हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Thursday, June 23, 2011

गढ़वाली कविता : पहाड़


मी पहाड़ छोवं
बिल्कुल  शान्त
म्यार छजिलू  छैल
रंगिलू घाम
और दूर दूर तलक फैलीं
मेरी कुटुंब-दरी
मेरी हैरी डांडी- कांठी
फुलौं  की घाटी
गाड - गधेरा
स्यार -सगोडा
और चुग्लेर चखुला
जौं देखिक तुम
बिसिर जन्दो सब धाणी
सोचिक की मी त स्वर्ग म़ा छौंव
और बुज दिन्दो  आँखा फिर
पट कैरिक
सैद तबही नी दिखेंदी कैथेय
मेरी खैर
मेरी तीस 

म्यारू मुंडरु   
म्यारू उक्ताट
और मेरी पीड़ा साखियौं की
जू अब बण ग्याई मी
जण 
म्यार ही पुटूग
एक ज्वालामुखी सी
 
जू कबही भी फुट सकद !
 

रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह " घुर घूघुती घूर " से

Saturday, June 18, 2011

गढ़वाली कहानी : उक्काल काटी क सरपट

                                                           उक्काल काटी क सरपट

झंकरी बोडी कु नौनु बोडी थेय घार भटेय दिल्ली लिजाणु छाई , भारी उकाल काटी की जब वू धार मा पहुंची त बोडिल ब्वाल बुबा जरा बिसाई दयोला यम्मा |

नौनु किस्सा उन्द भटेय एक सिगरेट निकाली की सुलगाण बैठी ग्या और फिर दानी बुढडि ब्व़े थेय सम्झाणु छाई की ब्वे बस अब उकाल त कटेय ग्या पर बोडी कु मनं क्वान्सू छाई ,वेंकी आँखौं मा त बस घार - गौं -गुठीयार ,स्यार पुन्गडा , बल्द- बखरा ,घास -भ्याल ,पंदेरा -छन्छडा ही रिटणा छाई ,वींकू मन टपराणु छाई और आँखा उन्देय देखि की टुप टुप रूणा छाई |

सिगरेट कु धुँवा उड़ा की नौनल बोडी मा ब्वाल - ब्वे बस दिल्ली जा की ज़रा ईत्गा ध्यान रखि की जै कै दगडी गढ़वली मा ना बचेय और घार मा आण - जाण वाला नौना -नौनियों की घार-गौं जण भुक्की न प्ये और जै कै मा अपड़ी खैरी का बिठ्गा ना लग्ये क्याच की दिल्ली मा लोगों मा सब कुछ च पर टैम नि च |

बोडिल कुछ नि ब्वाल बस खंडेला ल आँखा फुन्जिक खोलैय की तडतड़ी उक्काल और उन्दू गौं जन्हेय दैख्यंण बैठी ग्या|

नौनल ब्वाल - ब्वे क्या देखणी छई ? उकाल त अब कटेय ग्या , बस अब त हम सरपट दिल्ली पहुंचला |

ब्वे ल ब्वाल - हाँ बुबा मी भी बस इही सोच्णु छोवं |
पर बगत कुछ भंडिया ही लग्गी ग्या सम्झण मा ?
म्यार लाटा ६० बरस कम नि हुन्दा ,इतरी छोटी धाण थेय बिंग्णा खुण ?
सैद बोडी भोत कुछ ब्वलूंण चाहणी छाई ,पर नौना ल बोडी की बात अणसुणी कैरी की ब्वाल
चल ब्वे अब भोत देर व्हेय ग्या , नथिर हमरी बस छुट जाण !

लेखक : गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : म्यार ब्लॉग हिमालय की गोद से

Thursday, June 16, 2011

गढ़वाली कबिता : बसंत

कब्भी त आल बसंत
म्यार मुल्क मा भी
बिगास बणिक
व्हाला स्वील सुपिन्या साखियौं का
बरसूँ भटेय कत्गौं की टक्क आश लगीं च
आला वू बौडिकी जब धार मा
तोडिकी जाल माया भ्रम का
व्हालू उन्दंकार
रौल्युं -पंदैरौं मा
चौदिश गौं - घार म़ा
तबहि आली मौल्यार डांडी काँठीयूँ मा
बासली घुगती फिर पुन्गडियूँ - स्यारयुं -सगोंडियूँ मा
आली ज्वनि फिर दाना भ्याल पाखौं म़ा
ब्वालाला चखुला काफुल पाको
फिर डाली डालीयूँ मा
खैलाला नौना फिर फूल पातियुं मा
चौक खिल्हाण मुळ -मुळ हैन्सला
गीत ग्वेयर्र फिर डांडीयूँ म़ा लगाला
बांसोल बजै कि रोल्युं रिझाला
बल्दौं का खांकर दयें म़ा बजला
सासू - ब्वारी गीत गंजेली लगाला
गौं -गौं म़ा व्हालू रूज्गार
नौना शिक्षित बिरुजगार नि राला
नि रालू पलायन फिर पहाड़ म़ा
विनाश कु राग़स बणिक
कब्भी त आल बसंत
म्यार मुल्क मा भी
बिगास बणिक


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह " घुर घूघुती घूर " से

Wednesday, June 15, 2011

गढ़वाली कविता : कट्गल

पहाड़ मा
धरु - धारौं मा - नेतौं की
गौं-गौं मा - आपदौं की
दफ्तरौं मा - सरकरी फईलौं की
घर -घरौं मा - उन्दु रडदा बेरोज्गरौं की
सैण-बज़ारौं मा - नेपली डुटीयलौं की
बिलोक मा - टवटगी बिगास योजनौं की
गाड - गद्नियों मा - भ्रष्ट परियोजनौं की
राजधानी मा - बारामषी झूठी घोषणऔं की
जिला कार्यालय मा - निकज्जू अफसरौं की
और क्वलण - कुम्च्यरौं मा - दारू का ठेक्कौं की
कट्गल लग्यीं चा !


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह " घुर घूघुती घूर " से

Tuesday, June 14, 2011

जसवंत बाबा भारतीय सेना के अमर जवान



In 1962, when the Chinese Army invaded India from N.E.F.A., a company of Garhwal Rifles was posted somewhere on the Assam-Arunachal Pradesh border. They were ordered to vacate their post as soon as possible, but Jaswant Singh Rawat decided to stay back and for THREE DAYS, he kept the rampaging Chinese at bay almost single-handedly. He was helped by two local girls, Nuang and Sella. When the situation became hopeless and to avoid the humiliation at the hands of the enemy, he shot himself. When the Chinese came to know that the post was defended by a lone soldier, they were so enraged that they cut-off his head and took it away with them. Later, after the war subsided, a Chinese officer heard his story and impressed by his valour, returned his head to the Indian Government and also gave a brass bust in his honor. The brass bust is placed on the spot where he fought so valiantly and the place has been named JaswantGarh. The two girls who helped him were also given due credit and the pass was named after Sella and the highway named after Nuang. (courtesy Anurag Bist)

Forty years after his death, an Indian rifleman has become a 'major general' and is still believed to 'command' troops guarding the dizzy heights along the frontier with China.

Rifleman Jaswant Singh Rawat of the Fourth Garhwal Rifles, an infantry regiment, is perhaps the only soldier in the long and chequered history of the Indian Army who has earned regular promotions even after death.Rawat remained at his post at an altitude of 10,000 feet and held back advancing Chinese troops for three days all by himself during the winter war with China in 1962 along the northeastern state of Arunachal Pradesh before he was shot dead.

The rifleman may have died, but soldiers say his spirit lives on.
Rawat gets an unofficial promotion at regular intervals. He is today a major general, and the post he held to repulse the Chinese is called Jaswant Garh in recognition of his courage.

Rawat's bravery has earned him a distinct place in the Indian Army along the unfenced 1,030-km Sino-Indian border. For the troops he is their guardian angel.

Myth, folklore and superstition are so strong among the soldiers that the battle site has been converted into a Hindu temple, with troops giving Rawat the status of 'baba' or saint.

"Troops passing by this route, be it a general or a soldier, make it a point to pay their respects at the shrine of Jaswant Singh or else they invoke his curse," warned Ram Narayan Singh, a soldier.

"A major general once refused to pray at his shrine while crossing the area, saying this was just a superstition. He died in a mysterious road accident a few kilometres away."

Today at least half a dozen personnel of the Garhwal Rifles are deployed along the border with China to take care of Rawat -- as if he were alive.

"For us he is immortal and continues to protect and bless us in this treacherous mountain terrain," a Garhwal Rifles soldier posted at Rawat's shrine said.

Soldiers behave as if Rawat is still alive - an orderly cooks for him daily, makes his bed, irons his clothes and polishes his boots. His shrine is protected round the clock.

"Each morning his bed is found crumpled and his freshly ironed clothes lie crushed on the floor," another soldier said. "He is here all the time although we cannot see him."

According to locals and soldiers posted near Jaswant Garh, Rawat's spirit roams the area. Some claim dreaming about him.

"The respect Rawat commands even after his death is something very rare in the Indian Army," Major Jaideep Ghosh told IANS. "I have never seen anything like this -- a dead soldier still influencing the troops."

Legend has it that the Chinese troops after killing Rawat beheaded him and carried his torso as a trophy because he alone stood guard against the rampaging invaders - armed with just a vintage .303 rifle.

But after the ceasefire, a Chinese commander, impressed by Rawat's bravery, returned the head along with a brass bust of Jaswant Singh. The bust, created in China to honour the Indian, is now installed at the site of the battle.

"A nation that does not honour its dead warriors will perish," an army commander remarked as soldiers lit earthen lamps at night at Rawat's shrine.



Jaswant Baba temple, Tawang, India
This travel blog photo's source is TravelPod page: Day 3 : Water Pressure!


गढ़वाली सैन्य परंपरा








प्राचीन ग्रंथों में तपोभूमि हिमवन्त बदरीकाश्रम, उत्तराखंड केदारखण्ड आदि नाम से प्रसिद्ध उत्तर प्रदेश का उत्तर पश्चिमी भू-भाग का नाम गढ़वाल सन् 1950 ई. के आसपास पड़ा। ख्याति प्राप्त इतिहासकारों का यह मत है कि उस वक्त इस प्रदेश में बावन या चौंसठ छोटे-छोटे सामन्तशाही ठाकुरगढ़ थे। ऋग्वेद में इन गढ़ों की संख्या 100 है। इसलिए अनेक गढ़ वाले देश अर्थात गढ़वाला या गढ़वाल आजकल के छह जिले अपनी सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषा और ऐतिहासिक समानता के कारण गढ़वाल नाम से जाने जाते हैं। भू-आकारिकी दृष्टि से सारा गढ़वाल क्षेत्र ऊंची-ऊंची पहाड़ियों, नदी, नालों, घने जंगल, पठार और सीढ़ीनुमा खेत वाला आने-जाने की सुविधा से रहित बड़ा ही कठिन क्षेत्र है। कठोर और कठिन स्थितियों में जीवन यापन करने की वजह से यहां का निवासी परिश्रमी और स्वाभाविक रूप से संघर्षपूर्ण जीवन बिताने का आदी होता है।
गढ़वाल क्षेत्र आदिकाल से ही वीरों की भूमि रहा है। ऋग्वेद, शतपथ ब्राह्मण और महाभारत में उल्लेखित पुरूरवा शूरवीर गंगा यमुना की उत्तरी घाटियों के निवासी थे। ऋग्वेद के अनुसार इनका निवास स्थान सरस्वती की धरती थी जो बदरीनाथ के ऊपर माणा के पास है। सिकन्दर का आक्रमण रोकने वाले पुरूरवा के वंशज राजा पुरू का गढ़ प्रदेश से अवश्य संबंध रहा होगा। इस प्रकार सिकन्दर के विरुद्ध लड़ने वाले ‘कथासी’ या ‘कथइस’ प्रजाति के लोग गढ़वाल पर्वतीय क्षेत्र के कठैत सूरमा ही थे। यूनानी इतिहासकार मेगस्थनीज के विवरण से यह संकेत भी मिलते हैं कि ग-न-गा-री (गंगा के तट पर बसे गंगाड़ी-गढ़वाल्यू) ने गंगा के किनारे एकत्रित हो सिकन्दर के विजय अभियान पर रोक लगाई थी।
गढ़वालियों के युद्ध पराक्रम से विचलित होकर तैमूरलंग ने (सन् 1368 ई.) अपना अत्याचारी अभियान देहरादून के समीप मोहन्ड से वापस कर दिया था। 17वीं शताब्दी में मुगल दरबार की यात्रा करने वाले महान वेनिस यात्री निकोलस और फ्रेंच इतिहासकार बर्नियर के इतिवृत से पता चलता है कि मुगल शासकों ने भी कई बार गढ़वाल क्षेत्र पर आक्रमण की योजना बनाई किन्तु छापामार युद्ध प्रणाली में दक्ष गढ़वाली वीरों के आगे उनकी एक न चली। औरंगजेब तो गढ़वाली वीरों के सैन्यबल एवम् युद्ध क्षमता से बहुत प्रभावित था।
गढ़वाली बहुत संवेदनशील एवं अपने आत्मसम्मान के प्रति सजग एवं सचेत रहने वाली जाति है। जातीय एवं राष्ट्रीय गौरव उसकी रग-रग में समाया है। उसमें युद्ध के प्रति स्वाभाविक रूचि और आकर्षण होता है। पूरी तरह से अनुशासनशील, वफादार और कर्तव्य के प्रति आत्मोसर्ग तक करने की प्रवृत्ति के कारण गढ़वाली एक आदर्श सैनिक होता है। गढ़वाली लोकगीत एवं लोकगाथाओं में ऐसे कई गढ़वाली वीरों का वर्णन है। कफ्फू चौहान, माधो सिंह भण्डारी, रानी कर्णावती, तीलू रौतेली जैसे अनेक वीर-वीरांगनाओं की शौर्य गाथाओं से इतिहास भरा है। 18वीं शताब्दी के आखिरी दशकों में आंतरिक कलह, दैवीय प्रकोप, भूकम्प और अकाल आदि ने गढ़वाल की आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति बहुत दयनीय कर दी। इस अवसर का लाभ उठाते हुए गोरखों ने कुमाऊं के रास्ते गढ़वाल पर धावा बोल दिया। उनका पहला आक्रमण सन् 1791 में हुआ किन्तु उनको लंगूरगढ़ी के पास रोक दिया गया। पर उनका दूसरा हमला सशक्त था। 1804 ई. में देहरादून के खुड़बुड़ा नामक स्थान पर गढ़वाल नरेश प्रद्युम्नशाह युद्ध करते-करते खेत रहे और गढ़वाल पूरी तरह से गोरखों के अधीन हो गया। उस काल में गढ़वाल राज्य की सीमा उत्तर में तिब्बत व दक्षिण में रामगंगा तक थी।
आगे के 12 वर्षों का ‘गुरख्याणी’ राज अत्याचार, नृशंसता और क्रूरता से भरा रहा। किन्तु अंग्रेजों के हस्तक्षेप के फलस्वरूप गढ़वाल दो भागों में विभाजित हुआ। भगीरथी अलकनन्दा व देवप्रयाग के पश्चात् गंगा का पूर्वी भाग दूहरादून समेत कम्पनी के आधिपत्य में आ गया और बाकी भाग पंवार वंशी प्रद्युम्नशाह के पुत्र सुदर्शनशाह को वापस मिल गया जिसने टिहरी नगर को अपनी नई राजधानी बनाया। और तब से गढ़वाली सेना की धीरे-धीरे उन्नति आरंभ हुई।
गढ़वाल का अधिकांश भाग कम्पनी सरकार के अधिकार में आने के बाद अंगे्रजों ने सेना का पुनर्गठन आरम्भ कर दिया। प्राकृतिक आपदा, राजनीतिक उथल-पुथल, दर्भिक्ष आर्थिक संकट आदि के कारण उस समय गढ़वालियों का मनोबल बहुत गिरा हुआ था। गोरखों के हाथों सन् 1804 ई. की हार के कारण अंग्रेज भी गोरखों की तुलना में गढ़वालियों को सैनिक दृष्टि से हीन समझते थे। इस कारण शुरू-शुरू में गढ़वालियों को गोरखा व कुमाऊं पल्टन में ही रखा गया। इस मिलीजुली पल्टन को उस समय ‘नसीरी’ या ‘सिरमौर’ बटालियन के नाम से जाना जाता था पर प्रतिभा बहुत दिनों तक छुप कर नहीं रह सकती।
‘नसीरी’ बटालियन में कई गढ़वालियों ने अपनी वीरता और रण कुशलता के आधार पर प्रसिद्धि व सम्मान पाने आरम्भ कर दिये।
इनमें बलभद्र सिंह नेगी का नाम विशेष उल्लेखनीय है, जिन्होंने सन् 1879 में कंधार के युद्ध में अफगानों के विरुद्ध अपनी अद्भुत हिम्मत, वीरता और लड़ाकू क्षमता के फलस्वरूप ‘आर्डर ऑफ मैरिट’, ‘आर्डर ऑफ ब्रिटिश इण्डिया’, ‘सरदार बहादुर’ आदि कई सम्मान पदक प्राप्त करे। उस समय दूरदृष्टि रखने वाले पारखी अंग्रेज शासक गढ़वालियों की वीरता और युद्ध कौशल का रूझान देख चुके थे। तब तक बलभद्र सिंह नेगी प्रगति करते हुए जंगी लाट का अंगरक्षक बन गया था। कहा जाता है कि बलभद्र सिंह नेगी ने ही जंगी लाट से अलग गढ़वाली बटालियन बनाने की सिफारिश करी। लम्बी बातचीत के उपरान्त लार्ड राबर्ट्सन ने 4 नवम्बर 1887 को गढ़वाल ‘कालौडांडा’ में गढ़वाल पल्टन का शुभारम्भ किया। कुछ वर्षों पश्चात् कालौडांडा का नाम उस वक्त के वाइसराय लैन्सडाउन के नाम पर ‘लैन्सडाउन’ पड़ा, जो आज भी गढ़वाल रेजिमेंटल सेंटर एवं रिकार्ड का मुख्यालय है।
गढ़वाली, कुमाऊंनी एवं गोरखा कम्पनी में थोड़ा बहुत हेर-फेर करने के पश्चात एक शुद्ध रूप से गढ़वाली पलटन बनाई गई, जिसका नाम 39वीं गढ़वाली रेजीमेंट ऑव दि इनफैन्ट्री रखा गया। इस रेजीमेंट की एक टुकड़ी को 1889 ई. में 17000 फीट की ऊंचाई पर नीति घाटी में भेजा गया, जहां इन्होंने बहुत लग्न, दिलेरी एवं कर्तव्यनिष्ठता से अपना कार्य किया, जिसके लिए इनको तत्कालीन जंगी लाट ने प्रशंसा पत्र दिए। उसके बाद 5 नवम्बर 1890 ई. में इस रेजीमेंट की 6 कम्पनियों को चिनहिल्स (बर्मा) में सीमा सुरक्षा हेतु भेजा गया। विपरीत परिस्थितियों में असाधारण शौर्य एवं साहस दिखाने के वास्ते प्रत्येक सिपाही को ‘बर्मा मेडल’ एवं ‘चिनहिल्स मेडल’ दिये गये। इस लड़ाई में 44 गढ़वाली ‘चिनहिल्स मेडल’ दिए गए। इस लड़ाई में 44 गढ़वाली सिपाही शहीद हुए। इस सफलता के फलस्वरूप 1892 ई. में रेजीमेन्ट को सम्मानजनक ‘राइफल’ की उपाधि प्रदान की गई। धनसिंह बिष्ट तथा जगत सिंह रावत की वीरता विशेष उल्लेखनीय रही जिसके वास्ते उन्हें विशेष पदवी से अभिनंदित किया गया। इसी प्रकार सन् 1897 ई. में सीमान्त प्रदेश में विद्रोही कबीलों का सफलतापूर्वक दमन करके के कारण रेजीमेन्ट को ‘पंजाब फ्रंटियर’ तथा हिस्सा लेने वाले सिपाहियों को ‘टीरी’ मेडल दिए गए।
तदुपरान्त अपनी प्रतिभा, पराक्रम तथा युद्ध कौशल दिखाने के कारण गढ़वाली पल्टनों का सैन्य स्वरूप फल-फूल कर पुनर्गठित होने लगा। कुछ फेरबदल करने के पश्चात 1901 ई. में गढ़वालियों की दूसरी बटालियन 39वीं गढ़वाली राइफल्स ऑफ बंगाल इनफैन्ट्री के नाम से खड़ी की गई। इसमें उल्लेखनीय है कि 1901 ई. में गोरखों के अलावा और किसी को भी एक से अधिक रेजीमेन्ट नहीं थी। गढ़वाली शूरवीरों को सम्मान स्वरूप सन् 1901 में सम्राट एडवर्ड के राज्याभिषेक समारोह में भाग लेने के लिए आमंत्रित किया गया। सन् 1905 व 1906 में गढ़वालियों की दोनों बटालियनों ने चितरसाल के युद्ध में अपने साहस व वीरता का अच्छा परिचय दिया जिससे प्रसन्न होकर 1911 ई. में सम्राट जार्ज पंचम के दिल्ली दरबार में प्रतिनिधित्व करने का सौजन्य प्राप्त हुआ। इससे पूर्व 1907 में टिहरी नरेश कीर्तिशाह के शासनकाल में ‘टिहरी इम्पीरियल सफरमैन’ पल्टन की स्थापना की गई। तब तक ‘गढ़वाल ब्रिगेड’ भी बन गई थी। इस समय गढ़वाली सैनिकों की गिनती दुनिया के सर्वश्रेष्ठ साहसी व पराक्रमी योद्धाओं में होने लगी थी। गढ़वालियों को ‘मार्शल रेस’ में भी शामिल कर लिया गया।
इस सम्मान के मिलने से हर स्वस्थ, तंदुरुस्त, हृष्ट-पुष्ट गढ़वाली जवान पल्टन में भर्ती होना अपना सम्मान समझने लगा था।
गढ़वालियों की युद्ध क्षमता की असल परीक्षा प्रथम विश्व युद्ध में हुई जब गढ़वाली ब्रिगेड ने ‘न्यू शैपल’ पर बहुत विपरीत परिस्थितियों में हमला कर जर्मन सैनिकों को खदेड़ दिया था। 10 मार्च 1915 के इस घमासान युद्ध में सिपाही गब्बर सिंह नेगी ने अकेले एक महत्वपूर्ण निर्णायक व सफल भूमिका निभाई। कई जर्मन सैनिकों की खन्दक में सफाया कर खुद भी वह वीरगति को प्राप्त हुआ। उत्कृष्ट सैन्य सेवा हेतु उसे उस समय के सर्वोच्च वीरता पुरस्कार ‘विक्टोरिया क्रास’ मरणोपरांत प्रदान किया गया। इसी युद्ध में फेस्ट्वर्ड की भयंकर लड़ाई हुई, जहां शीतकालीन जर्मन सेना ने मित्र राष्ट्र के कई महत्वपूर्ण ठिकानों पर कब्जा कर लिया था। यहां पहले गढ़वाल बटालियन ने छापामार तरीके से ठिकाने वापस लिए व भारी संख्या में जर्मन सैनिकों को बन्दी बनाया, जिसमें विजय ब्रिटेन को मिली। इस संघर्ष में नायक दरबान सिंह नेगी को अद्भुत रणकुशलता, वीरत्व और साहस दिखाने के वास्ते ब्रिटेन सम्राट ने उसे युद्ध भूमि में ही सर्वोच्च पुरस्कार ‘विक्टोरिया क्रास’ से अलंकृत करके गढ़वालियों का सम्मान बढ़ाया। उस समय विपक्षी जर्मन व फ्रांसीसी सैनिक भी गढ़वाली सैनिकों का लोहा मानने लगे थे। उनकी शूरवीरता तथा दिलेरी की सब जगह चर्चाएं होती थी।
सन् 1917 में पुनर्गठन व नई भर्ती के बाद गढ़वाल रेजीमेंट फिर तुर्की के विरुद्ध कुर्दिश पहाड़ियों की घमासान लड़ाई में भेजी गई, जहां कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने आश्चर्यजनक सफलता हासिल की। इस बीच लैंसडाउन में और भर्तियां होती रहीं। सन् 1916 और 1918 के बीच तीसरी व चौथी बटालियन भी खड़ी हो गई। इन दोनों बटालियनों ने अफगान युद्ध में विशेष वीरता का प्रदर्शन किया। चौथी बटालियन के कमांडर को अद्भुत पराक्रम के लिए मरणोपरांत ‘विक्टोरिया क्रास’ से अलंकृत किया गया। दूसरी बटालियन ने मोसोपोटामिया में तुर्क सेना को घुटने टेकने को मजबूर कर दिया व रमादि क्षेत्र पर प्रभुत्व जमा लिया। दो हजार तुर्क सेना आत्मसर्मपण के लिए बाध्य हुई। गढ़वालियों द्वारा पकड़ी गई तुर्की आर्टिलरी गन अभी भी लैन्सडाउन संग्रहालय में है। प्रथम विश्व युद्ध में अनुशासन तथा रण कौशल दिखाने के लिए ‘ड्यूफ ऑफ कनॉट’ की रॉयल पदवी से गढ़वाल राइफल्स सम्मानित हुई तथा विशेष भूमिका की स्मृति में सन् 1923 में ‘गढ़वाली सैनिक’ एक कांस्य प्रतिभा लैंसडाउन परेड ग्राउंड में सम्मान स्वरूप स्थापित की गई जो आज भी वहां है।
फिर 23 अप्रैल 1930 में गढ़वाली सैन्य इतिहास में एक युगान्तकारी घटना घटी जब नायक चन्द्रसिंह के नेतृत्व में गढ़वाली सिपाहियों ने एक शान्तिप्रिय तरीके से आन्दोलन कर रहे पेशावरी, निहत्थे जन समूह पर गोली चलाने को मना कर कोई भी दण्ड स्वीकारना श्रेयस्कर समझा। निर्दोष, निरीह, निर्बल वर्ग की रक्षा और जातिगत सम्मान का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण पेशावर की घटना है। गढ़वालियों का यह आश्चर्यचकित करने वाला साहसिक एवं राष्ट्रवादी प्रदर्शन था जिसका कालान्तर में दूरगामी प्रभाव पड़ा। इस घटना से प्रभावित होकर बाद में हजारों सैनिक आजाद हिन्द फौज की तरफ लड़े। नौसेना में भी विद्रोह की चिंगारी इसी घटना के बाद फूटी।
दूसरे विश्व युद्ध के दौरान गढ़वाली सैनिकों की पांच नई बटालियन खड़ी की गई, जिन्होंने पश्चिमी एशिया के रेगिस्तानी भू-भाग, मलेशिया से अक्रान्त बर्मा के घने जंगलों व इटली के ऊबड़-खाबड़ पठारी इलाकों में घमासान लड़ाई लड़ी व अपनी वीरता व युद्ध कौशल का परिचय दिया। इटली अभियान के दौरान तीसरी बटालियन ने गल्लावत, इरिस्ट्रिया, कारिन, कामरिन आदि स्थानों पर विजय प्राप्त की। पहली बटालियन बर्मा, उत्तरी अराकान, नगक्याडौक दर्रा, बूघीडंड और रामरी, आइसलैंड में मोर्चाबंदी की। हालांकि लड़ाई में गढ़वालियों ने गौरिल्ला रणनीति अपा कर सफलता प्राप्त की। इसके लिए इन्हें अनेक सैनिक पदकों से सम्मानित किया गया। टिहरी रियासत की ‘साइपर्स एण्ड माइनर्स फील्ड कम्पनी’ और ‘13वीं फ्रंटियर कोर्स’ अफ्रीका में लीबिया तथा मिस्र की लड़ाई में शरीक हुई।
देश की स्वतंत्रता के उपरान्त गढ़वाल रेजीमेन्ट में स्काउट, टेरिटोरियल आर्मी, इकोलोजिकल आदि कई बटालियन मिल गई। आन्तरिक सुरक्षा में भी गढ़वाली पलटनों ने उल्लेखनीय भूमिका निभाई। सन् 1948 में कश्मीर संघर्ष के दौरान उड़ी, बारामूला तथा टिथावल से पाकिस्तानियों को खदेड़ बाहर करने में गढ़वाली पलटनों ने जिस शौर्य का परिचय दिया उसके लिए उन्हें एक महावीर चक्र और 18 वीर चक्र दिए गए, जो अपने आप में एक रिकार्ड है।
20 सितम्बर 1962 ई. को चीनियों ने अरुणाचल (तत्कालीन नेफा) में सीमा पार करके अचानक हमारी फौजी चौकियों पर धावा बोल सारे देश को अचंभित कर दिया। उनको खदेड़ने की जिम्मेदारी चौथी गढ़वाल रेजीमेन्ट को मिली। गढ़वालियों ने उस बर्फानी इलाके में बिना उचित गरम कपड़ों व उपयुक्त युद्ध सामग्री के पहले तवांग व फिर नूरानांग आदि दुर्गम स्थानों पर कठोर युद्ध किया। चीनियों द्वारा सेला पर भयंकर आक्रमण को भी गढ़वालियों ने बहुत देर तक रोके रखा। उस समय कोर कमाण्डर ले. जनरल बी. एम. कौल ने अपनी पुस्तक ‘अनटोल्ड स्टोरी’ में लिखा कि जिस बहादुरी से चौथी गढ़वाल वहां लड़ी बाकी भी ऐसे ही लड़ते तो युद्ध के परिणाम कुछड और ही होते। नायक जसवंत सिंह को असीम वीरता प्रदर्शित करने पर मरणोपरांत महावीर चक्र और बटालियन को ‘बैटल आनर ऑफ नूरानांग’ से सम्मानित किया गया। चौथी गढ़वाल को नेफा के इस युद्ध में दो ‘महावीर चक्र’, सात ‘वीरता चक्र’ और एक सेना मेडल तथा एक ‘मेंशन इन डिस्पेंचज’ से अलंकृत किया गया। वीरता के ऐसे उदाहरण इतिहास में कम ही मिलते हैं।
सन् 1965 के भारत-पाक युद्ध में फिर गढ़वाली पीछे न रहे। उन्होंने राजस्थान में वीरता से लड़ एक महावीर चक्र व सेना मेडल प्राप्त किया। चौथी बटालियन ने नौशेरा, पांचवी और छठी ने पूर्वी क्षेत्र में कई वीरता पदक प्राप्त किए। फिर गढ़वाली सिपाहियों ने श्रीलंका के ‘ऑपरेशन पवन’ में जो बलिदान दिया वो किसी से छिपा नहीं है।
जून-जुलाई 1999 में कारगिल के ‘आपरेशन विजय’ के दौरान गढ़वाली योद्धाओं ने व्यापक रूप से अपनी सैनिक दक्षता, रण-कुशलता, साहस, शौर्य, अनुशासन और कर्तव्य परायणता की अप्रतिम मिसाल कायम की गढ़वाल रेजिमेंट की चार बटालियन 10वीं, 14वीं, 17वीं व 18वीं इस लड़ाई में शामिल हुई, जिन्होंने इस क्षेत्र में सामरिक दृष्टि से महत्वपूर्ण कई चोटियों व ठिकानों पर दुबारा कब्जा कर अपनी रेजिमेन्ट का सम्मान बढ़ाया। हर प्रकार से विपरीत हालातों की अनदेखी कर दुश्मन के गोलों की परवाह किए बिना इन शूरवीरों ने अंतत: देश को विजय दिलाई। गढ़वाली सैन्य इतिहास की सौ वर्ष से भी अधिक त्याग व बलिदान की परम्परा निभाते-निभाते लगभग 125 गढ़वालियों ने सर्वोच्च बलिदान देकर अपना नाम स्वर्णाक्षरों में अंकित किया।
मात्र पौड़ी जनपद से ही लगभग 28 वीरों ने अपनी प्राणों की आहुति कारगिल युद्ध में दी। ये देश का दूसरा जिला है, जहां सबसे अधिक रण-बाकुरों ने अपनी आहुति देश की खातिर दी। आबादी अनुपात में भी ये संख्या बड़ी है। इस लड़ाई में कितने ही गढ़वाली वीरों को वीर चक्र, शौर्य चक्र और सेना मेडल से सम्मानित किया गया।
किसी भी लड़ाकू रेजिमेंट की युद्ध कुशलता व बहादुरी का अंदाज प्राप्त वीरता पदक व बलिदानों से लगाया जाता है। भारतीय सेना के अनुपात में गढ़वाल राइफल्स को सर्वाधिक वीरता पदक मिलने का श्रेय है। सबसे अधिक प्राणों की आहुति भी अनुपात की दृष्टि से इन्होंने ही दी। प्रथम विश्व युद्ध में ‘विक्टोरिया क्रास’ प्राप्त करने के बाद स्वतंत्रता मिलने तक 448 वीरता पदक गढ़वाल रेजिमेंट को मिली इनमें चार ‘महावीर चक्र’ और 35 ‘वीर चक्र’ भी शामिल है। यह रेजिमेंट अब तक 30 युद्ध सम्मान और 9 युद्ध क्षेत्र के सम्मान भी प्राप्त कर चुकी है।
बहादुरी, शौर्य, निष्ठा, रण-कौशल व बलिदान के लिए विख्यात गढ़वाली सैनिकों ने देश की अखण्डता और रक्षा के लिए एक अविस्मरणीय योगदान दिया है। शक्ति का उपासक गढ़वाली वीर जरूरत पड़ने पर दुश्मन के प्राण लेने को तत्पर रहता है चाहे इसमें उसे अपनी ही बलि क्यों न देनी पड़े। गढ़वाली जांबाजों के त्याग, वीरत्व और बलिदानों की गौरवमयी गाथा सदैव स्वर्णाक्षरों में लिखी जाएगी।
Jaswant Baba temple, Tawang, India
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साभार : ले. क.(अ.प्रा.) डॉ. अचलानन्द जखमोला

हिंदी कविता : मौन



वर्षा !
ये  मौन तुम्हारा
करता नित संवर्धन
द्वंद मेरे अंतर्मन का
देते निमंत्रण
सुन्दर समोहक
चक्षु तुम्हारे
अधरों को मेरे
पर प्रिये !
शून्य है क्यूँ
तुम्हारा आलिंगन
और क्यूँ शांत है
मन का आँगन
जहाँ सहस्त्र स्वप्न दर्पण खंडित हुए

छन्न  से एक  एक  कर 
फिर भी है ध्वनि रहित
क्यूँ वियावान सा
वह जीवन कानन
अट्टाहास करता
प्रतिदिन
और मैं बस निहारता
एकटक
असहाय और निरुत्तर  सा
चंद्रमुखी को
सजल नेत्रौं में
योवन के मौन को
ढूंढ़ता 
शब्दहीन !


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत :       मेरे ब्लॉग हिमालय की गोद से


Monday, June 13, 2011

हिंदी कविता :प्रतीक्षा



निहार रहा

अनंत पथ
अथाह आस
अश्रु सजल
श्वेत धवल
शीतल स्पर्श
कर स्मरित
मन का खग
करता विरह का
करुण  क्रंदन
प्रणय मिलन
अटूट बंधन
और मेरी चिर स्वामिनी
प्रिय वर्षा का
बस एक कथन
प्रिये ! मैं  लौट आउंगी
तज स्वर्ग को भी
मत होना अधीर
करना बस प्रतीक्षा मेरी
अनवरत !

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार  सुरक्षित

स्रोत :मेरे ब्लॉग हिमालय की गोद से

हिंदी कविता :प्रणाम


निर्झर
प्रखर
चंचल
 योवन
खड़ा निष्णात
निहार रहा हिम शिखरों को
सरिता के तीर
संग वर्षा के खंजन नयन बाण
एक -एक कर
लेता ह्रदय  में
कर रहा अनवरत
असीम अमृत रस पान
शाश्वत सौन्दर्य का
धरा के
झुक कर करता
 ह्रदय   कोटि कोटि
हे मात्र भूमि  
तुझको प्रणाम !


रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित

स्रोत : मेरे ब्लॉग हिमालय की गोद से
 

Sunday, June 12, 2011

गढ़वाली कविता : हैंकि बात



जिकुड़ी रुझ्यीं राई त्यारा ही ख्यालौं  मा
अर मन राई तिसल्या बरसौं भटेय
त्वे कल्कली तक नि लग्गी
त वा बात हैंकि च

जप्णु रौं माला त्यारा ही रूपा की
आँखा बुझी  की झणी कब भटेय  
तिल ही नि पछ्याँण साकू मी
त वा बात हैंकि च

ब़िरडयूँ  रौं बाटौं  मा भी सौन्गा सरपट
त्वे खुज्याँण मा
अब  तू धार मा की जौन बणी छई
 त वा बात हैंकि च

बिराणु रौं कांडा बगत बगत
त्यार खुटौं  का
अर तू  अप्थेय देबता चिताणी रै
 त वा बात हैंकि च

दिणु रौं सहारू त्वे थेय
सुख दुःख मा बोटिक अंग्वाल
कन्नू रौं  जग्वाल कुक्कुर सी तेरी
अब तू मिथ्यै  ह़ी ढुन्ग्याणि  छई
त वा बात हैंकि च

कबहि स्वीणों मा त कबहि यकुला -यकुली 
बच्याणु रौं मी बोल्या बणिक
सरया दूणिया  छल्या सुणिक  ऐडाट  म्यारु
बस तिल ही नी सुणु 
अब त्यार कंदुड ब्यलै ग्ये होला
त वा बात हैंकि च

रौं बैठ्युं छाल मा
छाला कु ढुन्गु बणिक
बाटु देख्णु त्यारू
तू छल्या-छाल पैटी ग्ये चुपचाप
त वा बात हैंकि च

 रौं खत्णु मीठ- मीठा बचन
तिल मुख तक नी लगाई
 जू म्यार करम ही खट्टा रै होला
त वा बात हैंकि च |


रचनाकार :गीतेश सिंह नेगी , सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह  " घुर घूघुती घूर " से

गढ़वाली कविता : बिरलु

 

बिलोका  की मीटिंग मा

व्हेय ग्या बिद्रोल
प्रमुख छाई कन्नू फिफराट    
चली ग्या कैरिक घपरोल
चांदु ठेक्क्दार  और पांचू प्रधान
कन्ना छाई ऐडाट
क्या व्हालू हमर ठेक्कौं कु अब
कन्न फुट कपाल
चतरू बुड्या हैसणु राई
थामिकी चिलम
बिरलु जी रुसालु
आखिर कज्जी तलक
फ्यारलू मुख दुधा की डिग्ची देखि
द्याखा धौं आखिर कज्जी तलक ?

 

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे अप्रकाशित  गढ़वाली काव्य संग्रह   " घुर घूघुती घूर " से      


Thursday, June 9, 2011

गढ़वाली कविता : बिचरी



बिचरी तू

अर
त्यारा वू दिन
अज्जी तक नि बदला
वा बात हैंकि च 
की जू त्यारा छाई
वू बदली
गीईं
एक -एक कैरिक  | 



रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सर्वाधिकार सुरक्षित

स्रोत : मेरे अप्रकाशित  गढ़वाली काव्य संग्रह   " घुर घूघुती घूर " से