने जब प्रथम अंग्रेजी -हिन्दी शब्दकोश पर काम किया तो पूरे सात वर्ष लगाए ।
मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि शब्दकोश निर्माण बहुत ही उबाऊ कार्य है ,जिसके पास पर्याप्त समय हो तो ही शब्दकोश की बात कीजिए ,नहीं तो शान्ति से चुपचाप बैठे रहिए । मैं शब्दकोश बनाने के काम में कुछ अंश तक इसलिए सफल हो पाया क्यों कि मैं शब्दों के साथ ऐसे ही खेलता रहा जैसे हमारे क्रिकेटर बाल से खेलते रहते हैं । यदि आप भी खेल सकतें हैं तो जरूर शब्दकोश बनाएं ।
गीतेश नेगी - गढ़वाली भाषा साहित्य का भविष्य आप किस प्रकार से देखते हैं ? इसमे क्या क्या चुनौतियां आपको दिखाई देती हैं ? गढ़वाली भाषा -साहित्य के प्रचार प्रसार पर आपके विचार तथा नई पीढ़ी हेतु आपका कोई सन्देश ?
भगवती प्रसाद नौटियाल - यद्यपि इस प्रश्न पर मैं पहले भी बहुत कह चुका हूँ तथापि पुनः आपसे कह रहा हूँ - गढ़वाली का भविष्य आशातीत नही है । हमारा मानना है कि १८ वी १९ वी सदी से हम गढ़वाली में साहित्यिक रचनाएँ कर रहे हैं और हताशा की बात है की इस अवधि में हमारे पास चार महाकाव्य ,दस एक उपन्यास ,और कुछ गिनती के कहानी संग्रह हैं । यदि कुछ कविता संग्रह और व्यंग्यादि पुस्तकों की उपलब्धि नहीं होती तो हम क्या गिनती करते ? निबन्धों के नाम पर दो -तीन निबन्ध संग्रह हैं ,घुम्मकड़ी (यायावरी )साहित्य पर भी फकत एक पुस्तक देखने में आई है । कुछ वर्षो से कवि सम्मेलन तो खूब आयोजित किये जा रहे हैं पर विशुद्ध साहित्यिक गोष्ठियां लगभग शून्य सी हैं । क्या इस सबके होते हुए भी आप गढ़वाली भाषा साहित्य का उज्जवल भविष्य देख रहें हैं ?
विभिन्न विधाओं में सतत साहित्य सृजन और भाषा का दैनिक संवाद में स्वछंद प्रयोग के अतिरिक्त गढ़वाली भाषा का उज्जवल भविष्य सिर्फ और सिर्फ दो कारकों के क्रियान्वयन पर निर्भर करता है - (१) भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान मिले (२) साहित्यकार (लेखक,कवि ,नाटककार ,कहानीकार आदि ) एक मंच पर आकर भाषा को आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाने हेतु क्रमिक अनशन पर बैठें ,दूसरे कवि सम्मेलनों के साथ -साथ साहित्यिक गोष्ठियों का भी आयोजन करें । मेरे इन्ही शब्दों में में साहित्य के प्रचार प्रसार और नई पीढ़ी हेतु सन्देश भी छुपा हुआ है ।
यदि ऐसा हुआ तो गढ़वाली एक समृद्ध भाषा है निसंदेह इसके सुनहरे दिन जरूर आयेंगे ।
सर्वाधिकार सुरक्षित (हलन्त ,जनवरी 2018 अंक में पूर्व प्रकाशित )
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