हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Monday, August 15, 2011

हिंदी कविता : स्वंत्रता का स्वप्न






































स्वंत्रता
का स्वप्न

स्वंत्रता का स्वप्न साथियो शायद अभी अधूरा है
राजमुकुट डूबे हैं सत्ता मद में
ये जश्न क्यूँ अभी बे मतलब का
क्यूंकि विजय संघर्ष अभी अधूरा है
लोकतंत्र के गलियारे में अब
घुसपैठ करता नित भ्रस्टाचार
हाय अभागा संसद क्यूँ सूना है
लुट रहे अपने ही भारत माता को
शपथ ले लेकर
महाभारत जारी है जीवन के कुरुक्षेत्र में
तो कहीं लगता धर्म गीता का ज्ञान अभी अधूरा है
नित होता परीक्षण एकलव्य का
महंगाई के चक्र-व्यूह मे फसा हर अभिमन्यु जूझ रहा
लगता श्री राम का भी अभी तक वनवास अधूरा है
द्रोपदी का होता चिर हरण चोराहौं पर नित
कौरवौं का लगता अभी तक सर्वत्र साम्राज्य पूरा है
चारा ,यूरिया ,बोफोर्स ,शेयर थे प्रस्तावना महज
कहीं राजा ,कहीं कलमाड़ी का कोमन वेल्थ
तो कहीं राडिया का शो आजकल हाउस फ़ुल पूरा है
स्वंत्रता का स्वप्न साथियो शायद अभी अधूरा है
कहीं पूरब कहीं पश्चिम कहीं उत्तर कहीं दक्षिण
सब कुछ बिखरा खंडित खंडित "गीत " यहाँ
अखंड भारत का स्वप्न साथियों शायद अभी अधूरा है
अखंड भारत का स्वप्न साथियों शायद अभी अधूरा है
अखंड भारत का स्वप्न साथियों शायद अभी अधूरा है




स्वंत्रता दिवस पर मेरी कलम से "स्वंत्रता का स्वप्न "
रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित

Wednesday, August 10, 2011

केशव अनुरागी

केशव अनुरागी


ढोल एक समुद्र है साहब केशव अनुरागी कहता था
इसके बीसियों ताल हैं सैकड़ों सबद
और कई तो मर-खप गए हमारे पुरखों की ही तरह
फिर भी संसार में आने और जाने अलग-अलग ताल साल
शुरू हो या फूल खिलें तो उसके भी अलग
बारात के आगे-आगे चलती इसकी गहन आवाज
चढ़ाई उतराई और विश्राम के अलग बोल
और झोड़ा चांचरी पांडव नृत्य और जागर के वे गूढ़ सबद
जिन्हें सुनकर पेड़ और पर्वत भी झूमते हैं अपनी-अपनी जगह
जीवन के उत्सव तमाम इसकी आवाज के बिना जीवनहीन
यह जितना बाहर बजता है उतना अपने भीतर भी
एक पाखे से फूटते बोल सुनकर बज उठता है दूसरे पाखे का कोई ढोल
बतलाता उस तरफ के हालचाल
देवताओं को नींद से जगाकर मनुष्य जाति में शामिल करता है
यह काल के विशाल पर्दे को बजाता हुआ
और जब कोई इस संसार से जाता है
तो मृत्यु का कातर ढोल सुनाई देता है
दूर-दूर से बुला लाता लोगों को
शवयात्रा में शामिल होने के लिए
लोग कहते थे केशव अनुरागी ढोल के भीतर रहता है
ढोल सागर के भूले-बिसरे तानों को खोजनेवाला बेजोड़ गायक
जो कुछ समय कुमार गंधर्व की संगति में भी रहा
गढ़वाल के गीतों को जिसने पहुंचाया शास्त्रीय आयामों तक
उसकी प्रतिभा के सम्मुख सब चमत्कृत
अछूत के घर कैसे जन्मा यह संगीत का पंडित
और जब वह थोड़ी पी लेता तो ढोल की तानों से खेलता गेंद की तरह
कहता सुनिए यह बादलों का गर्जन
और यह रही पानी की पहली कोमल बूंद
यह फुहार यह झमाझम बारिश
यह बहने लगी नदी
यह बना एक सागर विराट प्रकृति गुंजायमान
लेकिन मैं हूं अछूत कौन कहे मुझे कलाकार
मुझे ही करना होगा
आजीवन पायलागन महराज जय हो सरकार
बिना शिष्य का गुरू केशव अनुरागी
नशे में धुत्त सुनाता था एक भविष्यहीन ढोल के बोल
किसी ने नहीं अपनायी उसकी कला
अनछपा रहा वर्षों की साधना का ढोल सागर
इस बीच ढोल भी कम होते चले गए हमारे गांवों में
कुछ फूट गए कुछ पर नई पूड़ें नहीं लगीं
उनके कई बाजगी दूसरे धंधों की खोज में चले गए
केशव अनुरागी
मदहोश आकाशवाणी नजीबाबाद की एक कुर्सी पर धंसा रहा
एक दिन वह हैरान रह गया अपने होने पर
एक दिन उसका पैर कीचड़ में फंस गया
वह अनजाने किसी से टकराया सड़क पर
एक दिन वह मनुष्यों और देचताओं के ढोल से बाहर निकल गया
अब वह रहता है मृत्यु के ढोल के भीतर


ढोल सागर के ज्ञाता आदरणीय " केशव अनुरागी " जी को समर्पित हिन्दी के ख्यात साहित्यकार मंगलेश डबराल जी की यह कविता साभार