हिमालय की गोद से

हिमालय  की  गोद  से
बहुत खुबसूरत है आशियाना मेरा ,है यही स्वर्ग मेरा,मेरु मुलुक मेरु देश

Sunday, May 29, 2011

गढ़वाली कविता : लोकभाषा और संस्कृति



लोक-भाषा -संस्कृति हमरी
मुल्क हिवांला की च शान
बिन भाषा और संस्कृति  का
बतावा  क्या च हमरी पछ्याँण ?

ढोल सागर की संस्कृति जक्ख
खतेंदु   छाई जागर गीतौं कु दुर्लभ ज्ञान
लोक-भाषा बिन वक्ख बतावा
भौल  कन्नू कैकी मुख दिखांण ?

मांगल गीतौं की जक्ख  बोग्दी गंगा
लोक-नृत्य
करद हिमालय कु  सिंगार 
अजर अमर संस्कृति  सांखियुं की
आवा करला यून्की  शौक- संभाल

बीरौं भड़ौं का लग्दिन पंवाडा जक्ख
धरुं धरुं  मा हुन्द उन्कू यशगान
स्वर्ग से भी सुन्दर च धरती हमरी
छोडिक इन्थेय हमल निर्भग्यो
जाण ता आखिर कक्ख  जाण ?

भाषा बचोंला  संस्कृति बचोंला
बचोंला साखियुं पुरणी पछ्याँण
भाषा छोडिकी संस्कृति छोडिकी
क्या लिजाण और कक्ख लिजाण ?

मनखी रे कैरी  सदनी
माँ- भाषा और संस्कृति कु सम्मान
गेड  मारिकी धैरी लै - यूँ बिन
नी च  तेरी कुई  पछ्याँण
नी च तेरी कुई  पछ्याँण

 


रचनाकर :गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से,सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह  " घुर घुगुती घुर " से  

     

गढ़वाली कविता : गंडेल


वे थेय नी च अब डैर
कैकी भी
ना पटवरी की
ना प्रधनौं की
ना पंचेत -प्रमुखौं की
न मंत्रियुं की
ना बड़ा बड़ा साब संतरियूँ की
किल्लेय की सब दगडिया छीं वेक्का
कन्ना छीं सब वेकि ही अज्काल जै जयकार ,
गंडेल जण अल्लगै की मुंड सर्र सर्र
बोलणा छीं दगडी
जै भ्रष्टाचार !
जै भ्रष्टाचार !
जै भ्रष्टाचार !

रचनाकर :गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से,सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत : मेरे अप्रकाशित गढ़वाली काव्य संग्रह  " घुर घुगुती घुर " से 

Tuesday, May 24, 2011

गढ़वाली कविता : घन्डूड़ी

 
मिल दद्दी  मा ब्वाल - दद्दी काश  मी  घन्डूड़ी हुन्दु
उड़  जान्दु फुर्र- फुर्र दूर परदेश भटेय
अपड़ा गौं पहाड़ जनेय
फिर उडणू  रैन्दू वल्या-पल्या सारियुं मा
डालियुं - पन्देरौं मा
खान्दू  काफल -हिन्सोला
किन्गोड़ा- तिम्ला और बेडु
पिन्दू छुंयाल धारा -मगरौं - छंछडौं  कु पाणी
बैठ्युं  रैन्दू छज्जा -तिबारी- खालियाँण  
या फिर चौक - जलोठौं   मा
दद्दी ल बवाल - म्यार लाटा
तेरि भी ब्बा सदनी बकि बात की छुयीं रैंदी
 ब्वलण  से भी बल कबही कुछ हुन्दु चा ? 
दस साल भटेय वू निर्भगी सुबेर शाम 
बिगास बिगास बसण  लग्यां छीं
कक्ख  हुणु  च वू बिगास ?
और कैकु  हुणु चा ?

जरा बतै  धौं 

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित
स्रोत :       म्यार ब्लॉग हिमालय की गोद से   
 
      
         

Sunday, May 22, 2011

गढ़वाली कविता :सब गोल


संसद मा नेता 

गौं  मा प्रधान 
चौकी  मा पटवरी 
स्कूल  मा स्कूलया    
ब्लाक मा विगास-योजना 
पहाड़ मा मनखी 
और या सरया दू
णिया    
किल्लेय   छीं सब  गोल ?

 
रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित

 

गढ़वाली कविता : शहीद



विन्की गुन्द्क्यली मुखडी 
बुरंशी सी ऊँठडी
मयालि आँखी
चौन्ठी मा कु तिल 
चूड़ियों की खणक
और बगत बगत गलोडियों की भुक्की पिण वली
विन्की  लटुली
नि बाँध  साकी वे थेय 
जू चली ग्या रणभूमि मा
छोड़िक  ब्वे- बाब, भैइ बहिणों
और अप्डी सोंजडया थेय
व्हेय गया शहीद 
एक और उत्तराखंड कु
मात्रभूमि की रक्षा मा
सदनी की चराह 
कैरी ग्या 
नाम रोशन
गढ़ - भूमि कु
बीरों भडौं कु
गढ़ रैफ़ल कु
देवभूमि उत्तराखंड कु                  
 
रचनाकार : ( गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित )              

गढ़वाली कविता : त्वै बिन



धार मा की जौन
ऋतू बसंती मौल्यार
बग्वाली की धूम
होली का हुल्करा
थोल-मेलौं -कौथिगौं  का ठट्ठा मज्जा
ग्वेरौं का बन्सुल्या गीत
खिल्यां फूल फ़्योंली और बुरांश का
और पन्देरा की बारामसी छुयीं-बत्ता
सबही बैठ्याँ छीं 
बौग मारिक
चुपचाप
त्वै बिन !   

रचनाकार : ( गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित )          
       

Saturday, May 21, 2011

गढ़वाली कविता : ठेक्कदार

 
सूबदार,
हौल्दार ,
थाणादार ,
डिप्टी - कलक्टर ,
तहसीलदार ,
डॉ ० और प्रिंसिपल साहब
सबही  प्रवासी व्हेय
ग्यीं
अब रै ग्यीं त  बस
ठेक्कदार,
और उन्का  डूटयाल    
जू लग्याँ छीं  
दिन रात
सबुल लगांण  मा
अफ्फ अफ्फ खुण
पहाड़ मा
म्यारा कुमौं-गढ़वाल मा  !



 
रचनाकार  :गीतेश सिंह नेगी ( सिंगापूर प्रवास से,सर्वाधिकार-सुरक्षित )

गढ़वाली कविता : सम्लौंण



कुछ सुल्झयाँ 
कुछ अल्झयाँ
कुछ उक्करयाँ
कुछ खत्याँ
कुछ हरच्यां
कुछ बिसरयाँ
कुछ बिस्ग्याँ
त कुछ उन्दू बौग्याँ
कुछ हल्याँ
कुछ फुक्याँ
कुछ 
कत्तर - कत्तर हुयाँ
मेरी इन्ह  जिंदगी का पन्ना
बन बनिका  हिवांला रंगों मा रुझयाँ
चौदिश बथौं मा  उड़णा 
हैरी डांडीयूँ - कांठी
यूँ  मा
चिफ्फली रौल्यूं की ढून्ग्युं मा
पुंगडौं-स्यारौं -
गौडियों मा
फूल -पातियुं मा
भौरां - प्वत्लौं मा
डाली- बोटीयूँ मा
चौक - शतीरौं    मा 
दगड़ ग्वैर-बखरौं मा
हैल - दथडियूँ  मा
भ्याल - घस्यरियौं मा
पाणि -पंदेरौं मा
गुठ्यार- छानियौं  मा
चखुला बणिक
डंडली - डंडली  मा
टिपण लग्याँ
म्यरा द्वी
भुल्याँ - बिसरयाँ खत्याँ 
   बाला दिन 
                                             
   रचनाकार  :गीतेश सिंह नेगी ( सिंगापूर प्रवास से,सर्वाधिकार-सुरक्षित )

गढ़वाली कविता : छिल्लू मुझी ग्या


     
बैइमनौं  का राज मा -ईमनदरी कु
भ्रस्टाचरी गौं - समाज मा -धरमचरी कु
मैंहंगई का दौर मा - गरीबौं कु 
गल्दारौं  का राज मा - वफादरौं कु
ठेकदरौं का राज मा - ध्याड़ी मज्दुरौं कु
प्रधनी की चाह मा - गौं-पंचेतौं कु
अनपढ़ों  का राज मा - शिक्षित बेरोज्गरौं कु
और दरोल्यौं का राज मा - पाणि-पन्देरौं कु
    
छिल्लू  मुझी ग्या 
       
रचनाकार  : ( गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार 
सुरक्षित )      

Tuesday, May 17, 2011

इतिहास के झरोखों से



इतिहास के झरोखों से : उत्तराखंड क़ी बीर गाथाएं (राजा धामदेव क़ी " सागर ताल गढ़ " विजय गाथा )


देवभूमि उत्तराखंड अनादि काल से ही वेदों , पुराणों ,उपनिषदों और समस्त धर्म ग्रंथों में एक प्रमुख अध्यात्मिक केद्र के रूप में जाना जाता रहा है | यक्ष ,गंधर्व ,खस ,नाग ,किरात,किन्नरों की यह  करम स्थली  रही है तो भरत जैसे प्राकर्मी और चक्रवर्ती  राजा की यह जन्म और क्रीडा स्थली रही है | यह प्राचीन  ऋषि मुनियों - सिद्धों की तप  स्थली भूमि रही है | उत्तराखंड एक और जहाँ  अपने अनुपम प्राक्रतिक  सौंदर्य के कारण  प्राचीन काल से ही मानव जाति को को  अपनी  आकर्षित तो करता रहा है तो वहीं दूसरी और केदारखंड और मानस खंड (गढ़वाल  और कुमौं ) इतिहास के झरोखों में  गढ़ों और भड़ों  की ,बलिदानी वीरों की जन्मदात्री भूमि भी कही ज़ाती रही  है | महाभारत युद्ध में इस  क्षेत्र के   वीर राजा सुबाहु (कुलिंद का राजा ) और हिडिम्बा पुत्र घटोत्कच का और अनेकों  ऐसे राजा- महाराजाओं का  वर्णन मिलता है जिन्होने कौरवों और पांडवों की और से युद्ध लड़ा था | नाग वीरों में यहाँ वीरंणक नाग (विनसर के वीर्नैस्वर भगवान ) ,जौनसार के महासू नाग (महासर नाग ) जैसे वीर आज भी पूजे जाते हैं | आज भी इन्हे पौड़ी -गढ़वाल में  डांडा  नागराजा  ,टिहरी में सेम मुखिम,कुमौं शेत्र में बेरी -  नाग ,काली नाग ,पीली नाग ,मूलनाग, फेर्री नाग ,पांडूकेश्वर में  में शेषनाग ,रत्गौं में भेन्कल नाग, तालोर में सांगल नाग ,भर गोवं  में भांपा  नाग तो नीति  घाटी में लोहान देव नाग और दूँन  घाटी में नाग सिद्ध का बामन  नाग अदि नाम से पूजा जाता है |जो प्राचीन काल में नाग बीरो कि वीरता परिभाषित करता है | बाडाहाट (उत्तरकाशी) कि बाड़ागढ़ी   के नाग बीरों कि हुणो पर विजय का प्रतीक   और खैट   पर्वत कि अन्चरियों कि गाथा (७ नाग पुत्रियाँ जो हुणो के साथ अंतिम साँस तक  तक संघर्ष  करते हुए वीरगति  का प्राप्त हो गयी थी ) आज भी " शक्ति  त्रिशूल "के रूप में आज भी नाग वीरों क़ी  वीरता क़ी गवाही देता है तो गुजुडू  गढ़ी का गर्जिया  मंदिर गुर्जर और प्रतिहार वंश के वीरों का शंखनाद करता है | यूँ तो देवभूमि वीर भड़ो और गढ़ों क़ी भूमि होने के कारण अपनी हर चोटी हर घाटी में वीरों क़ी एक गाथा का इतिहास लिये हुए है जिनकी दास्तान आज भी यहाँ के लोकगीतों ,जागर गीतों आदि के रूप में गाई ज़ाती है यहाँ आज भी इन् वीरों को यहाँ आज भी  देवरूप में पूजा जाता है |



उत्तराखंड के इतिहास में नाथ- सिद्ध प्रभाव प्रमुख भूमिका निभाता है क्यूंकि कत्युरी   वंश के राजा  बसंत देव (संस्थापक राजा )  क़ी नाथ गुरु  मत्स्येन्द्र  नाथ (गुरु गोरख नाथ के गुरु ) मे आस्था थी |१० वी शताब्दी में इन् नाथ  सिद्धों ने कत्युर वंश में अपना प्रभाव देखते हुए नाथ  सिद्ध नरसिंह देव (८४ सिद्धों मे से एक )  ने कत्युर वंश के राजा से  जोशीमठ राजगद्दी  को दान स्वरुप प्राप्त कर उस पर गोरखनाथ क़ी पादुका रखकर ५२ गढ़ूं के भवन नारसिंघों क़ी नियुक्ति क़ी जिनका उल्लेख नरसिंह वार्ता में निम्नरूप से मिलता है   :



वीर बावन  नारसिंह -दुध्याधारी नारसिंह ओचाली  नरसिंह कच्चापुरा नारसिंह नो तीस  नारसिंह -सर्प नो वीर नारसिंह -घाटे  कच्यापुरी  नरसिंह - -चौडिया नरसिंह- पोडया नारसिंह - जूसी  नारसिंह -चौन्डिया  नारसिंह कवरा नारसिंह-बांदू  बीर  नारसिंह- ब्रजवीर नारसिंह खदेर वीर नारसिंह - कप्पोवीर नारसिंह -वर का वीर नारसिंह -वैभी नारसिंह घोडा नारसिंह तोड्या नारसिंह -मणतोडा  नारसिंह चलदो नार सिंह - चच्लौन्दो   नारसिंह ,मोरो  नारसिंह लोहाचुसी  नारसिंह मास भरवा नारसिंह ,माली  पाटन नारसिंह पौन घाटी नारसिंह केदारी नारसिंह खैरानार सिंह सागरी नरसिंह ड़ोंडिया नारसिंह बद्री का पाठ थाई -आदबद्री छाई-हरी हरी द्वारी नारसिंह -बारह हज़ार कंधापुरी को आदेश-बेताल घट  वेल्मुयु भौसिया -जल मध्ये नारसिंह -वायु मध्ये  नार सिंह वर्ण मध्ये  नार सिंह   कृष्ण अवतारी नारसिंह घरवीरकर नारसिंह रूपों नार सिंह पौन धारी नारसिंह जी सवा गज फवला  जाणे-सवा मन सून की सिंगी जाणो तामा पत्री जाणो-नेत पात की झोली जाणी-जूसी मठ के वांसो  नि पाई  शिलानगरी को वासु  नि पाई (साभार सन्दर्भ डॉ. रणबीर  सिंह चौहान कृत " चौरस   की धुन्याल से " , पन्ना १५-१७)   

   
     

इसके साथ नारसिंह देव ने अपने राजकाज   का संचालन करने और ५२ नारसिंह  को मदद करने हेतु  ८५ भैरव भी  नियुक्त  स्थापित किये इसके अलावा कईं  उपगढ़ भी स्थापित   किये   गए जिनके बीर भडौं गंगू रमोला,लोधी रिखोला  ,सुरजू कुंवर ,माधो सिंह भंडारी ,तिलु रौतेली ,कफ्फु चौहान आदि के उत्तराखंड में आज भी जागर गीतौं -पवाड़ों  में यशोगान होता है |

                                                                     

                                        " सागर ताल गढ़ विजय गाथा "



इन्ही गढ़ों में से एक "सागर ताल गढ़ " गढ़ों के इतिहास में प्रमुख  स्थान रखता है जो कि भय-संघर्ष और विजय युद्ध रूप में उत्तराखंड के भडौं कि बीरता का साक्षी रहा है जो कि सोंन  नदी और रामगंगा के संगम पर कालागढ़ (काल का गढ़ ) दुधिया चोड़,नकुवा ताल आदि नामों से भी जाना जाता है | तराई -भावर का यह क्षेत्र तब माल प्रदेश के नाम से जाना  जाता था | उत्तराखंड के प्रमुख कत्युरी इतिहासकार डॉ० चौहान    के अनुसार यह लगभग दो सो फीट लम्बा   और लगभग इतना ही चौड़ा टापू पर बसा एक सात खण्डो का गढ़ था जिसके  कुछ खंड जलराशि में मग्न थेय  जिसके अन्दर ही अन्दर खैरा-  गढ़ (समीपस्थ  एक प्रमुख  गढ़ ) और रानीबाग़ तक सुरंग बनी हुयी थी | स्थापत्य   कला में  में सागर ताल गढ़ गढ़ों में   जितना अनुपम था उतना ही भय और आतंक के लिये भी जाना जाता था | सागर ताल गढ़ गाथा का प्रमुख  नायक  लखनपुर के कैंतुरी राजा  प्रीतम देव(पृथिवी पाल  और पृथिवी शाही आदि नामों से भी जाना जाता है ) और मालवा से हरिद्वार  के समीप आकर बसे  खाती क्षत्रिय राजा झहब राज कि सबसे छोटी पुत्री मौलादई (रानी जिया और पिंगला रानी आदि नाम  से भी जानी ज़ाती है  ) का नाथ सिद्धों और  धाम  यात्राओं के पुण्य से उत्पन्न प्रतापी पुत्र   धामदेव था | रानी जिया धार्मिक स्वाभाव कि प्रजा कि जनप्रिय रानी थी ,चूँकि रानी जिया के अलावा राजा पृथिवी पाल   कि अन्य बड़ी रानिया भी थी जिनको धामदेव के पैदा होते ही रानी जिया से ईर्ष्या होने लगी | धीरे धीरे धामदेव बड़ा होने लगा | उस समय माल-सलाँण अक्षेत्र   के सागर ताल गढ़ पर नकुवा और समुवा का बड़ा आतंक रहता था जो सन् १३६०-१३७७ ई ०   के मध्य  फिरोज तुगलक के अधीन आने के कारण  कत्युरी राजाओं के हाथ  से निकल गया था जिसके बाद से समुवा मशाण जिसे साणापुर (सहारनपुर ) कि " शिक" प्रदान कि गयी थी का   आंतंक चारो तरफ छाया हुआ था ,समुवा स्त्रियों  का अपरहण करके सागरतल गढ़ में चला जाता था ,और शीतकाल में कत्युरी राजाओं  का भाबर  में पशुधन  भी लुट लेता था , चारो और समुवा समैण  का आतंक मचा रहता था |



इधर कत्युरी राजमहल में रानी जिया और धाम देव के विरुद्ध  बाकी रानियौं द्वारा साजिश का खेल सज रहा था | रानियों ने धामदेव को अपने रास्ते से हटाने कि चाल के तहत राजा पृथ्वीपाल  को पट्टी पढ़ानी  शुरू कर दी और   राजपाट के  के बटवारे में रानीबाग से सागरतल गढ़ तक का भाग रानी जिया को दिलवाकर और राज को मोहपाश में बांध कर धामदेव को सागर ताल गढ़ के अबेध गढ़ को साधने हेतु उसे  मौत के मुंह  में भिजवा दिया |



पिंगला रानी माता जिया ने गुरु का आदेश मानकर विजय तिलक कर पुत्र धाम देव को ९ लाख कैंत्युरी सेना और अपने मायके  के बीर भड ,भीमा- पामा कठैत,गोरिल राजा (जो कि गोरिया और ग्वील भी कहा जाता है और जो  जिया कि बड़ी बहिन  कलिन्द्रा  का  पुत्र था ),डोंडीया  नारसिंह और भेरौं शक्ति के वीर बिजुला नैक (कत्युर राजवंश कि प्रसिद्ध राजनर्तकी छ्मुना -पातर का पुत्र ) और निसंग महर सहित सागर ताल गढ़  विजय हेतु प्रस्थान का  आदेश दिया |



धाम कि सेना ने सागर ताल गढ़ में समुवा को चारो और से घेर लिया ,इस बीच धामदेव को राजा पृथ्वीपाल कि बीमारी का समाचार मिला और उसने निसंग महर को सागर ताल को घेरे रखने कि आज्ञा देकर लखनपुर कि और रुख किया और रानियों को सबक सिखाकर लखनपुर कि गद्धी कब्ज़ा कर वापिस सागर ताल गढ़ लौट आया जहाँ समुवा कैंत्युरी सेना के भय से सागर ताल गढ़ के तहखाने में घुस गया था | ९ लाख  कैंत्युरी  सेना के सम्मुख

अब समुवा समैण छुपता फिर रहा था | गढ़ के तहखानों में भयंकर  युद्ध छिड़ गया  था और  खाणा और कटारों  कि टक्कर से सारा सागर ताल गढ़ गूंज उठा था |युद्ध में समुवा समैण मारा गया नकुवा को गोरिल ने जजीरौं  से बाँध दिया  और जब बिछुवा कम्बल ओढ़ कर भागने लगा तो धाम देव ने उस पर कटार से  वार कर उसे घायल कर दिया |चारो और धामदेव कि जय जयकार होने लगी | जब धामदेव ने गोरिल से  खुश होकर कुछ मागने  के लिये कहा तो गोरिल ने अपने पुरुष्कार में कत्युर कि राज चेलियाँ मांग ली जिससे धामदेव क्रुद्ध हो गया और गोरिल नकुवा को लेकर भाग निकला परन्तु भागते हुए धाम देव के वर से उसकी टांग घायल  हो गयी  थी | गोरिल ने नुकवा को लेकर खैरा  गढ़ कि खरेई पट्टी के सेर बिलोना  में कैद कर लिया जहाँ धामदेव से उसका फिर युद्ध हुआ और नकुवा उसके हाथ से बचकर धामदेव कि शरण  में आ गया और अपने घाटों  कि रक्षा का भार देकर धामदेव ने उसे प्राण दान दे  दिया  परन्तु बाद में जब नकुवा फिर अपनी चाल पर आ गया तो न्याय प्रिय  गोरिया (गोरिल )  ने उसका वध कर दिया  |



सागर ताल गढ़ विजय  से धामदेव कि ख्याति दूर दूर तक फ़ैल चुकी थी और मौलादेवी अब कत्युर वंश कि राजमाता मौलादई के नाम से अपनी कत्युर का राज चलाने  लगी | धामदेव को दुला शाही  के नाम से भी जाना जाता था वह कत्युर का मारझान (चक्रवर्ती ) राजा था और उसकी राजधानी वैराठ-लखनपुर थी उसके राज में सिद्धों का पूर्ण  प्रभाव  था और दीवान पद पर महर जाति के वीर   ,सात भाई निन्गला कोटि और सात भाई पिंगला कोटि  प्रमुख थे |



धामदेव अल्पायु में कि युद्ध करते हुए शहीद  हो गया था परन्तु उसकी सागर ताल गढ़ विजय का उत्सव आज भी उसके भगत जन धूमधाम से मानते है वह कत्युर वंश में प्रमुख  प्रतापी राजा था जिसके काल को कत्युर वंश का स्वर्ण काल कहा जाता है जिसमे अनेकों मठ मंदिरों का निर्माण हुआ ,पुराने मंदिरों को जीर्णोद्धार किया गया  और जिसने अत्याचारियों  का अंत किया |



वीर धाम देव तो भूतांगी होकर चला गया परन्तु आज भी सागर ताल  विजय गाथा उसकी वीरता का बखान करती है और कैंतुरी पूजा में आज भी उसकी खाणा और कटार पूजी ज़ाती है | कैंतुरी  वार्ता में "रानी जिया कि खली म़ा नौ लाख कैंतुरा  जरमी गयें " सब्द आज भी कैंतुरौं मैं जान फूंक कर पश्वा रूप में अवतरित हो जाता है और युद्ध सद्रश   मुद्रा में  नाचने लगता है धामदेव समुवा को मरने कि अभिव्यक्ति देते हैं तो नकुवा  जजीरौं  से बंधा होकर धामदेव से अनुनय विनय कि प्रार्थना करने लगता है तो विछुवा को  काले कम्बल से छुपा कर  रखा जाता है | इसके उपरान्त समैण पूजा में एक जीवित सुकर  को

गुफा में बंद कर दिया जाता है और रात में  विछुवा समैण को अष्टबलि   दी ज़ाती है जो कि घोर अन्धकार में सन्नाटे  में  दी ज़ाती है और फिर चुप चाप अंधेरे में गड़ंत करके बिना किसी से बात किये  चुपचाप आकर एकांत में वास  करते हैं और तीन दिन तक ग्राम  सीमा से बहार प्रस्थान नहीं करते अन्यथा समैण लगने का भय बना रहता है | धामदेव कि पूजा के विधान से ही समुवा कि क्रूरता और उस काल में उसके भय का बोध होता है | उसके बाद दल बल के सात  और शस्त्र और वाद्या  यंत्रों के सात जब गढ़ के समीप  दुला चोड़ में धामदेव कि पूजा होती है तो धामदेव का पश्वा और ढोल वादक गढ़ कि गुफाओं में दौड़ पड़ता  है   और तृप्त होने पर स्वयं जल से बहार आ जाता हैं उसके बाद बडे धूम धाम-धाम  से रानी जिया कि रानीबाग स्थित  समाधि "चित्रशीला " पर एक भव्य मेले का आयोजन किया जाता है |



अब इसे वीर भडौं कि वीरता का प्रभाव कहें या गढ़-कुमौनी वीरों  कि वीरता शोर्य और बलिदानी इतिहास लिखने कि परम्परा  या फिर मात्रभूमि के प्रति उनका अपार पर स्नेह ,कारण चाहे जो भी हो पर आज भी उत्तराखंडी बीर अपनी भारत भूमि कि रक्षा के लिये कफ़न बांधने वालौं  में सबसे आगे खडे नज़र आते है फिर चाहे  वह चीन के अरुणाचल सीमा युद्ध का "जसवंत बाबा " हो पाकिस्तान युद्ध के अमर शहीद ,या विश्व युद्ध के फ्रांस युद्ध के विजेता या  " पेशावर क्रांति " के   अग्रदूत  " वीरचन्द्र सिंह गढ़वाली " ,या कारगिल के उत्तराखंडी रणबांकुरे  या अक्षरधाम और मुंबई हमलों में  शहीद म़ा भारती के अमर सपूत सब आज भी उसी   " वीर  भोग्या  बसुन्धरा " कि परम्परा का निर्वाहन कर रहे हैं |




संदर्भ ग्रन्थ :  उत्तराखंड के वीर भड , डा ० रणबीर सिंह चौहान
                    गढ़वाल के गढ़ों का इतिहास एवं पर्यटन के सौन्दर्य स्थल  ,डा ० रणबीर सिंह चौहान
                    ओकले तथा गैरोला ,हिमालय की लोक गाथाएं 
                    यशवंत सिंह कटोच -मध्य  हिमालय का पुरातत्व
विशेष आभार : डॉ. रणबीर सिंह चौहान, कोटद्वार  (लेखक और इतिहासकार ) ,माधुरी रावत जी
स्रोत :म्यार ब्लॉग हिमालय क़ी गोद से (गीतेश सिंह नेगी.सिंगापूर प्रवास से )


गढ़वाली कविता : केर


क्षेत्रवाद 

जातिवाद 
भ्रष्टाचार
मेहंगैई   

बेरोजगरी  
अशिक्षा 
और पलायन 
ज़रा बंधा धौं
केर यून्की
पहाड़ म़ा 

अगर बाँध सक्दो त ?  

रचनाकार : (गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित)        

गढ़वाली कविता : गोर


कक्खी  धरम का 
कक्खी  जाति का 
त कक्खी खोख्ला रीति-रिवाजौं का
कक्खी अमीरी का
त कक्खी गरीबी का
सब्युं का छीं
अपडा -अपड़ा ज्युडा
अपड़ा -अपड़ा कीला
और अपड़ा -अपड़ा गोर
बन्धियां सांखियौं भटेय |  

रचनाकार : ( गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित )

Sunday, May 15, 2011

गढ़वाली व्यंग :विधान सभा म़ा खच्चर



उत्तराखंड मा विधान सभा का चुनाव की घोषणा व्हेय ग्या छाई और पक्ष और विपक्ष अपड़ी - अपड़ी रणनीति बणाण  फ़र लग्याँ छाई | पार्टी अध्यक्ष द्वारा कार्यकर्ताओं और पार्टी का बड़ा वक्ताओं थेय झूठा  सौं -करार और सुप्निया दिखाणं का भारी हुकुम सदनी की  चराह  आज भी जारी हुयां छाई | उन्भी उन्थेय याक़ी अब आदत सी व्हेय गया छाई |
सब कुछ ठीक ठाक  से चलणु छाई पर अचांणचक  से  ब्याली भटेय पक्ष -विपक्ष   दुयुं की नीद उड़ीं छाई |

अब साब बात इन् व्हाई की ये  चुनाव मा एक और गुट खडू व्हेय ग्या छाई | अरे भाई कैल बनाई यु गुट ?  और आखिर कब ? पक्ष -विपक्ष येही   सोच विचार करण फ़र लग्याँ छाई |
त़ा भई- बंधो   बात इन्  छाई की गौर- भैंषा ,बल्द , बाघ-बखरा  , कुक्कुर -बिरोला , मूस्सा सब जानवर सरकार से सान्खियुं भटेय तंग त हुयां हि छाई  सो उन्  मिल-जुली एकजुट व्हेय की अपड़ी कौम का विगास  का खातिर चुनोव्   मा भाग लिणा  कु फैसला कैर द्या |

अब साब किल्लेय  की  पहाड़ मा मन्खी  त उन् भी अब कम हि रैंदी ,भंडिया लोग  अब प्रवास   कु सुख  जू भोगंण लग्यां छिन्न पर यूँ  गौर- भैंसों ,बल्द, बाघ-बखरौं ,कुक्कुर -बिरोलौंल कक्ख  जाणू  छाई यूँ डांडीयूँ कांठीयौं और गौं गुठियारौं , धार-पन्द्यरौं थेय छोडिकी और यु नेताओं कु ध्यान सौर नम्मान त़ा देहरादूण और दिल्ली
जने हि रैंद  और देहरादूण  मा भी कुछ नेता जोड़ -तोड़  और  " गढ़वाल कुमाओं " थेय मरोड़  मा हि लग्याँ रैंदी त कुछ सता - सुख भोगिकी अब पहाड़ विरोधी मानसिकता का भी व्हेय गईँ पहाड़ कु ख्याल यूँ  निर्भगियुं  थेय  सिर्फ और सिर्फ चुनोव्  का बगत मा हि आन्द नथिर यु  अशगुनी लोग इन्हेय  खुण कभी पैथिर फरकि की भी नी देख्दा और ता और पहाड़ी और पहाड़ से जुड़याँ  राजनेतिक और सामाजिक सरोकारों से भी यूँ थेय  अब कुछ लीणु दीणु नी रैंदु  उलटू पिछला दस बरसों मा यून्की विगास योजना - निति पहाड़ विरोधी मानसिकता कु  जैर से फूंकी पिल्चिं रें |

खैर नया दल कु गठन हूँण से पहाड़ म़ा बस्याँ मनखियुं थेय  भी नयी आस का सुपिन्या जगण बैठी  गईं ,पुराणा सबहि दल त उन् अच्छी तरेह से देख-चाखि याली छाई जौंकू लूँण-कटट स्वाद अभी तक उनकी जीभ म़ा लग्णु छाई ,कत्गौं थेय त भारी मरच भी लगणि छाई की दस साल म़ा क्या सोवाचु  छाई और अब  क्या हुणु  च ,कुई राजधानी का नाम फर पक्ष- विपक्ष थेय  कचोरणु  छाई त कुई पलायन और रोजगार   का नाम फर , त कुई डामौ की डम्याँण की पीड़ा का आंशु पुटुग ही पुटुग धोल्णु राई, पर निर्भगी पक्ष -विपक्ष का यु नेता जू थेय  यूँ लोगुन्ल  सैंत -पालिकी दिल्ली  और देहरादूण  कु रास्ता दिखाई वी आज पहाड़ कु रास्ता और पहाड़  का सुपिन्या  बिसरी   गईं ,बिसरी गईं सखियुं कु खैर और पीड़ा का वू दिन  ,मसूरी ,श्रीनगर, पौड़ी ,खटीमा देहरादून , मुज़फर नगर का वो दिन जब हमुल एकजुट वही की दगड़ म़ा  गीत लगई छाई ,धई लगाई  छाई ,गोली और लठ्याव् सैह  छाई | दिल्ली कु जन्तर मंतर का अन्दोलन काल का दिन भी यु सत्ता  सुख भोगी लोग चुक्कापटट कै की  बिसिर गईं  |

अब साब  पहाड़ म़ा गठित ये  नया दल का घोषणा पत्र म़ा डांडा काँठीयूँ   का समग्र पहाड़ी विकास की नयी धार साफ़ दिखेणी छाई ये  ही कारण से पहाड़  का  रैंवाशियुं और प्रेमी प्रवासियुं   कु भारी  समर्थन यूँ थेय  मिलणु छाई और पक्ष-विपक्ष   खुण भारी मुश्किल खड़ी व्हेय ग्या  छाई ,उन्ल  साम -दाम दंड भेद सभी निति अपनै पर उन्की एक नी चली और सत्ता पहाड़  का यूँ न्या क्रांतिवीरों का हत्थ म़ा ऐय ग्या |

भाई बंधो इन्ह  नै  पार्टी कु  काम-काज  कु  तरीका भी बिल्कुल अलग छाई ,उन्ल पक्ष - विपक्ष का जण कसम खाण से पहली देहरादूण म़ा अपड खुट्टा  नी राखा       बल्कि उन्ल पहली शहीद  स्मारक म़ा जैकी शहीदों  थेय श्रद्धान्जली   अर्पित कैरी  और उन्का खैरी स्वुप्नियों थेय  सम्लैकी देहरादूण की और अप्डू रुख कार | शपथ   समारोह भी बिलकुल  पहाड़ी रूप म़ा संपन्न व्हेय और लोकभाषा म़ा शपथ लेकी उन्ल अप्डू और अप्डी भाषा  दुयुं कु मान -सम्मान कार |

सभ्युंल  मिली जुली की यु फैसला कार की  " प्रजा " खच्चर  थेय राज्य कु मुख्यमंत्री कु पद दिए जाव किल्लेकी  प्रजा थेय  गढ़-कुमौं की पहाड़ की धार धार और उन्कि हर खैर - विपदा  कु भोत ज्ञान छाई और पहाड़ से वेय  थेय  भोत गहरू प्रेम भी छाई ,वेक बाद पहाड़  कु रक्षा कु  भार भोटू कुक्कुर थेय  और संपदा और संपत्ति विभाग बिरोलू  थेय  दिये ग्याई ताकि चंट चालाक  बिरोलू राज्य की परिसम्पतियुं कु ठीक से सोक संभाल कैरी साक नथिर पिछला दस बरसौं बठिं लगातार राज्य की परिसम्पत्तियुं कु भारी नुक्सान यूँ  निकम्मों का कारण से हुणु  छाई | राज्य म़ा बेरोजगारी हटाणा  कु जिम्मा ईमानदार  और कर्मठ हीरू बल्द थेय  दीये  ग्याई और धरम पर्यटन और संस्क्रती कु जिम्मा "बिंदुली गौडी " थेय और राज्य का वित्त मंत्री कु पद स्याल महाराज थेय मिल और जंगल का राजा थेय  विधान सभा कु अध्यक्ष कु पद दीये  ग्याई |

जब प्रजा पहली दिन
विधान-सभा म़ा पहुँच त़ा साब क्या ब्वन ,एक से बड़ा एक विपक्षी नेता बैठक म़ा शामिल  हुण खुण  अयां छाई| कुई अप्थेय नरन्कार कू सी पुजरू चिताणु छाई  त़ा कुई अप थेय नो छम्मी  नारायण बताणु छाई | एक नेता साब बार बार खडू व्हेय की प्रवचन  सी दींण   बैठी जाणु राई त एक तबरी बीच बीच म़ा शंख बजा  दिणु राई और जब कुई वे म़ा पुछ्णु की भाई सिन्न किल्लेय  कन्नू छई त उ सर पितली गिच्ची कैरी की कबिता पाठ सी कैरी की बोल दिणु राही की मी त कुछ भी गलत नी करणु छोवं मी फर शक  नी कारा या मी त नाम से बिना शंख कु छोवं | एक नेता साब निछंद   व्हेय की भट्ट भूजण  म़ा लग्युं छाई और दगड़ा दगड धेई लगाणु  राई  की भट्ट ले लो ,  भट्ट ले लो | एक नेता ईनू भी छाई जो अपखुण बार बार गुणा , बार बार गुणा बोल्णु  छाई  त एक नेता कपूर जालंण म़ा ही लग्युं छाई और एक नेता हड़का ही मरण म़ा लग्युं छाई , कुल मिला कै काम की बात कुई नी  करणु छाई  |               

पर साब अब राज-काज त प्रजा का हत्थ म़ा छाई   वैल  पहली चोट म़ा  विपक्ष थेय  धराशाई कैर द्याई  और राज्य की जनता की जिकुड़ी से जुड़याँ  हर पहलु और मुद्दा फर गहराई से चर्चा और सोच बिचारी की फैसला कार और राज्य म़ा पलायन रोको योजना बणे की रोजगार उन्मुखी शिक्षा प्रणाली लागू  कैरी की पहाड़ की भोगोलिक और पारिस्थितिकी का हिसाब से उधोग निति कु निर्माण कार ज्यान्कू  ज्यादा से ज्यादा  लाभ नेतौं - ठेकादारौं थेय  ना मिली की पहाड़ का शिक्षित बेरोजगारों थेय  मिल साक | शिक्षा का वास्ता वैल  पहाड़ का प्रति समर्पित और कर्मठ शिक्षकों कु चयन कार ना की मजबूर बेबस और लाचार बधवा  मजदूरों कु | पर्यटन का क्षेत्र  म़ा यूँल ग्रामीण क्षेत्र म़ा पर्यटन  विकास  योजना लागू कैरी की पहाड़ का गौं गौं थेय आधुनिक संचार का माध्यमों से सजा -सवांर द्याई  ,कंप्यूटर शिक्षा अनिवार्य कैर द्याई  और हर ब्लाक म़ा आधुनिक अस्पताल बणवा  द्याई |

पहाड़ म़ा उन्नत कृषि विकास और अनुसंधान योजना का तहत  युंल गौं गौं म़ा माट-खैड की जांच करवाई  और वेका बाद  किसानों थेय  उन्नत बीज  और ब्वई -बूतै  का  आधुनिक तरीकों कु  प्रशिक्षण  द्याई और दगड़ा दगड फसल- फल -फूल और जड़ी बुटयूँ  कु एक अच्छु और गलादारौं से रहित  बाज़ार उन्थेय द्याई  | राज्य का दूर दराज का पहाड़ी गौं -धार म़ा उन्ल बिजली -पाणी -मोटर पहुंचाई द्याई और भ्रस्टाचारी और गलादार किस्म का अफसरौं फर  ज्यूडा - संगला बाँध  दयीं  |   
  
उन्ल राज्य की लोक-कला संस्कृति -भाषा और रीती -रिवाजौं थेय भोरिकी  सम्मान दिणा का साथ देश विदेश प्रवास म़ा बस्यां पहाड़ का अनुभवी लोगौं थेय  पहाड़ का विकास  म़ा एथिर आण खुण धाद भी मार जुकी फिल्म उद्योग ,व्यापार  ,पर्यटन और शिक्षा ,चिकित्सा और कुटीर उद्योग क्षेत्र म़ा विशेष  दक्षता और अनुभव प्राप्त लोग छाई |

उन्कि लोकप्रियता दिन रात बढदा ही जाणि छाई ज्यां से  विपक्ष थेय  भारी मुंडरु  उठ्युं छाई और जब भटेय प्रजा ल   उत्तराखंड की राजधानी का मुद्दा फर  तैड-फैड करणी शुरू कार त़ा विपक्ष का मुख फर तब भटेय  झमक्ताल रुमुक्ताल सी प्वड़ी ग्याई  ,जक्ख द्याखा   प्रजा की जय जयकार हुणि छाई  | आज विपक्ष का हर पहाड़ी नेता थेय   भोत अफसोश  सी हुणु च और  वू  सोच म़ा प्वडयाँ छीं की जू काम  प्रजा खच्चर करणु च उन्  हमुल किल्लेय्य   नी कारू उन्थेय  अपनाप से घिण  सी आणि छाई  और जू ब्याली तक सदनी लोग - बागौं की भीड़ से घिरयाँ रेंदा छाई उन्थेय अब भीड़ म़ा जाण म़ा भी शर्म सी आणि छाई  |
पर लोग अब भोत खुश छीं और बुना छीं की यूँका राज से त़ा प्रजा कु राज भोत भोत बढिया चा ,काश दस बर्ष   पैल्ली प्रजा जन्नु नेता मंत्री बणदू त आज हमारू उत्तराखंड और भी ज्यादा  ठाठिलू और छजिलू  राज्य हुन्दू | 
पर  खैर कुई बात नी च अबही भी देर नी व्हाई,प्रजा - सरकार जागरुक रैली त विगास का सबही सुपिन्या एक ऩा एक दिन जरूर पूरा  व्हाला |
इन्नेह प्रजा की जय जयकार अबही भी हूँण लगीं छाई और विपक्षी मुख लुका की अपड़ा अपड़ा दोलणो  पुटुग भटेय मजबूर  और लाचार व्हेय की देखण लाग्यां छाई
की अब क्या व्हालू ,कक्खी भोल  प्रजा राजधानी का मसला फर भी अप्डू गिच्चू त नी खोली द्यालू ?    



(नोट : इस व्यंग के सबही पात्र और घटनाएं काल्पनिक हैं ,यदि कहीं कुछ भी  ऐसा घटित होता है या  हो रहा है तो उसे महज  एक संयोग मात्र  ही समझा  जाये )

रचनाकार : ( गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार  सुरक्षित )
स्रोत :         ( म्यार ब्लॉग हिमालय की गोद से ,  )

Saturday, May 14, 2011

गढ़वाली कविता : क्या व्हालू ?

गढ़वाली कविता  : क्या व्हालू  ?

जक्ख रस अलुंण्या राला
और निछैंदी मा व्हाला छंद
कलम होली कणाणि दगडी
वक्ख़ लोक-भाषा और साहित्य कु
क्या व्हालू  ?


जक्ख  अलंकार उड्यार लुक्यां राला 
और शब्दों  फ़र होली शान ना बाच
जक्ख गध्य कु मुख टवटूकु हुयुं रालू
और पद्य की हुईं रैली फुन्डू पछिंडी
वक्ख़  लोक -भाषा और साहित्य कु
क्या व्हालू  ?  


जक्ख जागर ही साख्युं भटेय सियाँ राला
और ब्यो - कारिज मा  औज्जी
दगडी ढोल-दमो अन्युत्याँ  राला
वक्ख़ लोकगीत तब बुस्याँ -हरच्यां हि त राला  
और बिचरा लोग -बाग तब  दिन -रात
वक्ख़ मंग्लेर ही  खुज्याणा  राला
वक्ख़  लोक -भाषा और साहित्य कु
क्या व्हालू  ?
वक्ख़  लोक -भाषा और साहित्य कु
क्या व्हालू  ?



रचनाकार : ( गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार  सुरक्षित )
स्रोत :         ( म्यार ब्लॉग हिमालय की गोद से )

Wednesday, May 11, 2011

गढ़वाली कविता : किरांण

गढ़वाली  कविता : किरांण   
मिथये अचांणंचक  से ब्याली सोच प्वड़ी गईँ             
किल्लेय कि  कुई  कणाणु   भी छाई 
फफराणु  भी
छाई
द्वी चार  लोगौं का नाम लेकि 
कबही  छाती  भिटवल्णु
कबही रुणु   भी छाई
बगत बगत फिर उन्थेय  सम्लौंण भी  लग्युं छाई  
तबरी झणम्म 
से कैल
म्यार बरमंड का द्वार भिचौल द्यीं
सोचिकी मी खौलेय सी ग्युं
कपाल  पकड़ी  कि अफ्फी थेय  कोसण बैठी ग्युं
सोच्चण 
बैठी ग्युं  कि झणी  कु व्हालू  ?
मी कतैइ  नी  बिंगु
मिल ब्वाल - हैल्लो  हु आर यू ?
मे  आई  हेल्प यू ?
वीन्ल रुंवा सी गिच्चील ब्वाळ
निर्भगी  घुन्डऔं -
घुन्डऔं  तक फूकै  ग्यो
पर किरांण  अज्जी तक नी ग्याई ?
मी तुम्हरी लोक भाषा छोवं
मेरी  कदर और  पछ्याँण
तुम थेय अज्जी तक नी व्हाई  ?
सुणि  कि  मेरी संट मोरि ग्या
और मेरी  जिकुड़ी  थरथराण बैठी ग्या
 मी डैर सी ग्युं
और चदर पुटूग मुख लुका कि
स्यै ग्युं
चुपचाप से
और या बात मिल अज्जी तक कैमा नी बतै
और बतोवं  भी  त कै गिच्चल बतोवं ?
कन्नू कै
बतोवं ? कि  मी गढ़वली त  छोवं
पर मिथये
गढ़वली नी आँदी ?
पर मिथये गढ़वली नी आँदी ?

 

रचनाकार : (गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित )

Monday, May 9, 2011

गढ़वाली कविता :द्वी अक्तूबर

द्वी  अक्टुबर

गांधी का देश मा
हुणी च आज गाँधी वाद की हत्या
बरसाणा  छीं  शस्त्र- वर्दी धारी
निहत्थौं फर गोली - लट्ठा
सिद्धांत कीसौं मा धैरिक
भ्रस्टाचारी व्हे ग्यीं यक्ख सब सत्ता 
जौलं दिखाणु छाई बाटू सच्चई कु
निर्भगी वू अफ्फी बिरडयाँ छीं रस्ता
ईमानदरी मुंड -सिरवणु  धैरिक नेता यक्ख 
तपणा छीं घाम बणिक संसदी देबता
दुशाषण  खड़ा छीं बाट -चौबटौं  मा द्रोपदी का 
और चुल्लौंह मा  हलैय्णी चा  सीता अज्जी तलक
और गाँधी वाद बणयूँ चा सिर्फ विषय शोध कु
बणी ग्यीं  कत्गे कठोर मुलायम  गाँधी-वादी वक्ता
अब तू ही बता हे बापू !
द्वी अक्टुबर खुन्णी जलम ल्या तिल एक बार
किल्लेय  हुन्द बार बार यक्ख
 द्वी अक्टुबर खुण फिर गांधीवाद  की हंत्या ?
निडर घुमणा छीं हत्यारा  
लिणा छीं सत्ता कु सुख  
न्यौं  सरकारौं कु धरयुं च मौन
और लुकाणा छीं गांधीवादी  मुख
और  किल्लेय  गांधीवाद  यक्ख
न्यौं -अहिंसा का बाटौं मा  लमसट्ट हुयुं च
और मिल त यक्ख तक  सुण की अज्काळ    
गाँधी का देश मा
गांधीवाद थेय  आजीवन कारावास  हुयुं च   ?
गांधीवाद थेय  आजीवन कारावास  हुयुं च   ?
गांधीवाद थेय  आजीवन कारावास  हुयुं च   ?

(उत्तराखंड आन्दोलन के अमर शहीदों को इस आस  के साथ समर्पित  की एक दिन उन्हे इन्साफ जरूर मिलेगा और उनका समग्र विकास का अधूरा स्वप्न एक दिन जरूर पूरा होगा )

रचनाकार : ( गीतेश सिंह नेगी ,सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित )
 

Sunday, May 8, 2011

गंगनाथ जागर का सार

  गंगनाथ  जागर का सार (गंगनाथ और भाना की अमर प्रेम -गाथा ) 

अस्त्युत्तरस्याम दिशी देवतात्मा .हिमालयो नाम नगाधिराज :,
 पूर्वापरो तोयनिधि वगाह्या ,स्थित :पृथिव्याम एव मानदंड : ||  

महाकवि कालिदास के  कुमारसंभव के  उपरोक्त श्लोक पर्वत राज हिमालय की  अजर -अमर  और  विस्तृत प्राकृतिक ,बोधिक ,सामाजिक और सांस्करतिक विरासत की महता को समझने  के लिये भले ही पर्याप्त हो परन्तु नगाधिराज हिमालय के विविध और बहुआयामी सांस्करतिक  सोपानों  का वास्तविक रसपान  करने हेतु हिमालयी संस्कर्ति और जीवन शैली के सागर में ठीक वैसे ही गोता लगाना होगा  जैसे की  महापंडित राहुल सांकृत्यायन ने लगाकर  अनुभव किया था शायद उन्हे और " चातक " जैसे  प्रकृति के हर  चितेरे को हिमालय की हर श्रृंखला पर ,हर नदी घाटी पर  और हर एक  मठ -मंदिर  पर  जीवन और संस्कृति के विविध रंगों का रंग देखने को मिला हो | इस हिमालय की झलक ही ऐसी है ,ना जाने कितने लोग यहाँ आकर इसके देवत्व में लींन होकर घुमक्कड्  और बैरागी हो गए तो  ना जाने कितने लोगौं में  यहाँ आकर फिर से जीने की शक्ति का संचार हुआ |वेद -उपनिषद और   पुराण  और ना जाने क्या क्या लिखा गया पर हिमालय कहीं भी अतीत में  पूर्ण रूप से समाया नहीं जा सका और शायद ना ही यह  भविष्य में कभी  समाया जा सकेगा | एक जीवन में तो हिमालय के एक भाग का ही रसपान करना असंभव प्रतीत होता है | इसी पर्वत राज हिमालय का एक मुकुट मणि देब भूमि उत्तराखंड अपनी वैदिक -पुराणिक-अध्यात्मिक और अनुपम सांस्करतिक और  प्राकर्तिक धरोहर के लिये विश्वविख्यात है | वेदों पुराणों में उत्तराखंड को केदारखंड (गढ़वाल ) और मानसखंड (कुमायूं )के नाम से तो जाना ही जाता है परन्तु इसकी प्रत्येक  घांटी ,गंगा -यमुना सहित इसकी प्रत्येक  नदी - धारा , जीवन को एक निराले ही अंदाज  से देखने और  स्वयं  में आत्मसात   करने का निमंत्रण अवसर  देती है | इसकी प्रत्येक पहाड़ी पर होने  वाला शंखनाद अपने पीछे एक पुराणिक और ऐतिहासिक ज्ञान बोध के अनुनाद का आभास कराता    है तो इसका प्रत्येक लोक- गीत कहीं ना कहीं जीवन में एक सुखद अनुभूति के साथ झुमने का अहसास देता है | देवभूमि का  प्रत्येक  गीत चाहे वहां "झुमेलो " गीत हो चाहे वह " बसंती " गीत हो या फिर " चैती " गीत हो सभी  मनुष्य और प्रकृति के भावनात्मक सम्बन्धों  की सुरमयी अभिव्यक्ति देते हैं तो वहीं दूसरी और खुदेड गीत अतीत के सुखद ,वर्तमान के वियोग के करुण और निकट   भविष्य में आस मिलन की  सुखद भाव को प्रतिबिंबित करते हैं तो तीसरी और देव आहवाहन के विभिन्न " जागर गीत " उत्तराखंड के विभिन्न देवी देवताओं के अपने भगतों से संवाद के साक्षी बनकर उन्हे ढोल -दमो हुड़का और कंससुरी थाली पर थिरकने रीझने ,और सुख दुःख को उनसे साझा  करने  का दुर्लभ अवसर प्रदान करते हैं |
 इन्ही   जागर गीतों में सम्बंधित देवी -देबता के आवाहन के मंत्रो का लय बध समावेश होने के साथ अतीत और इतिहास के असंख्य घटनाक्रम  मंत्रो और गीत रूप मे सन्निहित होते हैं तथा प्रत्येक के आवाहन के मंत्र ,वाद्या यन्त्र , और पूजा की विधि भी अलग होती है और इनके मर्मज्ञ जिन्हे "जागरी " कहा जाता है वे भी पीढी दर पीढी  विशेष दक्षता लिये होते हैं | ये जागर गीत  उत्तराखंड की ना केवल धार्मिक आस्था  के   प्रतिक हैं अपितु ये  उसकी सामाजिक ,सांस्कृतिक ,साहित्यिक और ऐतिहासिक धरोहर के आधार स्तंभों में से एक हैं  |

  जागर गीतों के इस अथाह सागर में से एक जागर  "गंगनाथ जागर " के नाम से उत्तराखंड में जाना जाता हैं जो उत्तराखंड के कुमायूं  क्षेत्र में अपने आराध्य " गंगनाथ " और उसकी प्रेमिका " भाना " के आहवाहन के लिये लगाया जाता हैं जिसमे केवल  हुडके और कांसे की थाली का वाद्या  यन्त्र के रूप में प्रयोग होता हैं चूँकि गंगनाथ गुरु गोरखनाथ के चेले थे इसलिये जागर  में नाथ पंथी मंत्रो का प्रभाव स्पष्ट देखा  जा सकता है | 
गंगनाथ जागर में डोटी के कुंवर गंगनाथ के जन्म और उसकी  रूपवती प्रेमिका भाना के प्रेम प्रसंग और उनकी निर्मम हत्या का उल्लेख मिलता जो की सार रूप में निम्नवत हैं :

गंगनाथ जागर (गंगनाथ और भाना की करुण प्रेम गाथा ) का सार

डोटी के राजा वैभव चन्द धन धन्य से संपन थे परन्तु उन्हे और उनकी पत्नी प्योंला देवी को संतान का सुख प्राप्त नहीं हुआ था | संतान के वियोग में व्याकुल माता  प्योंला देवी ने शिव  की आराधना की ,शिव ने  प्रसन्न  होकर उन्हे स्वप्न  में दर्शन देये और कहा की यदि  प्योंला  घर के पास के  सांदंण  के  सुखे तने  पर सात दिन तक लगातार जल अर्पित करेगी और अगर सातवे दिन उसमे से एक खिलता हुआ फूल निकलेगा तो रानी को गर्भ ठहरेगा  और डोटी को अपना उत्तराधिकारी और उन्हे संतान का  मुख देखने को मिलेगा |  शिव  के आदेश से प्योंला रानी रोज रात-ब्याणी आने पर ही उठकर जल चढाती  ,राजा   वैभव चन्द को लगता की जैसे रानी संतान वियोग में पागल सी हो गयी है | अंतत  सातवे दिन सांदंण का फूल खिल उठा ,रानी प्योंला की प्रसन्ता का ठिकाना  नहीं था |कुछ दिन बाद माता प्योंला रानी को गर्भ ठहर गया और उसने एक सुन्दर, तेजवान और अदभुत बालक को जन्म दिया |

डोटी गढ़ में चारो ओर हर्ष की लहर दौड़ पड़ी | भगवन शिव के आशीर्बाद  से उत्पन्न  बालक का नाम गंगनाथ रखा गया ,राज ज्योतिष से  जब बालक के भविष्य की पूछ की गयी तो माता ओर पिता दोनों को सोच पड गए क्यूंकि ज्योतिष के अनुसार गंगनाथ १४ वर्ष बाद प्रेम -वियोग में जोगी हो जाएगा ओर डोटी को सदा के लिये छोड़ देगा |

समय के साथ गंगू बड़ा होने लगा ओर उसकी ख्याति एक दिव्य बालक के रूप में सम्पूर्ण डोटी में फैलने लगी |एक रात गंगू के स्वप्न में भाना का आना होता है ओर वह उसे अपने प्रेम वियोग के बारे में बता कर जोशी खोला (अल्मोड़ा ) आने की बात कहते है ओर कहती है की यदि वह अपनी माँ का सपूत होगा तो उससे मिलने जोशी खोला आयेगा ओर यदि मरी माँ का लड़का होगा तो डोटी में ही रहेगा |स्वप्न देखकर गंगू की नींद टूट जाती ओर वह भारी  मन  के साथ डोटी छोड़कर जोगी बन जाता है ओर हरिद्वार में आकर गुरु गोरखनाथ से शिक्षा दीक्षा लेता है वह बुक्सार विद्या का दुर्लभ ज्ञान भी प्राप्त कर लेता है |गुरु गोरखनाथ उसे  दिव्य  ओर अनिष्ठ  रक्षक   वस्त्र प्रदान करते है ओर गोरिल देव भी  (ग्वील /गोरिया /गोलू ) उन्हे अपनी शक्ति प्रदान करते हैं |

गंगनाथ चोला धारण कर बारही जोगी  बनकर भिक्षा  मांगते मांगते देवीधुरा के बन में शीतल वृक्ष  की छावं में अपना ध्यान आसन  लगाता है | ध्यान रत जोगी को देख कर लोग उसके पास पूजा अर्चना के लिये आते हैं ओर अपने दुःख समस्या आदि का कारण निवारण पूछते हैं | धीरे धीरे गंगू सारे क्षेत्र में प्रसिद्ध   हो जाता है पर भाना  का ख्याल  उससे रह रह कर उसकी   ध्यान साधना को भंग करता रहता है | अत : वह देवीधुरा को छोड़ अलख निरंजन कहता हुआ निकल पड़ता है | राह  में चलते चलते जब राहगीर घस्यारीं   गंगू  जोगी को प्रणाम   करके उसका पता पूछते है तो वह स्वयं  को डोटी का राजकुमार बताता है ओर भाना से अपने प्रेम वियोग  की अधूरी कथा- व्यथा सुनाता है ओर भाना का पता पूछता है |घस्यारिन उसे भाना की वियोग दशा का भी वर्णन करती है ओर कहती है की भाना सुंदरी अभी तक  गंगनाथ के लिये  प्रतीक्षारत है |

घस्यारिन ये  सब बात जाकर भाना  सुंदरी को बतलाती है | अगले दिन भाना इस आश के साथ की गंगनाथ उसे पहचान ही लेगा  उससे बिना सुचना दिए ,पानी के बहाने उससे  पहली बार निहारती है ओर दोनों की यह प्रथम मिलन बेला होती है | गंगनाथ ओर भाना को जोशी दीवान के आदमी जब इस प्रकार साथ देखते हैं तो जाकर इसकी सूचना दीवान को देते हैं |फिर एक साजिश के तहत होली के दिन गंगनाथ को भंग पिला कर उसको गोरखनाथ के द्वारा प्रदान अनिष्ठ रक्षक दिव्या  वस्त्र  उतार दिए  जाते हैं  | भाना विलाप करती हुई  उसके प्राणों  की दुहाई देती रहती पर उसकी एक नहीं सुनी जाती ओर अंत में गंगनाथ को विश्वनाथ   घाट पर मौत के घाट उतार  दिया जाता है | क्रोधाग्नि में जलती भाना उनको फिटगार मारती है की उन सबका घोर अनिष्ठ होगा ओर वो पानी की बूंद बूंद के लिये तरश उठेंगे ,उन्हे अन्न का एक दाना नसीब नही होगा | क्रोध में आकर दीवान भाना को भी मौत के घाट उतार देता है |

इसके कुछ दिन बाद ही सारा जोशी खोला ओर विश्वनाथ घाट डोलने लगता है ओर वहां घोर अक्काल जैसी  स्थिति उत्पन हो जाती  है जिससे  जोशी खोला के लोग भय से काँप उठते हैं ओर गंगनाथ-भाना की पूजा कर क्षमा याचना करते हैं | और उन्हे देव रूप में स्थापित करते हैं ,तब से कुमायूं के अधिकांश क्षेत्रौं में गंगनाथ जी   की देबता रूप में  पूजा अर्चना की जाती है  उनका जागर लगाया जाता है | जिसके कुछ अंश   निम्नवत हैं :

(१) प्योंला राणि को आशीष प्राप्ति का अंश
हे भुल्लू उ उ उ उ उ उ उ उ 
सुण म्यारा गंगू उ उ उ   अब ,यो मेरी बखन अ अ अ  अ अ अ अ
यो  राजा भबै  चन्न अ   तब अ अ अ  ,बड़  दुःख हई राही   हो हो ओ ओ ओ  ओ आंह ह ह ह  अ अ
हे  भुल्लू उ उ उ उ
क्या दान करैछ  अब ,यो माता प्योंला राणी ई अ अ अ
यो गंगा नौं  की नाम  तुमुल अ अ  ,यो  गध्यार नहाल हो हो हो हो  आ आ अ अ ह ह 
इज्जा गंगा नाम  की गध्यार नयाली आंह आंह आंह ह ह
हे भुल्ली इ इ  ई ई  ई ई  ई
 ये  देबता  नाम का तुमुल ,यो ढुंगा   ज्वाड़ी  व्हाला अ  अ अ अ अ अ
कैसी कन  देखि  तुमुल अ अ अ ,  यो संतानौं  मुख अ अ अ अ अ अ   आंह ह ह ह  अ अ अ
हे भुल्ली इ ई ई ई ई
को देब रूठो सी कौला यो डोटी भगलिंग अ अ अ अ अ
हाँ क्या दान करलू भग अ अ अ अ  ,ये डोटीगढ़  मझ  हो हो हो हो अ अ अ अ
औ हो हो   डोटी भागलिंग  की आन छै  ,आंह आंह आंह आंह अ अ
हे भुल्ली ई ई ई ई ई ई
यो तुम्हरी धातुन्द एगे,  तौं डोटी भगलिंग अ अ अ अ अ अ
ये  सुणिक  सपन ऐगे अ अ अ , ओ  माता प्योंला राणी  हों हों हों हों  हां हां ह अ अ
डोटी भगलिंग  जा ,माता प्योला राणि स्वीली  सपन हेगि आंह आंह आंह ह ह
हे भुल्ली ई ई ई
 त्यार  कुड़ी का रवाडी होलो , यो सांदंण कु खुंट अ अ अ अ अ अ
सात दिन तू तो राणि ई ई ई ई ई  , यो  जल चढ़ा दीये अ अ अ अ  अ अ   
इज्जा सांदंण फूल मा जल चढई  तू  आंह आंह आंह ह ह ह
हे भुल्ली ई ई ई
सात दिन कौला  अब , यो फल खिली जाल आ आ आंह आंह आंह
यो फल आयी जालू तब अ अ ,संतान हई जाली  हो हो हो हो हो आ आ अ अ  ह ह .....
इज्जा सांदंण खुंट भटेय  कल्ल  खिलल तब संतान व्हेली आंह आंह आंह ह ह ह
हे भुल्ली ई  ई ई  ई इ
 वो माता प्योंला राणि तब ,यरणित उठी जैली आंह आंह आंह आंह आंह
रात-ब्याण बगत प्योंला आंह    क्या जल चढाली  ? हो हो हो हो हो हो हो ........

 (२) गंगनाथ की गुरु गोरखनाथ जी  से दीक्षा का अंश
ए.......तै बखत का बीच में, हरिद्वार में बार बर्षक कुम्भ जो लागि रौ।
ए...... गांगू.....! हरिद्वार जै बेर गुरु की सेवा टहल जो करि दिनु कूंछे......!
अहा.... तै बखत का बीच में, कनखल में गुरु गोरखीनाथ जो भै रईं......!
ए...... गुरु कें सिरां ढोक जो दिना, पयां लोट जो लिना.....!
ए...... तै बखत में गुरु की आरती जो करण फैगो, म्यरा ठाकुर बाबा.....!
अहा.... गुरु धें कुना, गुरु......, म्यारा कान फाडि़ दियो,
मून-मूनि दियो, भगैलि चादर दि दियौ, मैं कें विद्या भार दी दियो,
मैं कें गुरुमुखी ज बणा दियो। ओ...
दो तारी को तार-ओ दो तारी को तार,
गुरु मैंकें दियो कूंछो, विद्या को भार,
बिद्या को भार जोगी, मांगता फकीर, रमता रंगीला जोगी,मांगता फकीर।
(३) मृत्यु उपरान्त जोशी खोला में गंगनाथ और भाना की आत्मा आहवान का अंश 
      (साभार :हेम सिंह बिष्ट ,नवोदय  पर्वतीय कला केंद्र ,पिथोरागढ़ )

मानी जा  हो डोटी का  कुंवर अब 
मानी जा  हो रूपवती भानाअब
जागा हो डोटी का  कुंवर अब
जागा हो रूपवती भाना अब
प्राणियों का रणवासी  छोडियो  अब
छोडियो डोटी वास
माँ का प्यार पिता का द्वार -२ , छोडियो तू ले आज
भभूती  रमाई गंगनाथा रे -२
डोटी का कुंवर गंगनाथा रे -२
रूपवती भाना गंगनाथा रे -२
ताज क्यूँ उतारी दियो नाथा रे -२
जोगी का भेष लियो  नाथा रे -२
भभूती  रमाई गंगनाथा  रे   -२

अंतत : उत्तराखंडी लोक संस्कृति  विरासत के अथाह  सागर के इस बूंद का अध्यन करने पर यह  अहसास होता है की उत्तराखंड  हिमालय में
जागर  लोकगीतों का दुर्लभ सांस्करतिक और साहित्यिक ज्ञान पहाड़ -पहाड़ पर बिखरा पड़ा  है जिसके  मर्मज्ञ लोक कलाकार धीरे धीरे कम होते जा रहे हैं जिनसे लोकगीतों की यह अमूल्य निधि विलुप्त होने के कगार  पर आ खड़ी हुयी जिसके लोक संरक्षण और संवर्धन के लिये सम्बंधित तात्कालिक सामाजिक पीढी का इन सभी लोकगीतों को समझने और एक सामाजिक ,सांस्करतिक और ऐतिहासिक परिपेक्ष में इनके संकलन  -अध्ययन  तथा अवलोकन की नितांत आवश्यकता  है |

 लेखक  - : (गीतेश सिंह नेगी , हिमालय की गोद से ,सिंगापूर प्रवास से )
        

Saturday, May 7, 2011

इतिहास के झरोखों से

इतिहास के झरोखों से :  डोटी गढ़  का संक्षिप्त इतिहास और उसकी ऐतिहासिक और सामाजिक  महता

उत्तराखंड के जागर लोकगीत  और लोक गाथाएँ  स्वयं में अतीत के असंख्य ऐतिहासिक घटनाओं को  अपने गर्भ में समेटें हुए है जिनमे पुरातन हिमालयी संस्कृति के सर्जन और विघटन से भरे  असंख्य पन्ने समाये हुए है | ये लोकगीत इस हिमालयी  राज्य की सनातन संस्क्रति का उद्घोष  तो करते ही इसके साथ साथ एक ओर ये प्राचीन वीर भड़ो का यशोगान भी करते है तो वहीं दूसरी और ये लोकगीत और लोक गाथाएँ इतिहास प्रेमी  लोगौं के लिये काल चक्र परिवर्तन के रूप में अतीत  के अनछुए - बिखरे घटनाक्रम  को समझने - सजोने और एक विरासत के रूप में लोक इतिहास के क्रम में जोडने में  प्रमुख भूमिका निभाते आ रहे हैं  | 

इतिहासकारों के लिये भले ही ये ऐतिहासिक रूप से शोध के विषय हो परन्तु ये  समस्त लोकगीत और गाथाएँ उत्तराखंड के जनमानस के मानस पटल पर उनके असंख्य  आराध्य देबी-देबतौं   की आराधना -आह्वाहन  के मंत्रों ,लोकगीतों ओर साहित्यिक   धरोहर ओर  उनकी आस्था के बीज रूप में भी बिराजमान है और उनके समस्त सामाजिक क्रियाकलापौं,विवाह -पूजा संस्कारों , तीज -त्योहारौं,थोल म्यालौं आदि   में रच बस गए है |

इन्ही लोकगीत और लोक गाथाओं  विशेषकर गोरिल (ग्वील -गोलू -गोंरया  जो की चम्पावत  के  सूरज वंशी राजा झालराय का पुत्र  था और इतिहासिक काल में धामदेव -विरमदेव और हरु सेम के समकालिक  माना जाता है ) की गाथाओं और गीतों में  ,राजुला मालुशाही और गडु सुम्याल आदि में भी  डोटी गढ़ का अनेक बार उल्लेख    मिलता है | जो प्राचीन काल में डोटी गढ़ की इसकी ऐतिहासिक महता को सार्थक करता है |

डोटी शब्द  की उत्पति के सम्बन्ध  में दो  धारणायें व्यापत है | पहली धारणा के अनुसार इसकी उत्पति ‘Dovati’ ( which means the land area between the confluences of the two rivers ) sey  हुई है  जबकि दूसरी धारणा (DEVATAVI= DEV+AATAVI or AALAYA (Dev meaning the Hindu god and aatavi meaning the place of re-creation, place of attaining a meditation in Sanskrit) से इसकी उत्पति मानी गयी है |
 
डोटी गढ़ जो की नेपाल का एक सुदूर पश्चिम क्षेत्र है  , तथा उत्तराखंड के कुमौं  क्षेत्र की काली नदी तथा नेपाल की  कर्णाली नदी के बीच बसा है वर्तमान डोटी मंडल में नेपाल के सेती और महाकाली क्षेत्र के ९ जिल्ले कर्मश : धारचूला ,बैतडी ,डडेलधुरा ,कंचनपुर ( महाकाली में  ) और  डोटी,कैलाली,बझांग,बाजुरा और  अछाम  (सेती में )  हैं |

लोकगीतों ,लोककथाओं और उत्तराखंड और नेपाल के लोक इतिहास के अनुसार  डोटी गढ़ उत्तराखंड का  एक प्राचीन राज्य  था  जो सुदर नेपाल तक फैला हुआ था जो सन ११९१ तथा सन १२२३  में उत्तराखंड के  कत्युर राजवंश पर  खश  आक्रमण कारी अशोका- चल्ल और क्राचल्ल  देव आक्रमण के फलस्वरूप १३०० में स्थापित हुआ  ,अशोल चल बैतडी का ही महायानी बोध राजा (Atkinson  ,गोपेश्वर - बाड़ाहाट (उत्तरकाशी ) त्रिशूल अभिलेख )  था जबकि क्राचल्ल देव नेपाल के पश्चिम भाग डोटी का अधिपति था |
(दुलू ताम्रभिलेख  के अनुसार)  |

 डोटी  कत्युरौं के उन् ८ प्रमुख भागौं (बैजनाथ-कत्युर ,द्वाराहाट ,डोटी ,बारामंडल ,अस्कोट ,सिरा ,सोरा ,सुई (काली कुमोउन) में से एक  था  जो खश  आक्रमण  के कारण हुए  कत्युर साम्राज्य के विघटन के बाद  स्थापित  हुआ था |

विजय के पश्चात खश  आक्रमण कारी अशोका- चल्ल ने गोपेश्वर  में बैतडी धारा / वैतरणी धारा में पदमपाद राजयातन (प्रासाद ) का भी निर्माण किया था और उसे  अपनी राजधानी बनाया था जहाँ अब अवशेष  रूप में केवल बोध शैली के एक  भैरव मंदिर सहित कुछ अन्य मंदिर ही मौजूद है | उसने यहाँ   सन १२०० तक राज किया और इस  समय अंतराल में उसने बोध गया में बुद्ध मूर्ति की प्रतिष्ठा भी की  जो की  उसका मुख्या अभियान माना जाता है | जिसका उल्लेख गोपेश्वर त्रिशूल   में  "दानव भूतल स्वामी " के रूप में मिलता है (दानव  भूतल  गढ़वाल कुमोउन का दानपुर क्षेत्र,नंदा  जात का  प्रसिद्ध भड लाटू दाणु यहीं का बीर भड था जिसकी पूजा नंदा राज जात में होती है   )

अशोक चल्ल ने कर वसूली के लिये यहाँ बिभिन्न रैन्का चौकियों/चबूतरों का निर्माण भी  किया जिसके उतराधिकारी कैन्तुरी  रैन्का बाद में यहाँ शासन करते रहे (रैन्का = राजपुत्र ) इसके अतरिक्त प्रसिद्ध कैन्तुरी  राजा  ब्रहम देव (विरम देव ) जिसे गढ़वाली लोक गाथा गढ़ु  सुम्याल में "रुदी "   नाम से जाना जाता है और  जिसका शासन  काल सन १३७०-१४४३ ई समझा जाता है  ने महाकाली  क्षेत्र के कंचनपुर जिले में "ब्रहमदेव की मंडी " की स्थापना  भी की थी | 

क्राचल्ल  देव  जो की पश्चिम  नेपाल के डोटी गढ़ का अधिपति था और एक महायानी बोध था ने सन १२३३ मे उत्तराखंड के यत्र - तत्र   बिखरे कत्युरी राज्य पर आक्रमण किया जिसका उल्लेख दुलू  (क्राचल्ल  देव  का पैत्रेक राज्य ) के लेख में मिलता है | विजय के पश्चात  क्राचल्ल  देव ने इस भाग को दस सामन्तौं (जिन्हे मांडलिक कहा जाता था )के अधीन सौंपकर दुलू  लौट गया |

क्राचल्ल  देव द्वारा नियुक्त ये   दस मांडलिक सामंत निम्नवत थे :

(१) श्री बल्ला देव मांडलिक (२) श्री बाघ  चन्द्र मांडलिक (३) श्री श्री अमिलादित्य राउतराज    (४) श्री जय सिंह मांडलिक (५) श्री जाहड़देव मांडलिक
(६) श्री जजिहल देव मांडलिक (७) श्री चन्द्र  देव मांडलिक(करवीरपुर ,बैजनाथ अभिलेख ,१२३३ ई  ) (८) श्री वल्लालदेव मांडलिक (९) श्री विनय चन्द्र (१०) श्री मुसादेव मांडलिक

कालांतर में   कत्युरी राज्य के पश्चिम  भाग  अर्थात काली कुमौं में चन्द शक्ति  का उदय  हुआ उधर  गढ़वाल -कुमौं - नेपाल  के तराई पर यवनों के आक्रमण शुरू  हो चुके थे |

सन १४४५-५० ई  के आसपास डोटी राजपरिवार  का छोटा राजकुमार नागमल्ल (सिरा का रैन्का राजा ) ने अपने बडे भाई अर्जुन देव  से राजगद्दी  छीन कर अपनी शक्ति का विस्तार किया | अर्जुन देव को चन्द राजा कलि कल्याण चन्द्र की शरण में जाना पड़ा | कलि कल्याण चन्द्र की जानता उसके बर्ताव  से खुश नहीं थी,अस्तु राजकुमार भारती चन्द (कलि कल्याण चन्द का भतीजा     ने विद्रोही कुमौनियों को साथ मिलकर अपना अलग संघ बना डाला और डोटी पर छापा  मरने निकल पड़ा |
(Atkinson , के अनुसार भारती चन्द्र ने अपना   शिविर बाली चोकड़    नामक  स्थान  पर (काली नदी के तट पर) लगया था |

कालान्तर में जब डोटी के राजा ने काली कुमोउन पर आक्रमण कर दिया तो कटेहर  नरेश (संभवतया हरु सैम ) ,मुसा सोंन   के वंसज तथा सोंनकोट के पैक मैद सोंन की मदद से उन्होने भीषण  युद्ध में  डोटी के  नागमल्ल को परास्त कर दिया |

डोटी के रैन्का  :

निरंजन  मल्ला  देव  ने १३ वी  सदी के आस पास ,कत्युर साम्राज्य के अवसान के बाद डोटी राज्य की स्थापना की | वह संयुक्त कत्युर राज्य के अंतिम कत्युरी राजा  का पुत्र था | डोटी के राजा को  रैन्का  या रैन्का महाराज भी कहा जाता था |

इतिहास कारौं ने निम्न रैन्का महाराजौं की प्रमाणिक  पुष्टि की है :

निरंजन  मल्ल  देव  (Founder of Doti Kingdom), नागी   मल्ल  (1238), रिपु  मल्ल  (1279), निरई   पाल  (1353 may be of Askot and his historical evidence of 1354 A.D has been found in Almoda), नाग  मल्ल  (1384), धीर  मल्ल  (1400), रिपु  मल्ल  (1410), आनंद  मल्ल  (1430), बलिनारायण  मल्ल  (not known), संसार  मल्ल  (1442), कल्याण  मल्ल  (1443), सुरतान    मल्ल  (1478), कृति  मल्ल (1482), पृथिवी  मल्ल  (1488), मेदिनी  जय  मल्ल   (1512), अशोक  मल्ल    (1517), राज  मल्ल  (1539), अर्जुन  मल्ल / शाही   (not known but he was ruling Sira as Malla and Doti as Shahi), भूपति  मल्ल / शाही  (1558), सग्राम   शाही  (1567), हरी  मल्ल /शाही  (1581 Last Raikas King of Sira and adjoining part of Nepal), रूद्र  शाही  (1630), विक्रम  Shahi  (1642), मान्धाता  शाही  (1671), रघुनाथ  शाही  (1690), हरी  शाही  (1720), कृष्ण  शाही  (1760), दीप   शाही  (1785), पृथिवी  पति   शाही  (1790, 'he had fought against Nepali Ruler (Gorkhali Ruler) with British in 1814 A.D').

इतिहासकार डबराल के  अनुसार कत्युरी राजा  त्रिलोक पाल देव जिसकी  शासन  अवधि १२५०-७५ ई ० मानी जाती है का राज्य डोटी से अस्कोट ,दारमा,जौहार,सोर ,सीरा,दानपुर ,पाली पछाउ - बारामंडल -फल्दाकोट तक फैला हुआ था | इतिहासकारों  के अनुसार राजा निरंजन देव ने अपने भाई अभय पाल की मदद से असकोट को जीत लिया था उसने कुंवर धीरमल्ल को सीरा ,धुमाकोट   और चम्पावत का शासक नियुक्त किया उसने अपने छोटे पुत्र को द्वाराहाट(पाली पछाउ ) का और बडे पुत्र को चम्पावत सुई  का मांडलिक बनाया जो कालांतर में डोटी का राजा बना |

कैन्तुरी   इतिहास में प्रीतम देव /पृथ्वीपाल /पृथ्वीशाही का भी  उल्लेख मिलता है  जो आसन्ति - वासंती देव पीड़ी के ७ वे  नरेश अजब राय  (पाली पछाउ ) के पुत्र गजब राय  (द्वाराहाट का कैन्तुरी राजा ) के पुत्र सुजान देव का छोटा भाई था  जिसने रानीबाग के भयंकर युद्ध में तुर्क सेना को परस्त किया था | पिथोरागढ़   उसका एक प्रमुख गढ़ था  और उसकी एक पत्नी मान सिंह की बेटी गांगला देई,दूसरी धरमा देई और तीसरी धामदेव की माता और हरिद्वार के निकट  के पहाड़ी  भूभाग के मालवा खाती  क्षत्रिय राजवंशी झहब  राज की पुत्री थी जिसे    "रानी जिया " और  "मौला देई " के नाम से जाना जाता था | प्रीतम देव शत्रु  का विनाश  करने वाला प्रतापी राजा था  जिसका वर्णन जागर गीतों में ( "जै पृथ्वीपाल ने पृथ्वी हल काई "  ) मिलता है  |

रानी जिया पृथ्वीपाल की मृत्यु के पश्चात गौला नदी के समीप सयेदौं से हुए युद्ध में विजय के पश्चात मृत्यु को प्राप्त हुई थी जहाँ आज भी उसकी समाधि  "चित्रशीला " नाम से उत्तरायणी मेले  के दिन पूजी जाती है | जिया रानी का पुत्र धामदेव था जो बड़ा प्रतापी  और  शक्तिशाली राजा था और  कत्युरी राज के इतिहास में उसके  शासन काल को  स्वर्णिम युग की संज्ञा दी जाती है | राजुला - मालूशाही की प्रसिद्ध लोकगाथा का नायक मालूशाही , राजा धामदेव का ही पुत्र था |

प्रसिद्ध गीत " तिलै धारू बोला  "   जो तिलोतमा पर  विरमदेव के बलपूर्वक अधिकार की गाथा को अपने गर्भ में लिये हुए है भी डोटी गढ़ से ही सम्बन्ध  रखती है क्यूंकि तिलोतमा दुलू पधानी और रिश्ते में  विरम देव की मामी थी |
विरमदेव और  चन्द राजा विक्रम  के बीच का  जवाड़ी सेरा का युद्ध जिसमे विरम देव  ने धामदेव के साथ मिलकर  चन्द राजा के पुत्र की बारात जो की डोटी की राजकुमारी  विरमा डोटियालणी  का डोला ले कर आ रही थी जवाड़ी सेरा में लुट ली थी क्यूंकि विक्रम चन्द ने उसकी अनुपस्थिति  में उसका गढ़ लखनपुर लुटा था और विरमदेव की सात वीरांगना पुत्रियाँ उससे युद्ध करते हुए वीरगति  को प्राप्त हुई थी | विरमदेव विरमा डोटियालणी का डोला लुट कर लखनपुर ले आया था और  युद्ध में चन्दराजा की हार हुई जिसका उल्लेख लोकगीतों  में मिलता इस  प्रकार से मिलता है :

 "जै निरमा ज्यू  को आल  बांको ढाल बांको
 तसरी कमाण बांकी -जीरो (जवाड़ी) सेरो बाको "


इतिहासकारों  के अनुसार संन  १७९० के गोरखा विस्तार के दौरान सेती नदी के तट का नरी डंग  क्षेत्र में नेपाली  सेना का और धुमाकोट  क्षेत्र गोरखाली के विरुद्ध डटी  डोटी सेना का  शिविर था |

भाषा और संस्कृति :

डोटियाली या डुट्याली  तथा कुमोउनी , डोटी( पश्चिम नेपाल  क्षेत्र सहित ) में प्रचलित स्थानीय भाषाएं है | डोटियाली या डुट्याली जो की कुमोउनी भाषा से समानता  रखती है और इंडो यूरोपियन परिवार की एक भाषा है को महापंडित राहुल सांकृत्यान ने  कुमोउनी  भाषा की  एक उप बोली माना उनके अनुसार यह डोटी में कुमोउन के कन्तुरौं के साथ  डोटी में आई जिन्होने संन १७९० तक डोटी पर राज   किया था | परन्तु नेपाल में इससे  एक नेपाली बोली के रूप मे जाना जाता है समय समय पर डोटियाली या डुट्याली भाषा  को नेपाल की राष्ट्रीय  भाषा के रूप मे मान्यता देने की मांग उठती  रही है .  गोरा  (Gamra) कुमौनी  होली , बिश्पति , हरेला , रक्षा   बन्द्हब  (Rakhi) दासहिं , दिवाली , मकर  संक्रांति   आदि डोटी क्षेत्र के प्रमुख  त्यौहार रहे हैं .

पारम्परिक लोकगीत  :  छलिया , भाडा , झोरा  छपेली , ऐपन , जागर  डोटी संस्कृति के प्रमुख  अंग है | जागर कैन्तुरी  काल की लोक कथाओं को उजागर करने वाला मुख्या लोक गीत   हैं |
Jhusia Damai ( झूसिया दमाई ) कुमोउनी संस्कृति के एक प्रमुक जागरी और लोकगायक थे जिनका जन्म  १९१३ में   रणुवा  धामी  बैतडी जिल्ले के बस्कोट ,नेपाल में हुआ  था |

आज भी गढ़वाल -कुमौं के अनेक गोरिल जागर गीतों तथा गाथाओं में  में डोटी का उल्लेख मिलता है ,जैसे की

जै गुरु-जै गुरु
माता पिता गुरु देवत
तब तुमरो नाम छू इजाऽऽऽऽऽऽ
यो रुमनी-झूमनी संध्या का बखत में॥
तै बखत का बीच में,
संध्या जो झुलि रै।
बरम का बरम लोक में, बिष्णु का बिष्णु लोक में,
राम की अजुध्या में, कृष्ण की द्वारिका में,
यो संध्या जो झुलि रै,
शंभु का कैलाश में,
ऊंचा हिमाल, गैला पताल में,
डोटी गढ़ भगालिंग में
कि रुमनी-झुमनी संध्या का बखत में,
पंचमुखी दीपक जो जलि रौ,
स्योंकार-स्योंनाई का घर में, सुलक्षिणी नारी का घर में,
जागेश्वर-बागेश्वर, कोटेश्वर, कबलेश्वर में,
हरी हरिद्वार में, बद्री-केदार में,
गुरु का गुरुखण्ड में, ऎसा गुरु गोरखी नाथ जो छन,
अगास का छूटा छन-पताल का फूटा छन,
सों बरस की पलक में बैठी छन,
सौ मण का भसम का गवाला जो लागीरईए
गुरु का नौणिया गात में,
कि रुमनी- झुमनी संध्या का बखत में,
सूर्जामुखी शंख बाजनौ,उर्धामुखी नाद बाजनौ।
कंसासुरी थाली बाजनै, तामौ-बिजयसार को नगाड़ो में तुमरी नौबत जो लागि रै,
म्यारा पंचनाम देबोऽऽऽऽऽऽ.........!
अहाः तै बखत का बीच में,
नौ लाख तारों की जोत जो जलि रै,
नौ नाथन की, नाद जो बाजि रै,
नौखण्डी धरती में, सातों समुन्दर में,
अगास पाताल में॥
कि ऎसी पड़नी संध्या का बखत में,
नौ लाख गुरु भैरी, कनखल बाड़ी में,
बार साल सिता रुनी, बार साल ब्यूंजा रुनी,
तै तो गुरु, खाक धारी, गुरु भेखधारी,
टेकधारी, गुरु जलंथरी नाथ, गुरु मंछदरी नाथ छन, नंगा निर्बाणी छन, खड़ा तपेश्वरी छन,
शिव का सन्यासी छन, राम का बैरागी छन,
कि यसी रुमनी-झुमनी संध्या का बखत में,
जो गुरु त्रिलोकी नाथ छन, चारै गुरु चौरंगी नाथ छन,
बारै गुरु बरभोगी नाथ छन, संध्या की आरती जो करनई।
गुरु वृहस्पति का बीच में।
.......कि तै बखत का बीच में बिष्णु लोक में जलैकार-थलैकार रैगो,
कि बिष्णु की नारी लक्ष्मी कि काम करनैं,
पयान भरै। सिरा ढाक दिनै। पयां लोट ल्हिने,
स्वामी की आरती करनै।
तब बिष्णु नाभी बै कमल जो पैद है गो,
तै दिन का बीच में कमल बटिक पंचमुखी ब्रह्मा पैड भो,
जो ब्रह्मा-ले सृष्टि रचना करी, तीन ताला धरती बड़ै,
नौ खण्डी गगन बड़ा छि।
....कि तै बखत का बीच में बाटो बटावैल ड्यार लि राखौ,
घासिक घस्यार बंद है रौ, पानि को पन्यार बंद है रौ,
धतियैकि धात बंद है रै, बिणियेकि बिणै बंद है रै,
ब्रह्मा वेद चलन बंद है रो, धरम्क पैन चरण बंद है गो,
क्षेत्री-क खण्ड चलन बन्द है गो, गायिक चरण बन्द है गो,
पंछीन्क उड़्न बंद है गो, अगासिक चडि़ घोल में भै गईं,
सुलक्षिणी नारी घर में पंचमुखी दीप जो जलण फैगो........
......कि तै बखत का बीच में संध्या जो झुलनें,
दिल्ली दरखड़ में, पांडव किला में,
जां पांच भै पाण्डवनक वास रै गो,
संध्या जो झूलनें इजूऽऽऽ हरि हरिद्वार में, बद्री केदार में,
गया-काशी,प्रयाग, मथुरा-वृन्दावन, गुवर्धन पहाड़ में,
तपोबन, रिखिकेश में, लक्ष्मण झूला में,
मानसरोबर में नीलगिरि पर्वत में......।
तै तो बखत का बीच में, संध्या जो झुलनें इजू हस्तिनापुर में,
कलकत्ता का देश में, जां मैय्या कालिका रैंछ,
कि चकरवाली-खपरवाली मैय्या जो छू, आंखन की अंधी छू,
कानन की काली छू, जीभ की लाटी छू,
गढ़ भेटे, गढ़देवी है जैं।
सोर में बैठें, भगपती है जैं,
हाट में बैठें कालिका जो बणि जैं।
पुन्यागिरि में बैठें माता बणि जैं,
हिंगलाज में भैटें भवाणी जो बणि जैं।
....कि संध्यान जो पड़नें, बागेश्वर भूमि में, जां मामू बागीनाथ छन।
जागेशवर भूमि में बूढा जागीनाथ रुनी,
जो बूढा जागी नाथन्ल इजा, तितीस कोटि द्याप्तन कें सुना का घांट चढ़ायी छ,
सौ मण की धज चढ़ा छी।
संध्या जो पड़ि रै इजाऽऽऽ मृत्युंद्यो में, जां मृत्यु महाराज रुनी, काल भैरव रुनी।
तै बखत का बीच में संध्या जो झुलनें,
सुरजकुंड में, बरमकुंड में, जोशीमठ-ऊखीमठ में,
तुंगनाथ, पंच केदार, पंच बद्री में, जटाधारी गंग में,
गंगा-गोदावरी में, गंगा-भागीरथी में, छड़ोंजा का ऎड़ी में,
झरु झांकर में, जां मामू सकली सैम राजा रुनी,
डफौट का हरु में, जां औन हरु हरपट्ट है जां, जान्हरु छरपट्ट है जां.......।
गोरियाऽऽऽऽऽऽ दूदाधारी छै, कृष्ण अबतारी छै।
मामू को अगवानी छै, पंचनाम द्याप्तोंक भांणिज छै,
तै बखत का बीच में गढी़ चंपावती में हालराई राज जो छन,
अहाऽऽऽऽ! रजा हालराई घर में संतान न्हेंतिन,
के धान करन कूनी राजा हालराई.......!
तै बखत में राजा हालराई सात ब्या करनी.....संताना नाम पर ढुंग लै पैद नि भै,
तै बखत में रजा हालराई अठुं ब्या जो करनु कुनी,
राजैल गंगा नाम पर गध्यार नै हाली, द्याप्ता नाम पर ढुंग जो पुजिहाली,......
अहा क्वे राणि बटिक लै पुत्र पैद नि भै.......
राज कै पुत्रक शोकै रैगो
एऽऽऽऽऽ राजौ- क रौताण छिये......!
एऽऽऽऽऽ डोटी गढ़ो क राज कुंवर जो छिये,
अहाऽऽऽऽऽ घटै की क्वेलारी, घटै की क्वेलारी।
आबा लागी गौछौ गांगू, डोटी की हुलारी॥
डोटी की हुलारी, म्यारा नाथा रे......मांडता फकीर।
रमता रंगीला जोगी, मांडता फकीर,
ओहोऽऽऽऽ मांडता फकीर......।
ए.......तै बखत का बीच में, हरिद्वार में बार बर्षक कुम्भ जो लागि रौ।
ए...... गांगू.....! हरिद्वार जै बेर गुरु की सेवा टहल जो करि दिनु कूंछे......!
अहा.... तै बखत का बीच में, कनखल में गुरु गोरखीनाथ जो भै रईं......!
ए...... गुरु कें सिरां ढोक जो दिना, पयां लोट जो लिना.....!
ए...... तै बखत में गुरु की आरती जो करण फैगो, म्यरा ठाकुर बाबा.....!
अहा.... गुरु धें कुना, गुरु......, म्यारा कान फाडि़ दियो,
मून-मूनि दियो, भगैलि चादर दि दियौ, मैं कें विद्या भार दी दियो,
मैं कें गुरुमुखी ज बणा दियो। ओ...
दो तारी को तार-ओ दो तारी को तार,
गुरु मैंकें दियो कूंछो, विद्या को भार,
बिद्या को भार जोगी, मांगता फकीर, रमता रंगीला जोगी,मांगता फकीर।

उपरोक्त के आधार पर कहा जा सकता है की  डोटी गढ़ का उल्लेख उत्तराखंड और नेपाल  के प्राचीन इतिहास के  एक साक्षी  भूखंड के रूप में होने के साथ साथ ही यहाँ के देबी-देबतौं जो की प्रसिद्ध  ऐतिहासिक वीर भड  थे ,के  अदम्य साहस , वीरता ,प्रेम-प्रसंग ,विद्रोह  की लोक-गाथाओं और लोकगीतों में प्रमुख रूप से मिलता है और उनकी   ऐतिहासिक भूमिका में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है |

संदर्भ ग्रन्थ : उत्तराखंड के वीर भड , डा ० रणबीर सिंह चौहान
                    ओकले तथा गैरोला ,हिमालय की लोक गाथाएं 
                    यशवंत सिंह कटोच -मध्य  हिमालय का पुरातत्व

विशेष आभार : डॉ. रणबीर सिंह चौहान, कोटद्वार  (लेखक और इतिहासकार ), माधुरी रावत जी  कोटद्वार
स्रोत : म्यार ब्लॉग हिमालय की गोद से (सिंगापूर प्रवास से )           
          (http://geeteshnegi.blogspot.com/)

Thursday, May 5, 2011

गढ़वाली कबिता : लाटू देबता




झूठा सच ,
खत्याँ बचन ,
बिस्ग्यां अश्धरा ,
खयीं सौं करार ,
और कुछ सौ एक रुपया उधार ,
बस इत्गा ही छाई वेकु मोल
जै खुण लोग लाटू बोल्दा छाई ,
जै थेय कुई बी घच्का सकदु छाई ,
कुई बी खैड्या सकदु छाई ,
घंट्याई सकदु छाई ,
थपडयाई सकदु छाई ,
अट्गायी और उन्दू लमडाई सकदु छाई ,
निर्भगी स्यार पुंगडौं मा म्वाल ध्वल्दा -ध्वल्दा ,
सरया गौं का खाली भांडा भौरदा -भौरदा ,
लोगों का ठंगरा -फटला सरदा -सरदा ,
घास -लखुडौं का बिठ्गा ल्यान्दा -ल्यान्दा ,
और ब्यो -कारिज मा जुठा भांडा मुज्यान्दा -मुज्यान्दा ,
ब्याली अचाणचक से सब्युन थेय छोडिकी चली ग्या,
सदनी खुण ,
बिचरल ना कब्भि कै की शिकैत काई,
ना कब्भि कै खुण बौन्ला बिटायी,
ना  कब्भि कै खुण आँखा घुराई ,
और ना कब्भि कै की कुई चीज़ लुकाई ,
बस ध्वाला छीं त सदनी ,
द्वी बूंदा अप्डी लाचारी का,
अप्डी मज़बूरी का,
सुरुक -सुरुक,
टुप- टुप
यखुल्या -यखुली,
पिणु राई नीमा की सी कूला,
सार लग्युं राई उन्ह द्वी मीठा बचनो का,
जू नि व्हेय साका ,
कब्भि वेका अपणा,
आज सरया गौं का मुख फर चमक्ताल सी प्वड़ी चा ,
कुई बुनू चा बिचारु जड्डल म्वार ,
कुई बुनू चा भूखल ,
सब्हियों खुण सोच प्व़ाड़याँ छीं अफ- अफु खुण ,
और बोलंण लग्यां छीं एक दुसर मा
 हे राम धाईं  - क्या म्यालु नौनु छाई
बिचारु लाटू देबता व्हेय ग्याई !
बिचारु लाटू देबता व्हेय ग्याई !
बिचारु लाटू देबता व्हेय ग्याई !

रचनाकार : गीतेश सिंह नेगी ( सिंगापूर प्रवास से ,सर्वाधिकार सुरक्षित,५-४-११)