हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Friday, May 25, 2018

श्री भीष्म कुकरेती व श्री गीतेश नेगी के बीच सृजन संवाद



श्री भीष्म कुकरेती गढ़वाली साहित्य  में एक जाना पहचाना नाम है । वे गढ़वाली साहित्य के ख्यात व्यंग्यकार ,समीक्षक  और आलोचक हैं तथा गढ़वाली भाषा साहित्य के प्रचार प्रसार में भी उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है । समय समय पर वे विभिन्न माध्यमो से गढ़वाली भाषा -साहित्य से जुड़े मूल मसलौं पर भी बेबाकी से अपनी राय रखते रहे हैं । इस दौर में जहाँ एक ओर यूनेस्को जैसी अन्तराष्ट्रीय संस्थाएं गढ़वाली -कुमाउनी आदि  भाषाओं के प्रति संवेदनशील  नज़र आती हैं तथा उनको संकटग्रस्त भाषाओं की श्रेणी  में सूचीबद्ध करती हैं तो  दूसरी ओर गढ़वाली -कुमाउनी भाषा साहित्य  से जुड़े लेखक ,कवि ,साहित्यकार और भाषा -संस्कृतिकर्मी भी अनवरत साहित्य सृजन द्धारा गढ़वाली -कुमाउनी  को संविधान की आठवी अनुसूची मे शामिल करने हेतु प्रयासरत हैं ,ऐसे समय में गढ़वाली साहित्य से जुडे विभिन्न पहलुओं और विभिन्न विधाओं में इसकी वर्तमान  सृजन स्थिति पर श्री गीतेश नेगी ने भीष्म कुकरेती जी से एक लम्बी बातचीत और बेबाक चर्चा की ।

पाठकों  हेतु पेश हैं इस लम्बी बातचीत और चर्चा के कुछ अंश :

गीतेश नेगी - गढ़वाली साहित्य सृजन की आपकी यात्रा कब और कहाँ से शुरू हुई ?
भीष्म कुकरेती -  यद्यपि  मैं विज्ञान का विद्यार्थी था किन्तु कथा साहित्य से रुझान शायद जन्मजात था। कविता बांचने  से मैं  आज भी डरता हूँ।  हाँ हास्य कवितायें मुझे पसन्द है।  साहित्यिक उपन्यास व जासूसी साहित्य दोनों को मैंने विद्यार्थी काल  में बहुत बांचा।  MSC में अंग्रेजी में सिद्धस्त होने के लिए अंग्रेजी उपन्यास  लिया।  सर्वप्रथम God Father बांचा  और फिर James Hadley Chase के व अन्य इतर POP लिटरेचर खूब पढा।
मुम्बई आने पर सेल्स लाइन में आने से मैनेजमेंट की पुस्तकें खूब पढ़ी।  किन्तु साहित्य से जुड़ा ही रहा। यहीं   विद्यार्थी काल के मित्र श्री गिरीश ढौण्डियाल भी साहित्य में रूचि  साहित्यिक चर्चा होती रहती थी।  मई एक संस्था  शैलसुमन  से जुड़ा वहां स्व प्रोफ शशि शेखर नैथानी , स्व अर्जुन सिंह गुसाईं जैसे साहित्यिक वृति के लोग मिले.  श्री देवेश ठाकुर से भी मिला।  बाद में सारिका के उप सम्पादक श्री सुरेश उनियाल भी मिल गए और साहित्यिक गोष्ठियों में  भाग लेने का मौका मिला, कला नाटकों को देखने का मूक मिला।  स्व कमलेश्वर , स्व मुद्गल व उनकी पत्नी से भी मिला हुआ।  जब सुरेश उनियाल जी दिल्ली आ गए तो कम्पनी काम से दिल्ली जाना होता था तो उनियाल जी के साथ  एक दिन पूरा  बिताता  था।  रमेश बत्रा जी, अवश्थी जी , रमेश  बिष्ट जी , बल्लभ डोभाल जी , गंगा प्रसाद विमल आदि से कॉफी हाउस में गोष्ठी सुनता था। 

गीतेश नेगी - तो आपने तब तक लेखन शुरू नही किया था ?
भीष्म कुकरेती -नही।  सुनने में आनन्द आता था।  सेल्स लाइन में टुरिंग  जॉब था तो नए नए लोग , नई नई संस्कृति के दर्शन होते थे। आज भी।  श्री अर्जुन सिंह से तकरीबन हर महीने मिलता ही था।  गुसाईं जी ने  हिलाँश प्रकाशन  शुर कर दिया था।  व मेरी बिल्डिंग में ही प्रोफेसर डोभाल के यहां साहित्यिक कछेड़ी  जमती थी।  मेरी शादी 11 मार्च 78 को कोटद्वार में हुयी और भोज देने गाँव भी गया था।शादी होने के बाद  मुम्बई आने के दो दिन बाद मैं कार्यालय जा रहा था कि अर्जुन सिंह जी मिल गए।  कहने लगे '" भीषम बाबू ! यार उत्तराखण्डी बड़े असंवेदनशील जैसे हो गए हैं। एक कहानी नही मिल रही है किसी से।  अगर आप लिख दें तो मार्च अंक के लिए कथा.. "
मैं तरोताजा गाँव से आया था और पलायन से उपजे नए सामाजिक समीकरण से आमना सामना हुआ था।  मैंने रात में ही अपनी शादी के अनुभव में कल्पना जोड़कर हिंदी में  'काली चाय ' कथा लिख डाली (काली चाय नाम गुसाईं जी ने दिया ) पलायन बिभीषिका  दर्शन था इस कथा में।  जब पाठकों ने कथा पढ़ी तो उन्हें लगा मैंने उनकी कथा लिख दी।  पिता जी के ड्राइवर थे स्व लाल सिंग जी।  वे कुमाऊं के थे और उन्होंने कथा पढ़कर कहा था ," पण्डि जी मेरे गांव कब गए थे।  म्यार गाँव की कथा च ... " . इसी तरह मुम्बई के कई पाठकों ने कथा पढ़ी और कथा नही असलियत कह कर प्रशसा  की।

गीतेश नेगी-  तो आपकी प्रथम कथा हिंदी में थी ?
भीष्म कुकरेती - जी हाँ और फिर दूसरी कथा तो मैंने स्व प्रेमलाल बड़थ्वाल जो बिल्डिंग में चौकीदारी करते थे व दिन में इनकम टैक्स ऑफिस की कैंटीन में काम करते थे की असल जिंदगी पर कथा लिख डाली।  इसमें नायक यहां कसकर मेहनत करता है, रहने को घर नही  और घर से उसके पिताजी नए मकान बनवाने के पत्र लिखा करते थे क्योंकि घर में दिखाना है कि मेरा बेटा कमाता है।  करुणामय कथा थी। इस पर बहुत ही अच्छे प्रतिक्रियाएं मिली कि यह भी रियल स्टोरी है।  हिलांस में सत्य घटनाओं या सच्ची नायिकाओं संबंधित कथाएं हिलांस में प्रकाशित हुईं।  अलकनन्दा के सम्पादक से गढ़वाली गद्य 'गाड म्यटेकी गंगा ' व शैलवाणी मिलीं। 

गीतेश नेगी- यहां से गढ़वाली साहित्य में प्रवेश ?
भीष्म कुकरेती - नही जी।  मेरी एक एक व्यंग्य कथा 'वेस्टर्न हल ' कथा हिलांस में छपी थी।  उसमे मैंने वजनदार वेस्टर्न हल उठाकर अपने गाँव से लयड़  पहाड़ी  चढ़ने  का जीवन्त वर्णन  किया था।  स्व रमा प्रसाद घिल्डियाल 'पहाड़ी ' जी के पत्र आया कि यह पहाड़ी  जसपुर की  है कि बड़ेथ की ।  पहाड़ी जी प्रथम गढ़वाली डीएम स्व गोविंद प्रसाद  घिल्डियाल (जिन्होंने हितोपदेश कथाओं का गढ़वाली अनुवाद प्रकाशित किया था ) के पुत्र थे व उनका मामाकोट मेरे गांव से एक मील दूर बड़ेथ। था  पहाड़ी जी का बचपन बड़ेथ में ही बीता था।  उन्होंने मुझे गढ़वाली में लिखने को उकसाया और एक पत्र आने के बाद मैंने 'कैरा को कतल ' कथा लिख डाली।  इसमें हर वाक्य में 'के ' अक्षर से शुर होने वाले शब्द थे  प्रयोग हुए हैं।  यह कथा अलकनन्दा में छपी किन्तु मेरा पास उपलब्ध नही है।  मैंने अपनी  सभी हिंदी व गढ़वाली कथाओं के संग्रह निकलने हेतु अलकनन्दा के श्री स्वरूप ढौण्डियाल को सौंप दी थी किन्तु वे छाप नही सके और उनके देहावसान के बाद कुछ पता नही चला।  इससे पहले स्वरूप जी ने मेरी पुस्तक 'गढ़वाल की लोककथाएं ' भी प्रकाशित की।
गीतेश नेगी- तो ऐसा शुरू हुआ आपका गढ़वाली भाषा साहित्य में प्रवेश ?
भीष्म कुकरेती - जी हाँ गढ़वाली कथाएं व व्यंग्य हिलांस , अलकनन्दा , अंजवाळ में प्रकाशित होता गया।

गीतेश नेगी - धाद पत्रिका में तो आपके धारदार घपरोळी लेखों की बड़ी चर्चा हुयी थी।
भीष्म कुकरेती - हाँ ! लोकेश भाई से प्रगाड़  मित्रता थी व है। धाद में मैंने मानकीकरण विरुद्ध लेख -बीं बरोबर गढ़वाली, ह्वे त गे मानकीकरण , , , थौ व असली नकली गढ़वाली लेख लिखे जो चर्चा में आ गए।  श्री अबोध जी व बाबुलकर जी ने कठोर भर्त्सना की , श्री भगवती प्रसाद नौटियाल जी ने मेरे विरुद्ध में व्यंग्य लिखा। 

गीतेश नेगी - आप स्वभाव से कंट्रोवर्सियल नही हैं किन्तु गढ़वाली में घपरोळ करवाते हैं।  श्री नौटियाल जी के विरुद्ध अशिष्ट भाषा में लेख, श्री नरेंद्र कठैत के विरुद्ध इंटरनेट में लेख, चिठ्ठी पत्री  में 'अलग गढ़वाली राज्य की आवश्यकता ' जैसे लेख  आदि  आपके स्वभाव के विरुद्ध हैं।  फिर भी ?
भीष्म कुकरेती - यह ठीक है मैं कंट्रोवर्सी से बचता  हूँ।  किन्तु जब मैं गढ़वाली साहित्य में उतरा तो पाया कि बड़ा ही स्टीरियो टाइप माहौल है व चर्चा होती नही है तो मैंने इस तरह से लिखना शुरू किया कि जो भी गढ़वाली में लिखा जाय उस पर चर्चा हो साहित्यकार चर्चा करें व पाठक इन्वोल्व हो जायँ।  गढ़वाली साहित्य में मेरे लेखों ने स्टीरियो टाइप स्थिति तोड़ी थी।

गीतेश नेगी - इंटरनेट में भी आपने कामसूत्र का अनुवाद पोस्ट कर दिए थे ? रामी बौराणी को बैन करने की पोस्ट आदि
भीष्म कुकरेती -जी यह भी सोची समझी रणनीति के तहत ही किया।
गीतेश नेगी -रणनीति ?
भीष्म कुकरेती - मै शुरू से ही मानता रहा हूँ कि जब तक गढ़वाली के बारे में चर्चा , बहस , घपरोळ न हो आम पाठक गढ़वाली में रूचि नही लेगा।  तो मैंने सबसे पहले इंटरनेट सर्कल ( उस समय इंटरनेट ग्रुप होते थे ) में मैंने पहले रामी बौराणी गीत पर बैन का लेख पोस्ट किया , ' Brahimin Vad of Madan Duklan लेख लिखा जिसमे मदन डुकलान पर ब्राह्मण वाद का अभियोग लगाया। दोनों पोस्ट पर काफी चर्चा हुयी।  इंटरनेट धारकों को पता चला कि गढ़वाली में भी साहित्य होता है। इस बहस से ' दर्जन से अधिक लोगों ने 'चिट्ठी पत्री ' पत्रिका मंगाई
गीतेश नेगी - और कामसूत्र का गढ़वाली अनुवाद ?
भीष्म कुकरेती  - कामसूत्र  अनुवाद ने भूचाल ला दिया था।  400 से अधिक प्रतिक्रियाएं आयीं।  गाली भी खाई।  कईयों ने गढ़वाली में पुस्तक छापने की गुजारिश भी की।  अधिसंख्य लोगों ने प्रथम बार  गढ़वाली पढ़ी। 
गीतेश नेगी -आप 'गढ़ ऐना ' दैनिक से भी जुड़े रहे तो   ...
भीष्म कुकरेती - जी दैनिक गढ़ -ऐना 88  -91  तक तीन साढ़े तीन सालों  तक छपा। मैं गढ़ ऐना के लिए रोज एक व्यंग्य या अन्य लेख भेजता था बाद में मैंने एक व्यंग्य चित्र रोजाना भेजना शुरू किया। 
गीतेश नेगी -अच्छा ?
भीष्म कुकरेती - हाँ और इसके अलावा गढ़वाली  क्रॉस वर्ड भी छपवाए , बच्चों के लिए चित्रों के द्वारा कुछ पज्जल्स भी प्रकाशित किये।  गढ़वाली में समालोचना की शुरुवात भी मैंने ही की। गढ़वाली में इंटरव्यू  विधा की शुरवात की।

गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य में आपने किन किन विधाओं पर कार्य किया हैं
भीष्म कुकरेती  - परम्परागत और इंटरनेट माध्यम में कुल मिलाकर 25 से अधिक कथाएं , 2000 से   अधिक व्यंग्य , 700 के व्यंग्य चित्र , क्रॉस वर्ड्स , पज्जल्स , एक नाटक, समालोचनाएँ , अन्य  लम्बे लेख  आदि जैसे   संसार प्रसिद्ध 2000 से अधिक कथाकारों का संक्षिप्त वर्णन , गढ़वाली कविता इतिहास , गढ़वाली कथा इतिहास , गढ़वाली नाटक इतिहास आदि आदि। 
गीतेश नेगी - अनुवाद ?
भीष्म कुकरेती  - हाँ तकरीबन 20 विदेशी भाषाओं व संस्कृत कथाओं का अनुवाद , 25 से अधिक विदेशी नाटकों अनुवाद किया है।  ये नाटक गढ़वाल सभा देहरादून में उपलब्ध हैं।  अपने नाटक 'बखरों ग्वेर स्याळ ' व ललित मोहन थपलियाल जी के  दो नाटक 'खाडू लापता ' व एकीकरण का गढ़वाली अनुवाद ' भी किया। 
गीतेश नेगी - आपने शब्दकोश पर भी काम किया है ?
भीष्म कुकरेती  -जी अंग्रेजी -गढ़वाली शब्दकोश का  फोटोस्टेट संस्करण
गीतेश नेगी -आपने अंग्रेजी में गढ़वाली साहित्य पर लेख भी लिखे हैं।   क्या क्या लिखा ?
भीष्म कुकरेती - गढ़वाली लोक गीतों की समीक्षा , गढ़वाल के तन्त्र और मन्त्रों की समीक्षा , लोक नाटकों पर भरत नाट्य शास्त्र अनुसार टीका , गढ़वाली कविता व कवियों की समीक्षा, नाटकों की समीक्षा , गढ़वाली कथाओं की समीक्सा , १२० लोक कथाययें  अंग्रेजी  लिखीं।  तकरीबन 3000 लेख तो पोस्ट की ही होंगी।  अंग्रेजी में 100  से अधिक व्यंग्य आदि
गीतेश नेगी -अंग्रेजी में लिखने का कारण ?
भीष्म कुकरेती - सिम्पल।  गढ़वाली को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलवाना।
गीतेश नेगी -आपने चिट्ठी पत्री के कई विशेषांको के लिए संयोजन भी किया ?
भीष्म कुकरेती -जी हाँ लोक नाटक , कविता विशेषांक आदि के लेख व अन्य साहित्य जुटाया।  फिर अंग्वाळ व हुंगरा जैसे ऐतिहासिक पुस्तकों के लिए साहित्यकारों से सम्पर्क व साहित्य जुटाया।  किन्तु मदन डुकलाण भाई ने इसका विशेष जिक्र नही किया।   दुःख होता है।
गीतेश नेगी -उत्तराखण्ड का इतिहास भी अंग्रेजी में लिखा है आपने ?
भीष्म कुकरेती - जी अभी ब्रिटिश काल तक पँहुच हूँ

गीतेश नेगी -  क्या आप अपने आजतक के लेखन योगदान से संतुष्ट हैं ?
भीष्म कुकरेती  - जी  अभी काफी कुछ पूरा करना है।  हाँ इंटरनेट में 15 लाख से अधिक बार पढ़े जाने से सन्तुष्टि तो होती ही है।

गीतेश नेगी -गढ़वाली कुमाऊनी भाषा -साहित्य के समक्ष वर्तमान में सबसे बड़ी चुनौती ,सबसे बड़ी समस्या क्या  हैं ?
भीष्म कुकरेती  - कैच द्यम  यंग की समस्या हमेशा से रही है।  यंग रीडर्स न पाना सबसे बड़ी समस्या रही है और उसका मुख्य कारण है लिखित साहित्य की वितरण की समस्या।   ऑडियो -वीडियो व इंटरनेट माध्यम से कुछ हद तक समस्या निपट रही है किन्तु फिर भी यंग रीडर्स एक समस्या आज भी है। 

गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य की वर्तमान दशा क्या हैं ? इसमे किन किन विधाओं में कार्य हो रहा है ?
भीष्म कुकरेती  - कमपैरिटिवली पहले से अधिक काम हो रहा है , स्टीरियो  टाइप को तोडा जा रहा है , कई लेखक जैसे सुनील थपलियाल घँजीर सरीखे  तीखे -बेबाक वाले साहित्यकार भी आगे आएं हैं जो एक शुभ संकेत है। 
नए विषय जैसे डा सत्येश्वर कालेश्वरी का बुलेटिन जैसी सामयिक समाचार की कविताएं रचना , संदीप रावत , धर्मेंद्र नेगी , पयास पोखड़ा की कविताएं , प्रीतम अपछ्याण व कृष्ण कुमार ममगाईं के दोहे  , महेशा नन्द व वीरेंद्र जुयाल आदि की नव कथाएं , सतीश रावत की तिपत्ति नुमा कविता , रमेश हितैषी की सामाजिक सरोकारी कविताएं , लालचन्द राजपूत के जोक्स शुभ संकेत हैं

गीतेश नेगी -वह कौन सा पहलू  है जो  अभी तक अछूता है या जिसमें अधिक कार्य करने की आवश्यकता है ?
भीष्म कुकरेती - एक तो सड़क छाप साहित्य याने गढ़वाली -कुमाउँनी में पॉपुलर साहित्य की ओर किसी की दृष्टि ना जाना सबसे बड़ी कमजोरी है
गीतेश नेगी - सड़क छाप साहित्य ?
भीष्म कुकरेती  - जी हाँ।  हिंदी  प्रसारण में प्रेमचन्द से अधिक योगदान गुलसन नन्दा , रानू , जासूसी उपन्यासों का हाथ अधिक है।  जब तक सड़क छाप याने पॉपुलर साहित्य पॉपुलर न होगा  भाषा का प्रसारण  नही हो पायेगा । और   ...
गीतेश नेगी - और ?
भीष्म कुकरेती  -और फाणु बाड़ी विषय से ऊपर उठकर कॉन्टिनेंटल डिशेज पर भी सोचना होगा।  आज हमारे पाठक देश और दुनिया में सभी जगहों पर वसे  है तो उनके परिवेश व नए ज्ञान को मद्देनजर रखकर साहित्य रचना आवश्यक है इसके अलावा अंतरराष्ट्रीय  कविताओं या अन्य साहित्य का अनुवाद आवश्यक है।  इस मामले में नरेंद्र कठैत और गीतेश नेगी के कार्य की प्रशसा की जानी चाहिए।

गीतेश नेगी - गढ़वाली कविता की वर्तमान दशा क्या हैं ? एक समीक्षक के रूप में आप इसका भविष्य किस रूप में देखते हैं ? क्या इस दौर की कवितायें पुरानी  वर्जनाओँ  को तोड़कर नये  प्रतिमान नये  बिम्ब और नये  विषयों पर अपनी बात प्रभावशाली ढंग से रखने में सक्षम हैं ?
भीष्म कुकरेती  - संख्या दृष्टि से अच्छा काम हो रहा है।  हाँ कुछ कवि क्वांटिटिटी पर अधिक क्वालिटी पर कम ध्यान दे रहे हैं।  कुछ कवि फोटोग्राफिकल नैरेसन  को ही  कविता समझ बैठे हैं।  कुछ तो फालतू की कविताएं दिए जा रहे हैं उन्हें समझना चाहिए कि पॉप साहित्य और फालतू के साहित्य में भी अंतर होता है। एक बात बड़ा  खतरनाक पहलू भी है कि बहुत से पोटेंशियल कवि दुसरी भाषा के  साहित्य से परहेज करते हैं और अपने पास  , शब्दकोश , गढ़वाली व्याकरण की पुस्तक  नही रखते हैं।  वैसे नई वर्जनाएं टूट रही हैं और नए अलंकार भी सामने आ ही रहे हैं।

गीतेश नेगी -आज के  दौर की गढ़वाली कविता के वो  कौन कौन से नाम है जो अच्छी और सशक्त कविता लिख रहे  हैं या जिनसे गढ़वाली कविता को एक नई दिशा एक नया विस्तार , नये बिम्ब  नये विषय और नये कलेवर मिलने  की आश बँधती  है ?
भीष्म कुकरेती - इंटरनेट पर कुछ कवि अछि कविताएं पेश कर रहे हैं।  सबसे बड़ी कमी है  कवित्व के स्टैंडर्ड  को  बरकरार रखना।  दूसरा विषय, शैली  या कवित्व में एक्सपेरिमेंट भी कम हो रहा है। 

गढ़वाली कविता का भविष्य तो उज्जवल दिख रहा है. हाँ कवियों को अपने  कवित्व में स्व विकास आवश्यक है

गीतेश नेगी - गढ़वाली में ग़ज़ल विधा में भी आजकल खूब लिखा जा रहा है ,संभावना की दृष्टि से गढ़वाली ग़ज़ल का  भविष्य आपको  कैसा दिखता  है ? कुछ नाम जो इस  विधा  में  सक्रिय योगदान दे रहे  हैं ?

भीष्म कुकरेती - गजल का अपना चरित्र है कि यह फटाफट आकर्षित करती है।  गजल तो अब गढ़वाली साहित्य में  जमी रहेगी। पुराने गजलकार जैसे नेत्र सिंह असवाल , मदन डुक्लाण , मधुसुधन, उमा भट्ट  आदि तो जमे हैं किन्तु जगमोहन बिष्ट , शशि देवली , अतुल गुसाई , पयास पोखड़ा आदि ने दस्तक दी है कि हम भी कम नही हैं। मदन डुकलाण के आने वाले गजल संग्रह हेतु कई नए गजलकार सामने आएं जो शुभ संकेत है।



गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य में व्यंग्य विधा में हो रहे साहित्य सर्जन पर आपकी क्या राय है ? आपको नहीं लगता की इस दौर में गढ़वाली व्यंग्य , कविता को बराबर टक्कर दे  रहा है  और खूब पढ़ा और पसन्द किया जा रहा है ? गढ़वाली व्यंग्य साहित्य का  भविष्य आपको  कैसा दिखता  है ? कुछ नयी संभावनायें ,कुछ नये  चेहरे ,कुछ नये  नाम ?
भीष्म कुकरेती - हाँ आजकल कविता के बाद व्यंग्य अधिक लिखा जा रहा है।  वास्तव में राजनैतिक व सामाजिक वातावरण व्यंग्य लिखने के लिए फर्टाइल जमीन सिद्ध हो रही है।  पाठक भी व्यंग्य से जुड़ रहे हैं। व्यंग्य तो हमेशा रहेगा गढ़वाली में।  प्रथम आधुनिक कथा व प्रथम  व्यंग्य ही थे।  भीष्म कुकरेती , नरेंद्र कठैत , पाराशर गौड़, हरीश जुयाल  के बाद गढ़वाली को  सुनील थपलियाल घँजीर एक सशक्त व्यंग्यकार मिला है 

गीतेश नेगी - गढ़वाली गद्य में किन किन विधाओं में सर्जन कार्य हो रहा है ?  क्या गद्य  की अपेक्षा पद्य ही  तरफ ज्यादा जोर नहीं है?
भीष्म कुकरेती - व्यंग्य छोड़ गद्य के अन्य विधाओं में कुछ भी नही हो रहा है।  रन्त रैबार में पत्रकारिता का गद्य छोड़ दें और धाद के विशेषांकों के निबन्धों को छोड़ दे तो सूखा ही है। पद्य का जोर अधिक है। दुःख इस बात का है कि गढ़वाली नाटकों  में  सुन्नपट्ट आया है।  बल साहित्य तो अपेक्षित ही है जमानों से।

गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य सम्मेलनों/ मंचों और साहित्यिक संस्थाओँ द्वारा केवल कविता को जायदा महत्व दिया जा रहा है ?  आपको नहीं लगता की इन स्थानों पर गद्य या साहित्य के अन्य विधाओं ,पहलुओं को  हासिये पर रखा जा रहा है ?
भीष्म कुकरेती - वास्तव में यह सभी भाषाओँ में भी पाया जाता है।  ऑडिएंस को कविया अधिक पसन्द होती है।  शरद जोशी व के पी सक्सेना हों तो गद्य भी सम्मेलनों में पढा जाएगा। 

गीतेश नेगी -गढ़वाली साहित्य में आलोचना-समालोचना के क्षेत्र में कितनी प्रगति हुई हैं ,वर्तमान में हो रहा कार्य क्या संतोषजनक कहा जा सकता है  ? क्या आपको इन विधाओं  में कुछ नयी  संभावनायें कुछ नए सर्जक कहीं दिखाई  पढ़ते  हैं  ?
भीष्म कुकरेती - आलोचना , समीक्षा विधा बची है।  वीरेंद्र पंवार व संदीप रावत की पुस्तकें इसका प्रमाण है।  इंटरनेट पर तारीफ़ वाली टिप्पणियां सही ये टिप्पणियां संभावनाएं की ओर इंगित करती हैं।


गीतेश नेगी -क्या आज भाषाई विरासत के  निब्त एक  और नये सशक्त लोकभाषा आंदोलन की जरूरत आपको महसूश होती है  ?
भीष्म कुकरेती - जी दिल्ली -मुम्बई सरीखे शहरों में कैच द्यम यंग के निबत आंदोलन की आवश्यकता है। 

गीतेश नेगी -लोकभाषा साहित्य के  प्रचार प्रसार और विस्तार में सरकार और सामाजिक  संस्थाओं की क्या भूमिका हो सकती है  ? क्या वे इस दिशा सार्थक और वांछित भूमिका का पूरी सिद्दत के साथ निर्वाहन कर रहे हैं ?
भीष्म कुकरेती - किसी भी भाषा का विकास सरकार नही अपितु समाज करता है।  तो सामाजिक संस्थाओं को लीड लेने की अति आवश्यकता है। सामाजिक संस्थाओं को भी जगाने की आवश्यकता है।

गीतेश नेगी -राज्य की नवगठित  सरकार  से एक समर्पित गढ़वाली साहित्यकार के रूप में आप क्या अपेक्षा रखते हैं ?
भीष्म कुकरेती - अपेक्षाएं तो बहुत थीं किन्तु अब केवल निराशा ही है बस।


गीतेश नेगी  -नयी पीढ़ी के लेखकों और गढ़वाली कुमाउनी भाषा -साहित्य प्रेमियों -पाठकों को आप क्या सन्देश देना चाहेंगे ?
भीष्म कुकरेती - साहित्यकार लिखते रहें और पाठक पढ़ते रहें तो अपने आप सब सुधर जाएगा


सर्वाधिकार सुरक्षित (रीजनल रिपोर्टर, हलन्त में पूर्व प्रकाशित )

'घुर घुघुती घुर' : पहाड़ की बेहतरी के लिए बेहतरीन कवितायें

पहाड़ की बेहतरी के लिए बेहतरीन कवितायें
'घुर घुघुती घुर'

समीक्षक - डॉ. अरुण कुकसाल



युवा 'गीतेश सिंह नेगी' का प्रारंम्भिक परिचय गढ़वाली कवि/गीतकार/गज़लकार, जन्म-फिरोजपुर, मूल निवास- महर गांव मल्ला , पौड़ी गढ़वाल, संप्रति- भूभौतिकविद, रिलायंस जियो इन्फोकॉम लि. सूरत है। इस सामान्य परिचय में निहित असाधारणता की सुखद अनुभूति से आपको भी साझा करता हूं। जब गढ़वाल के ठेठ पहाड़ी कस्बों में पैदा होने से लेकर वहीं जीवन यापन कर रहे युवा नि:संकोच सबसे कहते हैं कि उन्हें गढ़वाली बोलनी नहीं आती है, तो लगता है हमारे समाज में लोक तत्व खत्म होने के कगार पर है। पर 'घुर घुघुती घुर' किताब के हाथ में आते ही मेरी इस नकारात्मकता को 'गीतेश' के परिचय ने तड़ाक से तोड़ा है। लगा पहाड़ी समाज में लोक तत्व अपने मूल स्थान में जरूर लड़खड़ाया होगा पर दूर दिशाओं में वह मजबूती से उभर भी रहा है। जन्म, अध्ययन और रोजगार में पहाड़ का सानिध्य न होने के बाद भी ठेठ पहाड़ी संस्कारों को अपनाये 'गीतेश' प्रथम दृष्ट्या मेरी कई सामाजिक चिन्ताओं को कम करते नज़र आते हैं।

'गीतेश सिंह नेगी' की कविता, गीत और गज़ल अक्सर पञ-पञिकाओं में पढ़ने को मिलती हैं। उनकी 'वू लोग' कविता मुझे विशेष पंसद है। परन्तु इस कविता संग्रह की गढ़वाली कविताओं को तल्लीनता से पढ़ने और समझने के बाद उनकी बहुआयामी दृष्टि से रूबरू हुआ हूं। आज के युवाओं में अपनी मातृभूमि के प्रति भावनाओं का एेसा अतिरेक बहुत कम देखने को मिलता है। 'गीतेश' का मन 'जैसे उड़ी जहाज को पंछी, पुनि-पुनि जहाज पै आवे' की तरह दुनिया-जहान की दूर-दूर की उडान के बाद ठौर लेने पहाड़ की गोद में ही सकून पाता है। उनकी कविताओं की नियति भी 'पहाड़' में ही रचने-बसने की है। तभी तो 'गीतेश' की कवितायें 'पहाड़ीपन' से बाहर निकल ही नहीं पाती हैं। यह भी कह सकते हैं कि 'पहाड़' 'गीतेश' की कविताओं का प्राणतत्व है। वो खुद भी घोषित करते हैं कि 'एक दिन ही इन्नु नि आई की मी पहाड़ से छिट्गि भैर या पहाड़ मि से छिट्गि भैर गै ह्वोल'।  'गीतेश' की कविताओं में 'पहाड़'  बच्चा बनकर मचलता या रूठता है, दोस्त की तरह गलबहिंया डाले दिल्लगी करता है तो अभिभावक की भांति दुलारता या डांटता हुआ दिखाई देता है। हर किरदार में 'गीतेश' का पहाड़ फरफैक्ट है पर साथ में फिक्रमंद भी है।

'गीतेश' व्यावसायिक तौर पर वैज्ञानिक हैं। यही कारण है कि उनकी कवितायें भावनाओं के भंवर से बाहर आकर समाधानों की ओर रूख करने में सफल हुई हैं। 'गीतेश' की अधिकांश कवितायें अतीत के मोहजाल में हैं जरूर पर भविष्य के प्रति वे सजग भी हैं। 'गीतेश' कविताओं में बिम्बों को रचने और मुखर करने के सल्ली हैं। उन्होने  कविताओं में विविध बिम्बों के माध्यम से समसामयिक सरोकारों की प्रभावपूर्ण अभिव्यक्ति की है। 'गीतेश' की जीवन शैली पहाड़, प्रवास और परदेश के व्यापक फलक में गतिशील रही है। यही कारण है कि उनकी कवितायें अनेक दिशाओं में प्रवाहमान हैं। 'गीतेश' गीतकार और गज़लकार भी हैं। लिहाजा उनकी कविताओं में गीतात्मकता अपने आप ही जगह बना लेती है।

'घुघुती' पहाड़ी चिडिया है। बिल्कुल शांत, सरल और एकाकी। गहरी नीरवता में भावनाओं के उद्देग को बताने में तल्लीन। उसे परवाह नहीं कि कोई उसे सुन रहा है कि नहीं। वह तो सन्नाटे को तोड़ती निरंतर 'घुघुती-घुघूती' आवाज को जिन्दा रखती है। उसके भोलेपन के कारण ही पहाड़ी भाषा में 'घुघुती' लाड-दुलार को अभिव्यक्त करने वाला शब्द प्रचलन में है। बच्चे से खूब-सारा प्यार जताने के लिए उसे 'म्यार घुघुती' बार-बार सयाने कहते हैं। 'गीतेश' ने माना है कि 'घुघुती' जैसा भोलापन, तल्लीनता और एकाग्रता ही 'पहाड़' को जीवंत और 'पहाड़ी' को खुशहाल बना सकता है। 'घुर 'घुघुती घुर' पहाड़ की वीरानगी में  सकारात्मकता की निरंतर गूंजने वाली दस्तक है। अब सुनना, न सुनना या फिर सुन कर अनसुना करना ये तो नियति पर है।

बहरहाल, 'गीतेश सिंह नेगी' के प्रथम गढ़वाली कविता संग्रह 'घुर घुघुती घुर' में 59 कवितायें हैं। इसकी हर कविता अनुभवों की उपज है। उनमें कल्पना की उडान से कहीं अधिक यर्थाथ की गहराई है। पाठकों को उनके दायित्वबोध को बताती और समझाती कवितायें व्यंग के संग गम्भीर भी हो चली हैं। 'गीतेश सिंह नेगी' की कवितायें  साहित्यकारों के साथ पहाड़ के नीति- निर्धारकों यथा-नेता,अफसर, सामाजिक कार्यकत्ताओं को स्व:मूल्यांकन के लिए पसंद की जायेगी। बर्शते उन तक यह पुस्तक पहुंचे। 'गितेश' जी और धाद प्रकाशन, देहरादून को गढ़वाली साहित्य को 'घुर घुघुती घुर' जैसी उत्कृष्ट कविता संग्रह से समृद्ध करने  के योगदान के लिए बधाई और शुभ-कामना।



कविता संग्रह-  'घुर घुघुती घुर'
कवि- 'गीतेश सिंह नेगी'
मूल्य- ₹ 150/-
प्रकाशक- धाद प्रकाशन, देहरादून
समीक्षक - डॉ. अरुण कुकसाल

गढ़वाली भाषा-साहित्य का एक जीवन्त ज्ञानकोश - भगवती प्रसाद नौटियाल



साक्षात्कार 

गढ़वाली भाषा-साहित्य का एक जीवन्त ज्ञानकोश  - भगवती प्रसाद नौटियाल 

श्री भगवती प्रसाद नौटियाल गढ़वाली और हिन्दी के जाने माने समालोचक और प्रख्यात समीक्षक हैं। साहित्य ,संस्कृति और हिमालय पर सैकड़ों शोधपरक लेख लिखने वाले प्रबुद्ध साहित्यकार श्री भगवती  प्रसाद नौटियाल जी ने जहां एक ओर महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल की प्रसिद्ध कविता ‘ठ्यकरया’ की समीक्षा लिखकर गढ़वाली भाषा में कविताओं में समीक्षा की शुरुआत की वहीं दूसरी ओर प्रख्यात साहित्यकार अबोध बंधु बहुगुणा रचित गढ़वाली महाकाव्य भूम्याळ की भूमिका लिखकर गढ़वाली में भूमिका लेखन की शुरुआत भी की। श्री नौटियाल जी को समालोचना और समीक्षा के क्षेत्र में एक अनुभवी विशेषज्ञ के रूप में जाना जाता है। वरिष्ठ साहित्यकार श्री नरेन्द्र कठैत के अनुसार गढ़वाली साहित्य में नौटियाल जी का व्यक्तित्व एक ऐसे सख्त मिजाज शिक्षक के रूप में आता है जिसकी कक्षा में हर कोई विद्यार्थी अनुशासन में बंधा रहता है। कई ऐसे कलमकार हैं जिन्होनेे नौटियाल जी को अपना होम वर्क कभी दिखाया ही नहीं है। और कई ऐसे हैं जिन्होने होम वर्क दिखाने के बाद उनकी टिप्पणियों को ही तह खाने में दफन करना उचित समझा। गढ़वाली साहित्य के साथ-साथ हिन्दी में भी आपने वृहद कार्य किया है। ‘हिन्दी पत्रकारिता की दो शताब्दियां और दिवंगत प्रमुख पत्रकार’ तथा ‘मध्य हिमालयी भाषा, संस्कृति, साहित्य एवं लोक साहित्य’ नाम से प्रकाशित दोनों पुस्तकें शोध संदर्भित हैं। साहित्य-संस्कृति पर विविध शोध कार्यों,कार्यशालाओं में श्री नौटियाल जी की सदैव सृजनात्मक भागीदारी रही है। वृहत त्रिभाषीय (गढ़वाली ,हिन्दी ,अंग्रेजी ) शब्दकोश के निर्माण में सम्पादक के रूप में भगीरथ योगदान निभाने वाले कई ग्रन्थों के सम्पादक ,हिन्दी और गढ़वाली के वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवती प्रसाद नौटियाल से युवा गढ़वाली लेखक गीतेश नेगी के सृजन संवाद के मुख्य अंश ............ 

गीतेश नेगी - आपके प्रारम्भिक जीवन ,शिक्षा आदि के विषय में कुछ बतायें ?

भगवती प्रसाद नौटियाल - मेरा जन्म १० मई सन्न  1931 ,ग्राम गौरीकोट , इडवालस्यूँ,पौड़ी गढ़वाल में हुआ। कक्षा ३ तक की शिक्षा गाँव हुई फिर सन्न 1938 मैं पिताजी के साथ दिल्ली आ गया था। एम ० बी ० प्राइमरी स्कूल ,कश्मीरी गेट से कक्षा ४ उत्तीर्ण करने के बाद सन्न १९३९ में मेरा दाखिला अंग्रेजी माध्यम के एक स्कूल हैप्पी स्कूल ,कश्मीरी गेट में कर  दिया गया। फीस थी ५ रुपये महीना । सन 19४१ -४२  में साम्प्रदायिक दंगों के कारण पिताजी मुझे गाँव में ही छोड़ गए थे। सन्न १९४३  में पिताजी की स्वास्थय समस्या के कारण मैं उनके साथ पौड़ी रहा फिर सन्न १९४४ को हम फिर से दिल्ली लौट गये जहाँ मुझे कक्षा ६ में हैप्पी स्कूल ,कश्मीरी गेट में पुनः दाखिला मिल गया । मेरी एम ० ए ० (ऑनर्स ) तक की शिक्षा दिल्ली में ही  हुई ।

गीतेश नेगी - आपकी साहित्य सृजन यात्रा की शुरुआत कब और कहाँ से हुई  ?

भगवती प्रसाद नौटियाल - नेगी जी साहित्य सृजन तो बहुत बड़ी बात है ,मैं नहीं जानता की मैने साहित्य सृजन की ओर कभी कदम उठाया ,अलबत्ता छुट-पुट लेखन अवश्य किया है जिसकी शुरुआत हाईस्कूल की परीक्षा के बाद सन्न १९५० में ,जब मैने हिन्दू कालेज ,दिल्ली में  प्रवेश लिया था तो  कालेज पत्रिका  इन्द्रप्रस्थ में एक छोटे से हिन्दी लेख गीता के दसवे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण  से हुई थी । इसके बाद एम ० ए ० (ऑनर्स ) तक प्रतिवर्ष मैं हिन्दू कालेज की इस पत्रिका में लेख लिखता रहा ,इस पत्रिका में मेरा अन्तिम लेख था वीर वधु देवकी जो श्री भजन सिंह ‘सिंह’ जी की वीर वधु देवकी पर आधारित था ।इस लेख मैं मैने एक समीक्षक की दृष्टि डाली  थी।वस्तुतः यही वह लेख था जिससे मेरे भीतर का समीक्षक मुखरित हुआ था । 
सन्न १९५४ -५७ तक तथा सन्न १९६७-७० तक भाई नन्दकिशोर नौटियाल आदि द्वारा दिल्ली  से प्रकाशित पर्वतजन, भाई द्वारिका प्रसाद उनियाल द्वारा सम्पादित हिमालय टाइम्स तथा शिवानन्द  नौटियाल जी की पत्रिका शैलवाणी के लिए कुछ ना कुछ लिखता रहा ।उसके बाद नन्दकिशोर भाई बिल्टज में बम्बई चले गये ,द्वारी भाई हिमालय टाइम्स को लेकर शिमला चले गये और शिवानन्द  नौटियाल जी विधायक बनकर लखनऊ चले गए ।
सन्न १९५९ में भारत सरकार के मंत्रालय ,वैज्ञानिक अनुसंधान एवं सांस्कृतिक कार्य मंत्रालय में मैं पुस्तकालयाध्यक्ष के पद पर चयनित हो गया । इस मंत्रालय के मंत्री थे प्रो ० हुमायुं कबीर । एक दिन हुमायुं साहब ने मुझे अचानक तलब कर लिया। उनका पहला प्रश्न था - पुस्तकालय विज्ञान के अतिरिक्त क्या जानते हो ?  मैने बहुत ही धीमे स्वर में उत्तर दिया - महोदय ,मैं संस्कृति और हिमालय आदि पर कभी कभी लेख लिख लेता हूँ ,यही मेरी रूचि के विषय हैं । बात आई गई सी हो गई ,इस मंत्रालय की एक संस्कृति नाम की पत्रिका थी जो वर्ष में एक बार ही प्रकाशित होती थी ।  एक दिन मैं अपनी टेबल पर बैठा ही था कि संस्कृति के सम्पादक द्विवेदी जी ने  पूछा - क्या पुस्तकों (हिन्दी पुस्तकों ) की समीक्षा कर सकोगे ? मुझे तो जैसे मुँह मांगी मुराद मिल गई । मैने चट  से हाँ कह दिया । फिर क्या था मुझे संस्कृति में पुस्तकों की समीक्षा का काम मिल गया । इससे मुझे दो लाभ हुए ,एक तो कुछ मुद्रा का जुगाड़ हो गया और दूसरे नाम हो गया। मेरी समीक्षाओं से द्विवेदी जी बहुत खुश हुए , समीक्षा के साथ साथ मुझे अंग्रेजी से हिन्दी के अनुवाद का काम भी द्विवेदी जी देने लगे । 
सन्न १९६३ में यह मंत्रालय शिक्षा मंत्रालय में  विलीन हो गया - ऐसे में मुझे अब शिक्षा मंत्रालय मैं जोड़ दिया गया । हुमायुं कबीर साहब के मंत्रालय में रहते हुए संस्कृति के लिए मैने कई लेखकों की पुस्तकों की समीक्षा की जिनमे नई कविता ,नई आलोचना और कला (विमल कुमार ),विश्व के दार्शनिक (रत्न  चन्द्र शर्मा),चिट्ठी रसेन ,मेरी तीस कहानियां ,कबूतरखाना (शैलेश मटियानी ),जीवन रश्मियां ,सुमित्रा नन्दन पंत रू स्मृति चित्र (गुलाब राय ), सात साल (मुल्कराज आनन्द ),भैरवी ,अतिथि (गौरा पंत शिवानी ),पतझर , आखीरी आवाज (रांगेय राघव ),जीवन और जवानी (दिनेश देवराज ),हिमालय में संस्कृति ( विश्वम्भर सहाय प्रेमी ),वैरियर आल्विन की सफलताएं (आर ० के ० लेसर ) , पर्वताकार प्रारब्ध हिमालय ( लाइफर वाल्टर ,रुपांतरकार -शशिबंधु ) आदि प्रमुख हैं। 

इस बीच गढ़वाली हिन्दी भाषा में मेरे लेख ,पुस्तकों की समीक्षाएं आदि उत्तराखण्ड के लगभग सभी आंचलिक व राष्ट्रीय स्तर की पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहे । पिछले ६०-६५  वर्षों की  अवधि  में मेरे २०० से अधिक लेख और ५५ -६० पुस्तकों की समीक्षाएं एवं समीक्षात्मक लेख प्रकाशित हो चुके हैं ।  उत्तराखण्ड के जिन महान गढ़वाली और कुमांऊनी लेखकों,कवियों ,नाटककारों ,व्यंग्यकारों ,कहानीकारों की रचनाओं समीक्षा मैने की है उनमे मुख्य हैं - डा ० महावीर प्रसाद गैरोला ,डा ० रमेश पोखरियाल निशंक ,दुर्गा प्रसाद  घिल्डियाल, शैलेश मटियानी ,कमल साहित्यालंकार ,शिवराज सिंह रावत निःसंग ,कुलानन्द घनशाला ,राधाकृष्ण पंत, ललित केशवान ,मदन मोहन डुकलाण ,सत्य प्रसाद रतूड़ी (सम्पादक ) ,गोकुलानंद किमोठी ,आचार्य रघुनाथ भट्ट ,प्रेमलाल भट्ट ,बुद्धि बल्लभ थपलियाल ,धर्मानन्द उनियाल ,राजेन्द्र सिंह राणा ,वीणापाणि जोशी ,नरेन्द्र कठैत ,डा० गंगा प्रसाद विमल सुदामा प्रसाद प्रेमी ,अबोध बंधु बहुगुणा ,सन्दीप रावत ,शेर सिंह गढ़देशी , चिन्मय सायर ,देवेन्द्र जोशी ,जीत सिंह नेगी  और  जयांनद खुगशाल बौळ्या आदि । गढ़वाली चलचित्र तेरी सौं और घरजवैं की समीक्षाएं भी लिखीं । देहरादून से प्रकाशित युगवाणी और हलन्त पत्रिकाओं के अनेक लेखों आदि पर अभिमत लिखे जो एक प्रकार की समीक्षाएं ही हैं । पहाड़ (सम्पादक प्रो ० शेखर पाठक ) की समीक्षाएं आदि भी लिखीं । 

पहाड़ सहित दिल्ली तथा देहरादून की कई संस्थाओं का आजीवन सदस्य रहा/हूँ , इनमे गढ़वाल साहित्य मण्डल ,दिल्ली ,गढ़वाल हितैषिणी सभा ,दिल्ली ,गढ़वाल भ्रातृ परिषद ,दिल्ली,हिमालय कला संगम ,दिल्ली,गढ़वाल अध्ययन प्रतिष्ठान ,देहरादून ,अखिल गढ़वाल सभा ,देहरादून ,उत्तराखण्ड नागरिक  परिषद और हमारी चिट्ठी व धाद देहरादून आदि प्रमुख हैं।इंडियन नेशनल ट्रस्ट फॉर आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज ,नई दिल्ली ,इंडियन मॉउंटेनीरिंग फाउंडेशन ,नई दिल्ली से भी जुड़ा रहा और उत्तराखण्ड भाषा संस्थान की कार्यकारणी का सदस्य भी रहा हूँ । 

गीतेश नेगी - गद्य आपके लेखन में अधिक शुमार रहा है ,इसमे किन किन विषयों और विधाओं में आपका अधिक लेखन रहा ?

भगवती प्रसाद नौटियाल - साहित्य लेखन कहो चाहे हिन्दी -गढ़वाली लेखन -इसकी शुरुआत गद्य लेखन से ही हुई ,तथा गद्य लेखन ही लेखन का मुख्य माध्यम रहा । लेखन में संस्कृति और हिमालय मेरे प्रिय विषय रहे और समीक्षा और समालोचना मुझे अधिक पसन्द रही। हिन्दी ,गढ़वाली कविता ,कहानी आदि पढ़ते -पढ़ते या देखते देखते जहाँ पर भी मेरी आँखे थम जाती ,समालोचना शुरू हो जाती ,शायद मैं जन्मजात समीक्षक ही हूँ । वैसे ज्यादातर समीक्षाओं में लेखकों ने मुझे सराहा पर हर्बि -हर्बि एक ऐसी कविता और गजल की पुस्तक रही जिसका लेखक मेरे द्वारा की गई समालोचना को अंगीकार नहीं कर सका और मेरे लिए वह सब कहा गया जो कुछ भी समाज में अकथ्य है।  

गीतेश नेगी - गढ़वाली साहित्य में भूमिका लेखन के क्षेत्र में आपका ऐतिहासिक कार्य रहा है ,इस विषय पर थोड़ा विस्तार से जानकारी चाहूँगा कि लगभग कितनी पुस्तकोँ की भूमिका आपने लिखी और कुछ ख्यात लेखक ,साहित्यकार और कवि जिनकी पुस्तकों की भूमिका आपने लिखी ?

भगवती प्रसाद नौटियाल - दिल्ली में सत्तर और अस्सी के दशक में गढ़वाली में लेखन (कविता ,कहानी आदि ) चरम पर रहा इस दौरान भूमिका लेखन के कई मौके आये ,पर मैं टाल जाता था पर सन्न १९७७ में महाकाव्य भूम्याळ की भूमिका लिखने से नहीं बच सका । भूम्याळ के प्रकाशन से पूर्व हिमालय कला संगम के सदस्यों ने सोची समझी कार्यविधि के अन्तर्गत मुझे ना चाहने पर भी संस्था का अध्यक्ष मनोनीत कर दिया। अध्यक्षता ग्रहण करते ही मेरे सामने भूम्याळ महाकाव्य के प्रकाशन का प्रश्न खड़ा हो गया । यथार्थ में शिवानन्द नौटियाल जी ने लखनऊ से  १५००  रुपये भूम्याळ के प्रकाशन हेतु भिजवाये थे । १५००  रुपये में तो भूम्याळ छपता नहीं ,अतः यह सोचते हुए की मैं ही इसमे कुछ मदद कर सकता  हूँ ,मुझे अध्यक्ष मनोनीत किया गया।  खैर भूम्याळ प्रकाशित हुआ और अध्यक्ष होने के नाते मुझे उसकी बहुत की कम शब्दों में भूमिका भी लिखनी पड़ी । 
सन्न १९७०-८० के दशकों में गढ़वाली भाषा में साहित्य के किसी भी क्षेत्र में लेखक ,कवि ,आदि साहित्यिक गोष्ठियों अथवा कवि सम्मेलनों आदि में डा० गोविन्द चातक व भगवती प्रसाद नौटियाल को विशेष रूप से आमंत्रित करते थे चाहे आयोजन दिल्ली में हो या देहरादून आदि में। ये सब लेखक/कवि  हमसे सुझाव आदि की अपेक्षा  रखते थे ,यहाँ तक की महाकवि कन्हैयालाल डंडरियाल भी।  डंडरियाल जी की शायद ही कोई कविता या नागरजा की कोई पंक्ति ऐसी हो चर्चा करने के लिए डंडरियाल जी मेरे घर पर ना आये हों। पर विडम्बना देखिये की उन्होने अपनी किसी भी कृति में नहीं लिखा कि......... 
कहाँ तक लिखूं साहित्यकार अपना काम निकल जाने के बाद अक्सर भूल जाय करते थे ,यही स्थिति अबोधबंधु बहुगुणा जी की भी थी । हिमालय कला संगम द्वारा संकलित एवं प्रकाशित तथा बहुगुणा जी द्वारा सम्पादित शैलवाणी में बहुगुणा जी ने भूमिका या जो भी आप नाम दें ,में मेरी एक कविता की कुछ पंक्तियाँ तो उद्वरित की परन्तु पुस्तक में कवि रूप में मेरा कहीं नाम तक नहीं लिखा । मेरा नाम लेना नहीं भूले तो वो थे गढ़वाली भाषा के कवि ,कहानीकार ,उपन्यासकार डा० महावीर प्रसाद गैरोला ,दुर्गा प्रसाद घिल्डियाल ,शिवराज सिंह रावत निःसंग ,ललित केशवान,सुरेन्द्र चैहान (चिन्मय सायर),नरेन्द्र कठैत ,कुलानन्द घनसाला और सन्दीप रावत ।  
गढ़वाली  भाषा में मैने डा ० महावीर प्रसाद गैरोला ,अबोध बंधु बहुगुणा ,कुलानन्द घनसाला ,दुर्गा प्रसाद  घिल्डियाल   ,चिन्मय सायर ,आर ० के ० शर्मा ,गोपाल दत्त भट्ट ,जीत सिंह नेगी ,नरेन्द्र कठैत ,चन्द्रदत्त सुयाल ,राधाकृष्ण पंत ,सर्वेश जुयाल ,शिवराज सिंह रावत निःसंग,डा ० उमाशंकर सतीश ,ललित केशवान ,शेर सिंह गढ़देशी ,डा ० प्रीतम अपछ्याण,प्रेम लाल भट्ट आदि सहित लगभग ३०-३५ भूमिकाएं लिखी होंगी ।

गीतेश नेगी -  भूमिका लेखन की  साहित्य में क्या भूमिका है ? आपकी नजर में गढ़वाली साहित्य को साहित्य की इस परम्परा से  क्या लाभ हुआ  ?

भगवती प्रसाद नौटियाल - नेगी जी आपका प्रश्न काफी मुश्किल है ,मुश्किल इसलिए की इस पर सीधे सीधे कुछ कहा/लिखा नहीं जा सकता । काव्य दर्पण के पण्डित आचार्य मम्मट ने एक स्थान पर लिखा है - कविः करोति काव्यानि रसं जानाति पण्डितः अर्थात लेखक तो ग्रन्थ की रचना कर देता है पर वह ग्रन्थ कैसा है ? उसमे मुख्यतः क्या वर्णित है ? उसकी भाषा शैली में मौलिकता है की नहीं ,विषय प्रवेश किस प्रकार का है ? क्या लेखक ने पुस्तक की कथावस्तु के साथ न्याय किया है की नहीं ? आदि की विस्तृत जानकारी पण्डित अर्थात भूमिका लेखक/समीक्षक ही देता है ।
भूमिका लेखक और समीक्षक में बाल बराबर का अन्तर होता है । भूमिका लेखक पुस्तक को पढता है ,समीक्षक पुस्तक और लेखक दोनों को पढता है । पुस्तक की प्रमाणिकता को विधिवत स्थापित करने के लिए ही लेखक ,उस विद्वान से भूमिका लिखने का निवेदन करता है ,जिसे बौद्विक समाज परिचित हो साथ भाषा एवं साहित्यिक विधाओं से जुड़ा हो । भूमिका लिखने/लिखवाने का पुराना रिवाज है । इससे पुस्तक के विषय की जानकारी तो होती ही है,पाठकों को बहुत लाभ भी होता है । भूमिका पाठक के लिए एक प्रकार का दरवाजा है ,जिससे गुजरकर वह पुस्तक के कार्य विषय तक पहुँचता है ।

नेगी जी मैं जितना कुछ पढ़ पाया या देख पाया ,गढ़वाली साहित्य को इस परम्परा से  कुछ विशेष लाभ नही हुआ । गढ़वाली मानुष पाठक नही है ,ना हिन्दी का ना गढ़वाली का । लेखक अपनी ऊर्जा को कागज के पन्नो पर छितरा देता है ,भूमिका लेखक उस छितरे हुए के प्रति न्याय करता है ,पर पाठक -  द  भै -कै मू च इथग टैम जु तै  रंगड़वात पर अपणु दिमाग खपाउ।  जिसने भी जितनी पुस्तके (गद्य/पद्य ) लिखीं ,उसने उनको खुद बेचा या घर के एक कोने में सजा दिया , और जिसने उन पुस्तकों को खरीदा उसने भी उन्हे अपने तक ही सिमित रखा । देखने में आया है की लेखक/कवि अपनी पुस्तकों की भूमिका उन विद्वानों से लिखवाते हैं ,जिन पर विश्वास होता है कि वे हितैषी हैं अहित नहीं करेंगे यही स्थिति पुस्तकों की समीक्षा आदि के साथ भी है । और अब तो गढ़वाली के लेखक भी गिने चुने रह गये हैं । कभी कवि सम्मेलन होता है तो कुछेक कवि अपनी कविताओं के साथ जरूर दिखाई दे जाते हैं । यदि कुछ गलत कह रहा हूँ तो आप ही बताइए ।

गीतेश नेगी - गढ़वाली  साहित्य में आलोचना,समालोचना ,समीक्षा की  वर्तमान दशा और दिशा पर आपके विचार जानना  चाहूँगा? क्या आलोचना गढ़वाली  साहित्य  में अपने धर्म और उत्तरदायित्व का कुशलतापूर्वक पालन करती दिख  रही है ? 

भगवती प्रसाद नौटियाल - गीतेश जी आलोचना समालोचना ,लेखक और कृति दोनों को दिशा प्रदान करने का कार्य करते हैं । साहित्य की कोई भी विधा -कविता ,नाटक ,उपन्यास ,कहानी आदि अतीत का दस्तावेज नही है ,वह वर्तमान के लिए जीवन शक्ति है । आलोचक अपनी विवेचना द्वारा रचनात्मक साहित्य को सम-सामयिक जीवन के सन्दर्भ देखता है । होना तो यह चाहिए की लेखक अपने साहित्य की आलोचना/समालोचना करने के लिए समालोचक से सन्देह वार्ता करे ताकि वह उसकी कृति की समालोचना/समीक्षा विधि विधान के अनुरूप कर सके। आलोचक के लिए यह जरूरी है की वह अपने समय की समस्याओं के प्रति जागरूक हो किन्तु यह जागरूकता ही सब कुछ नहीं है । आलोचक/समालोचक/समीक्षक के लिए साहित्यिक समझ के साथ साथ सांस्कृतिक परम्परा का गहरा और बहुमुखी ज्ञान भी जरूरी है । उसमे परम्परा के सन्दर्भ के बौद्विक स्तर पर विवेचन की क्षमता होनी चाहिए । राजनीति ,भाषा ,धर्म आदि के प्रति उसकी दृष्टि यथार्थवादी होनी चाहिए । समालोचक के विषय में अंग्रेजी भाषा के एक लेखक ने कहा है - " A Critic is a man whose watch is five minute ahead of other people's  watch ."अर्थात वह सामान्य बुद्धि वाले व्यक्ति से बहुत  पहले ही लेखक का कथ्य और मंतव्य समझ लेता है । 

आलोचना गढ़वाली साहित्य में अपने धर्म और उत्तरदायित्व का पालन करने असमर्थ है ,लेखक,कवि ,नाटककार आदि नही चाहते कि उनके लिखे पर कोई किन्तु-परन्तु तथा कौमा या सेमिकोलन लगाए ।

गीतेश नेगी - गढ़वाली साहित्य की वर्तमान दशा और दिशा कैसे है ? किन - किन  विधाओं पर  अच्छा काम हो  रहा है  ?  

भगवती प्रसाद नौटियाल - नेगी जी  गढ़वाली साहित्य गति नहीं पकड़ पा रहा है । इसका सबसे बड़ा कारण यह है साहित्य चाहे गढ़वाली हो या हिन्दी गढ़वाली जनसमाज ( प्रबुद्ध व्यक्तियों से लेकर जन साधारण सभी ) पाठक नही है ,पैसा खर्च कर पढ़ना उसके भाग्य में नहीं है (कुछ अपवाद को छोड़कर ),उत्तराखण्ड सरकार हिन्दी ,उर्दू ,पंजाबी और संस्कृत के लिए तो दबादब अकादमी भी बना रही है और अन्य सुविधाएं भी प्रदान कर रही है जबकि ये सब भाषाएं संविधान की ८ वी अनुसूची में  पहले से ही हैं और खूब फली फूलीं हैं पर उत्तराखण्ड की अपनी भाषाओं विशेषकर गढ़वाली कुमाऊनी के लिए उसके कान पर जूं तक नही रेंग रही है । सरकारी तंत्र सिर्फ उन्ही लोगों को जानता है जो भाषा को नहीं जानते । हर जिले के अपने अपने धड़े हैं जिन्हे स्थानीय विधायक बहला फुसला लेते हैं । दुर्भाग्यवश एकजुट ना तो साहित्य सेवी ही होते हैं और ना ही साहित्य प्रेमी । ऐसे में आप सोच सकते हैं की क्या आशा की जा सकती होगी । 
दूसरी और नजर डालें  तो कहाँ हैं लेखक ,कवि ,नाटककार आदि ?
गढ़वाली का पहला महाकाव्य -गढवीर महाकाव्य सन्न १९२७-२८ मैं प्रकाशित हुआ,दूसरा महाकाव्य भूम्याळ सन्न १९७७ अर्थात पचास साल बाद प्रकाशित हुआ ,तीसरा महाकाव्य उत्तरायण सन्न १९८७ में प्रकाश में आया उसके बाद सन्न १९९३ में नागरजा प्रकाशित हुआ । इसी सन्दर्भ में गढ़वाली का पहला उपन्यास पारबती सन्न १९८१ में प्रकाशित हुआ , इसके बाद अकलबर को ?, शेरू ,ब्योली ,निमाणी, भुगत्यूँ-भविष्य ,उच्याणो,नाता ना पाथा, औडा हटै द्या ,निरबिजु ,सबला और बीसवीं सदी को विरही यक्ष आदि ही प्रकाशित हो सके। ये स्थितियां ऐसी हैं जो हतोत्साहित करती हैं । कमोबेश यही दशा गढ़वाली कहानी संग्रहों की भी है। काव्य संग्रह हतोत्साहित तो नहीं कर रहे हैं पर उनमे वह गूढ़ता बहुत कम नजर आती है जिसे काव्य का मर्म कहा जाता है। नाटक लिखे भी जा रहे हैं ,मंचित भी हो रहे हैं पर प्रकाशित नहीं हो पा रहें हैं। अभी तक इस दिशा में एक दो ही नाम सामने आते हैं। अब आप ही बताएं -नरेंद्र कठैत के व्यंग्यों ने और कुलानंद  घनशाला के नाटकों ने कुछ लाज बचाई हुई है । चिन्मय सायर कुछ अच्छी और दार्शनिक सोच वाली कविता लिख रहे थे परन्तु दुर्भाग्यवश वो असमय ही काल के ग्रास हो गए । 

नेगी जी एक बार फिर से दोहरा देता हूँ - गढ़वाली  साहित्य का तब तक कोई भविष्य नहीं है जब तक (१) पाठक वर्ग पैदा ना हो (२) भाषा को संविधान की ८ वी अनुसूची में स्थान नहीं मिलता ।

गीतेश नेगी - गढ़वाली भाषा शब्दकोश निर्माण पर आपके विचार/अनुभव 

भगवती प्रसाद नौटियाल - गढ़वाली  भाषा का अपना शब्दकोश होना चाहिए ,यह विचार सर्वप्रथम गढ़वाली साहित्य परिषद् ,लाहौर के विशिष्ट सदस्य प० बलदेव प्रसाद नौटियाल के मस्तिष्क में कौंधा । उन्होने एक शब्द-गवेषणा समिति का गठन किया जिसके वे सयोंजक थे और सदस्य थे - प० श्रीधरानन्द घिल्डियाल ,व्याकरणाचार्य और प० शिव प्रसाद घिल्डियाल  ,शास्त्री । परिषद के बाहर से भी अनेकों विद्वानों का उन्हे सहयोग प्राप्त था ,जिनमे मुख्य थे - प० चक्रधर बहुगुणा ,शास्त्री ,प्रो० भगवती प्रसाद पांथरी ,कविवर महंत योगीन्द्र पुरी ,शास्त्री ,प० श्रीधरानन्द  नैथानी व श्री भक्तदर्शन आदि । इन्होने लगभग दस -बारह हजार शब्द एकत्र किये और शब्दकोश को नाम दिया - गढ़वाली  शब्द भण्डार पर भारत विभाजन के कारण इन सबको लाहौर दिल्ली आना पढ़ा और स्थिति ऐसी बनी की वह शब्द भण्डार अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाया ।
प० बलदेव प्रसाद नौटियाल  के बाद मास्टर जयलाल वर्मा ने - गढ़वाली भाषा शब्दकोश  का निर्माण किया । इस शब्दकोश में लगभग चार हजार शब्द हैं । यह शब्दकोश सन्न १९८२ में प्रकाशित हुआ था और इसकी भूमिका डा० शिव प्रसाद डबराल (इतिहासविद ) ने लिखी थी । गढ़वाली भाषा का दूसरा शब्दकोश श्री मालचन्द रमोला का गढ़वाली-हिन्दी शब्दकोश है जो सन्न १९९४ में प्रकाशित हुआ था । इसमे भी लगभग चार हजार के आसपास शब्द हैं ।तीसरे शब्दकोश - गढ़वाली हिन्दी शब्दकोश के सम्पादक हैं  श्री अरविन्द पुरोहित और श्रीमती बीना बेंजवाल । इसमे शब्दों की संख्या तो दस हजार से ऊपर ही है पर शब्दों  के अर्थों पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया है ।चौथा शब्दकोश है -वृहत त्रिभाषीय (गढ़वाली ,हिन्दी ,अंग्रेजी ) शब्दकोश । इसमे बत्तीस हजार से अधिक शब्द हैं,शब्दकोश के सम्पादक हैं- भगवती प्रसाद नौटियाल और डा० अचलानन्द जखमोला। कोश निर्माण अधिकांशतः एक सामूहिक और संस्थागत प्रयास होता है । इस निमित्त मैने अखिल गढ़वाल सभा ,देहरादून का आश्रय लिया । आश्रय इसलिए की इस शब्दकोश निर्माण के लगभग ६ वर्षों तक मैं अखिल गढ़वाल सभा में ही रहा । अखिल गढ़वाल सभा ने मेरे रहने के लिए सभी सुविधाओं से युक्त कक्ष की और मेरे भोजन इत्यादि की भी समुचित प्रकार से व्यवस्था कर रखी  थी । इन ६ वर्षों में सम्पूर्ण गढ़वाल मण्डल से अपितु दिल्ली ,अहमदाबाद आदि शहरों से भी विद्वानों को आमंत्रित कर कई दिनों तक अखिल गढ़वाल सभा में ही ठहराया जाता था। शब्दों को एकत्रित करने के लिए देहरादून,श्रीनगर ,गोपेश्वर ,कोटद्वार ,पौड़ी  आदि स्थानों पर छोटी - छोटी सभाएं की और पुस्तकालय में प्रयोग होने वाले कैटालौग कार्ड हजारों की संख्या में बाटे, इस निवेदन के साथ कि एक कार्ड पर  एक ही शब्द और उसका अर्थ लिखा जाय । और जब ५०० -१००० कार्ड हो जाएं तो उन्हे अखिल गढ़वाल सभा ,देहरादून में आकर दे जाएं । इन सभी कार्यो के नियोजन हेतु गढ़वाली भाषा और साहित्य समिति का गठन किया गया ताकि काम सुचारु रूप से चलता रहे । विद्वानों के ठहरने और उनके आने जाने का पुख्ता इंतजाम रहे। अखिल गढ़वाल सभा ,देहरादून ने इस उत्तरदायित्व को खुशी खुशी निभाया जिसके लिए मैं (भगवती प्रसाद नौटियाल ) सभा का ऋणी हूँ । 

यद्यपि गढ़वाली भाषा का शब्द भण्डार बहुत बड़ा है ,पर इस कोश के लिए जितने भी शब्द जुटाए गए वो समस्त गढ़वाल मण्डल का प्रतिनिधित्व करते हैं । दैनिक जीवन  में काम आने वाले शब्दों के अतिरिक्त  ,गढ़वाल मण्डल के जंगलों में पाए जाने वाले वृक्ष ,औषधीय पादप ,घास-फूंस ,खाने के सभी अन्न एवं सब्जियों आदि के नामों  को हिन्दी -अंग्रेजी आदि के साथ -साथ उनके वनस्पतिक नाम भी दिए गए हैं । इसके अतिरिक्त संक्षिप्त  व्याख्या ,विवरण ,व्याकरण ,परिभाषा ,प्रयोग,उद्वरण  आदि सभी मिली जुली पद्धतियों और माध्यमों का उपयोग किया गया है । 
जब हिन्दी प्रचारिणी सभा ,बनारस ने पहला शब्दकोश - हिन्दी -हिन्दी पर कार्य किया था तो उन्हे भी छह -सात वर्ष लगे थे ,पर वो बहुत दुखी हुए थे द्य उनके बाद डा० हरदेव बाहरी ने जब प्रथम अंग्रेजी -हिन्दी शब्दकोश पर काम किया तो पूरे सात वर्ष लगाए । 

मेरे कहने का तात्पर्य यह है कि शब्दकोश निर्माण बहुत ही उबाऊ कार्य है ,जिसके पास पर्याप्त समय हो तो ही शब्दकोश की बात कीजिए ,नहीं तो शान्ति से चुपचाप बैठे रहिए । मैं शब्दकोश बनाने के काम में कुछ अंश तक इसलिए सफल हो पाया क्यों कि मैं शब्दों के साथ ऐसे ही खेलता रहा जैसे हमारे क्रिकेटर बाल से खेलते रहते हैं । यदि आप भी खेल सकतें हैं तो जरूर शब्दकोश बनाएं । 

गीतेश नेगी - गढ़वाली भाषा साहित्य का भविष्य आप किस  प्रकार से देखते हैं ? इसमे क्या क्या चुनौतियां  आपको दिखाई  देती हैं ? गढ़वाली भाषा -साहित्य के प्रचार प्रसार पर आपके विचार तथा नई पीढ़ी  हेतु आपका कोई सन्देश ? 

भगवती प्रसाद नौटियाल - यद्यपि इस प्रश्न पर मैं पहले भी बहुत कह चुका हूँ तथापि पुनः आपसे कह रहा हूँ - गढ़वाली का भविष्य आशातीत नही है । हमारा  मानना है कि १८ वी १९ वी सदी से हम गढ़वाली  में साहित्यिक रचनाएँ कर रहे हैं और हताशा की बात है की इस अवधि में हमारे पास चार  महाकाव्य ,दस एक उपन्यास ,और कुछ गिनती के कहानी संग्रह हैं । यदि कुछ कविता संग्रह और व्यंग्यादि पुस्तकों की उपलब्धि नहीं होती तो हम क्या गिनती करते ? निबन्धों  के नाम पर दो -तीन निबन्ध संग्रह हैं ,घुम्मकड़ी (यायावरी )साहित्य पर भी फकत एक पुस्तक देखने में आई है । कुछ वर्षो से कवि सम्मेलन तो खूब आयोजित किये जा रहे हैं पर विशुद्ध  साहित्यिक गोष्ठियां लगभग शून्य सी हैं । क्या इस सबके होते हुए  भी आप गढ़वाली भाषा साहित्य का उज्जवल भविष्य देख रहें हैं ?
विभिन्न विधाओं में सतत साहित्य सृजन और भाषा का दैनिक संवाद में स्वछंद  प्रयोग के अतिरिक्त गढ़वाली भाषा का उज्जवल भविष्य सिर्फ  और सिर्फ दो कारकों के क्रियान्वयन पर निर्भर करता है  - (१) भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में स्थान मिले (२) साहित्यकार (लेखक,कवि ,नाटककार ,कहानीकार आदि ) एक मंच पर आकर भाषा को आठवीं अनुसूची में स्थान दिलाने हेतु क्रमिक अनशन पर बैठें ,दूसरे कवि सम्मेलनों के साथ -साथ साहित्यिक गोष्ठियों का भी आयोजन करें ।  मेरे इन्ही शब्दों में में साहित्य के प्रचार प्रसार और नई पीढ़ी हेतु सन्देश भी छुपा हुआ है । 

यदि ऐसा हुआ तो गढ़वाली एक समृद्ध भाषा है निसंदेह इसके सुनहरे दिन जरूर आयेंगे । 

सर्वाधिकार सुरक्षित (हलन्त ,जनवरी 2018 अंक में पूर्व प्रकाशित )