बाँध की विभीषिका पर आधारित गढ़वाली कविता : त्राहि माम
(BY : Geetesh Singh Negi )
गढ़वाली कविता : "त्राहि माम "
धरती घैल च
घैल पोडयूँ असमान
रुणी डाली टूप टूप यखुली
चखुला रिटणा बौल्या समान
रूमुक्ताल प्वडी द्यैली मा सुबेर की
पंदेरा घाट श्मशान समान
थर्र -थर्र कौंपणी जिकुड़ी कुयेडी
बैठ्युं कक्ख लुकैकी मुख सुर्ज घाम
व्हेय गईं गदेरा रोई रोईऽ समोदर
रन्डे ग्याई फ्योंली भी ज्वान
लमडयूँ लतपत -लमसट्ट व्हेकि भ्यालूं
कक्ख प्यारु म्यारु लाल बुराँस
हर्च्यीं मौल्यार फूलोंऽ फर
भौरों पुत्लौं खुण शोक महान
ढून्गा अब सिर्फ ढून्गा रै गईं
विपदा मा देब्तौंऽ का भी थान
गलणु ह्युं लाचारी मा द्याखा
जाणु उन्दु काल समान
छित्तर छित्तर व्हे गईं बीज हिमवंती
हे विधाता ! त्राहि माम
त्राहि माम
त्राहि माम
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रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित
गीतेश भाई हम गढ़वलि इन ठोकर खा खा के अपणि धरती थै उजण्णा का जिम्मेदार अफी छौं। सुन्दर कविता।
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